फरहाद-साजिद, साजिद खान के लिए फिल्में लिखते रहे हैं. लेकिन एंटरटेनमेंट देखने के बाद अगर साजिद खान की फिल्में याद करें तो यह तय करना मुश्किल हो जाएगा कि असल साजिद खान किसे होना चाहिए? एंटरटेनमेंट के हर फ्रेम में साजिद खान का सिनेमा किलकारियां मारता है. किल करतीं हुई कलाकारियां.
बतौर लेखक फरहाद-साजिद ने साजिद खान के लिए सिर्फ दो फिल्में लिखीं. हाउसफुल 2 और हिम्मतवाला. रोहित शेट्टी के लिए उन्होंने ढेरों फिल्में लिखीं. लेकिन उनकी ‘एंटरटेनमेंट’ में रोहित शेट्टी का बचकानापन नहीं है, साजिद खान की बेवकूफियां हैं.
सरकार को सिगरेट-बीड़ी के स्क्रीन पर आते ही ‘धूम्रपान स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है’ की पट्टी चलाने की जगह एंटरटेनमेंट जैसी फिल्मों के हर सीन पर ‘इस दृश्य की ये हालत साजिद खान के सिनेमा के कारण है’ जैसी पट्टी चलाने के बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए. उसे लागू करने के लिए राष्ट्रीय स्तर की अमानवीय गाइडलाइन्स भी बनानी चाहिए, क्योंकि तभी मानवों के बचे रहने की आधा प्रतिशत गुंजाइश बाकी रहेगी.
एंटरटेनमेंट ‘हमशकल्स’ से भी बुरी फिल्म है. लेकिन किस्मत देखिए अक्षय कुमार की, कि यह फिल्म साजिद खान ने नहीं फरहाद-साजिद ने बनाई है. अगर साजिद खान ने बनाई होती, तो जिस तरह हमशकल्स के बाद सैफ अली खान घर से महीना-भर बाहर नहीं निकल पाए थे, अक्षय कुमार भी नहीं निकल पाते. ये भारी नुकसान होता खिलाड़ी का, क्योंकि उस एक महीने में तो वे दूसरी एंटरटेनमेंट बना देते.
हमारे सिनेमा में कुछ नुस्खे इस कदर आजमाये जा रहे हैं कि वे कहावत का दर्जा पा सकते हैं. ऐसी ही एक कहावत यह हो सकती है कि जब आदमी बुजुर्गियत की तरफ बढ़ने लगता है तो उसे रंगीन कपड़े ज्यादा भाने लगते हैं. हमारी फिल्मों के सुपरस्टार इसी सिंड्रोम का शिकार हैं. युवा दिखने के लिए वे रंगीन कपड़ों से खुद को इतना रंग चुके हैं इन दिनों, कि परछाई के काले रह जाने का दुख होता होगा. अक्षय इस फिल्म में, और इन दिनों अपनी ज्यादातर फिल्मों में, युवा दिखने के लिए इसी तरह के रंगीन कपड़े पहनते हैं, जुल्फें ले आते हैं, लाल पट्टे की बड़ी साइज वाली घड़ियां पहनते हैं, और सिर को तीन सौ साठ डिग्री पर घुमा-घुमाकर नृत्य करते हैं.
और ये भी क्या दिन आए हैं, कि हमें अक्षय कुमार के कपड़ों की आलोचना को समीक्षा कहना पड़ रहा है. आलोचना होनी थी उनके अभिनय की, लेकिन जब वे सालों से उसी तरह का अभिनय कर रहे हैं, जिसकी आलोचना हमेशा से हो रही है और कोई फर्क नहीं पैदा कर पा रही, तो ऐसा अभिनय आलोचना और समीक्षाओं के परे हो ही जाता है. मगर जब अक्षय को अच्छे अभिनय का सपना आता होगा, क्या वह सपना उनपर भौंकता होगा, क्या अक्षय संघर्ष, हेराफेरी, स्पेशल छब्बीस को याद कर रात भर जागते होंगे. लगता तो नहीं ऐसा कुछ होता होगा.
फिल्म जानवरों के प्रति भी स्नेह नहीं रखती. स्क्रिप्ट तो बिलकुल नहीं रखती, और भले ही मेनका गांधी आपके साथ खड़ी हों, फिल्म के उन दृश्यों को देखकर आप पर भयंकर खीझ आती है जिनमें आप प्यारे-होशियार कुत्ते को उल्लू का पट्ठा बनाने पर तुले रहते हैं. कुत्तों पर फिर कभी फिल्म बनाएं, तो एक समझदार दिन हमारे घर आइएगा, कुत्तों की कैरेक्टर स्टडी के लिए, हम दिखाएंगे आपको गोल्डन रिट्रीवर क्या चीज होती है.