हिंदुस्तान की राजनीति में सैकड़ों छोटी-बड़ी पार्टियाँ सक्रिय हैं; लेकिन इनमें से छ: राष्ट्रीय पार्टियाँ और तक़रीबन 57 राज्य स्तरीय पार्टियाँ देश की राजनीति में चर्चित और सक्रिय हैं। फिर भी भाजपा और कांग्रेस का नेतृत्व ही देश की राजनीति पर हावी है और इन पार्टियों से आज भी छोटी यानी क्षेत्रीय पार्टियों में यह डर बैठा हुआ है कि इनमें से किसी भी पार्टी की सरकार केंद्र में रहेगी, तो क्षेत्रीय पार्टियों के अस्तित्व को ख़तरा रहेगा। इनमें से तमाम पार्टियाँ अपने इसी अस्तित्व को बचाने के लिए भाजपा के राजनीतिक गठबंधन एनडीए यानी नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस और कुछ कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन यूनाइटेड प्रोग्रेसिव अलायंस है। सभी जानते हैं कि साल 2014 से केंद्र में भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए की सरकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में चल रही है। यह वही भाजपा है, जिसका गठन साल 1980 में हुआ। इसका पहले भारतीय जनसंघ नाम था।
बहरहाल, नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में साल 2014 और साल 2019 में बड़े बहुमत के साथ भाजपा की अगुवाई वाले एनडीए की सरकार केंद्र में आने के बाद भाजपा को देश भर में मात देने के उद्देश्य से बिहार के मुख्यमंत्री और जद(यू) के मुखिया नीतीश कुमार की पहल पर 18 जुलाई, 2023 को कांग्रेस के नेतृत्व में इंडिया गठबंधन बनाया गया, जिसमें शुरू में तक़रीबन 40 पार्टियाँ शामिल हुई थीं। उस समय इंडिया गठबंधन में जितनी भी पार्टियाँ शामिल थीं, उन्हें किसी भी हाल में भाजपा से छुटकारा चाहिए था; लेकिन कुछ ही समय बाद जद(यू) के मुखिया नीतीश कुमार कूदकर एनडीए में चले गये और उद्धव ठाकरे की शिवसेना, शरद पवार की राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी टूट गयीं और उधर कांग्रेस और सपा के बीच विधानसभा चुनाव में मतभेद बढ़ने लगे। साल 2024 के लोकसभा चुनाव में रालोद के मुखिया जयंत चौधरी भी एनडीए में चले गये। आम आदमी पार्टी ने भी पहले पंजाब के विधानसभा चुनाव में और पिछले साल हरियाणा के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से हाथ मिलाना उचित नहीं समझा। इधर कांग्रेस को न सिर्फ़ हरियाणा और महाराष्ट्र में बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा, बल्कि जम्मू-कश्मीर और झारखण्ड में भी उसे बहुत कुछ हासिल नहीं हुआ। और इस प्रकार से इंडिया गठबंधन में फूट पड़ने लगी। ये वो मोटी-मोटी बातें हैं, जो तक़रीबन सभी जानकार जानते और मानते हैं; लेकिन इंडिया गठबंधन टूटने की असली वजह कुछ और है, जो हर किसी को नहीं मालूम।
दरअसल, इंडिया गठबंधन से छिटकी इन छोटी पार्टियों को अपने अस्तित्व का जितना ख़तरा भाजपा से है, उतना ही ख़तरा कांग्रेस से भी है। और इन क्षेत्रीय पार्टियों को लेकर कहीं-न-कहीं कांग्रेस भी उसी ढर्रे पर चल रही है, जिस ढर्रे पर भाजपा चल रही है। कांग्रेस को कहीं-न-कहीं यह भी लगने लगा है कि अपनी सबसे पुरानी राजनीतिक विरासत में अगर उसने इन छोटी पार्टियों को घुसने का मौक़ा दिया, तो न सिर्फ़ उसका अस्तित्व छोटा हो जाएगा, बल्कि छोटी पार्टियों की शर्तों पर उसे चलना पड़ेगा, जिसका असर कभी केंद्र की सत्ता अगर हाथ लगी, तो उस पर भी पड़ेगा। क्योंकि हर छोटी पार्टी अपनी-अपनी पकड़ वाले राज्यों में अपनी सरकार चलाना पसंद करती हैं और उनके रहते कांग्रेस को क्षेत्रीय पार्टियों के वर्चस्व वाले राज्यों में तो मज़बूती मिलेगी ही नहीं, कभी केंद्र में भी मज़बूती नहीं मिल सकेगी। इसका नमूना कांग्रेस उत्तर प्रदेश में देख भी चुकी है, जहाँ सपा ने उसे लोकसभा में चौथाई से भी कम सीटें देने के लिए लंबे समय तक इंतज़ार करवाया था।
अब दिल्ली में चुनाव आने पर इंडिया गठबंधन में दो-फाड़ होने से मामला साफ़ हो गया और इंडिया गठबंधन में छोटी पार्टियों में से ज़्यादातर ने किनारा करके यह साफ़ संदेश कांग्रेस को दिया है कि उन्हें उसकी ज़रूरत नहीं है। क्योंकि राज्यों में सक्रिय छोटी पार्टियों को यह लगता है कि जहाँ उनका वर्चस्व है, वहाँ कांग्रेस के साथ चुनाव लड़ने से कोई चमत्कार नहीं हो रहा है और बिना मतलब उन्हें सीटें कांग्रेस को देनी पड़ रही हैं। यही कांग्रेस को भी लगता है कि 5-10 सीटों पर सुलह करने से तो अच्छा है कि अकेले सभी सीटों पर मैदान में उतरा जाए, जिससे न सिर्फ़ यह अनुभव मिलेगा कि उसकी अपनी खोयी ज़मीन को पाने में कहाँ-कहाँ समस्याएँ आ रही हैं, बल्कि उसकी सीटें बढ़ भी सकती हैं। और यह विश्वास कांग्रेस को साल 2024 के लोकसभा चुनाव में 99 सीटें जीतने के बाद आया, जो कि पिछले दो चुनावों में करारी हार के बाद डगमगा गया था।
बहरहाल, दिल्ली में पिछले दो विधानसभा चुनावों में शून्य पर रही कांग्रेस इस बार पूरे दमख़म से दिल्ली विधानसभा चुनाव लड़ रही है और वो न सिर्फ़ आम आदमी पार्टी सरकार की मुफ़्त की योजनाओं के आधार पर ख़ुद भी वादे कर रही है, बल्कि भाजपा की तर्ज पर दिल्ली की आम आदमी पार्टी सरकार पर हमलावर भी है। मुझे अच्छी तरह याद है कि जब दिल्ली के मुख्यमंत्री के तौर पर जब जून, 2024 में जेल हुई, तो इंडिया गठबंधन की सभी प्रमुख पार्टियों के नेता, यहाँ तक कि कांग्रेस के सभी बड़े नेता सोनिया गाँधी, प्रियंका गाँधी, राहुल गाँधी और मल्लिकार्जुन खड़गे दिल्ली के रामलीला मैदान में जुटे थे और भाजपा की तानाशाही से लेकर केंद्र की मोदी सरकार द्वारा ईडी, सीबीआई और इनकम टैक्स कार्यालय के दुरुपयोग के आरोप लगाते हुए उसके ख़िलाफ़ हल्ला बोला था। लेकिन कुछ ऐसे छड़ भी आये, जब कांग्रेस को मोदी सरकार के ख़िलाफ़ बोलना चाहिए था और वो नहीं बोली। मसलन, लालू प्रसाद को जब जेल हुई, तो कांग्रेस चुप रही। इसी प्रकार से जब झारखण्ड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को जेल हुई, तो कांग्रेस ने अपनी आवाज़ उतनी बुलंद नहीं की, जितनी उसे करनी चाहिए थी, जबकि वहाँ झामुमो के साथ कांग्रेस की गठबंधन सरकार उस समय भी थी और आज भी है। हालाँकि झारखण्ड सरकार में कांग्रेस को उसी तरह छोटा दूसरे नंबर की पार्टी बनकर गठबंधन निभाना पड़ रहा है, जिस प्रकार से भाजपा को बिहार में गठबंधन निभाना पड़ रहा है। लेकिन मक़सद दोनों का एक ही है कि किसी तरह मौक़ा मिले और क्षेत्रीय पार्टी को कमज़ोर कर दिया जाए, जिससे केंद्र में मज़बूती मिल सके।
दरअसल, जहाँ कांग्रेस अपनी खोयी ज़मीन पाने के लिए राज्यों में मज़बूती चाहती है, तो भाजपा अपनी सत्ता मज़बूत करने के लिए हर राज्य में सत्ता चाहती है, जिससे वो अगले 50-100 साल तक केंद्र में भी शासन कर सके। लेकिन दोनों ही पार्टियों के लिए न तो राज्यों में मज़बूती हासिल हो पा रही है और न केंद्र में ही। पिछली दो केंद्र सरकारों में भाजपा का बहुमत बड़ा था; लेकिन इस बार वो केंद्र में भी कमज़ोर हो गयी और दो-तीन राज्यों को छोड़कर तक़रीबन बाक़ी उसकी सत्ता वाले सभी राज्यों में उसकी हालत भी गठबंधन की बैसाखी के सहारे सरकार चलाने वाली है। कांग्रेस की भी हालत यही है। लेकिन दूसरी कई क्षेत्रीय पार्टियाँ हैं, जो अपने दम पर कई राज्यों में सरकारें चला रही हैं। इनमें से पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस है, तो दिल्ली और पंजाब में आम आदमी पार्टी है। अपनी इसी विरासत को बचाते हुए दूसरे राज्यों में बढ़कर कांग्रेस और भाजपा को हराने के लिए ये क्षेत्रीय पार्टियाँ राज्यों में इनके साथ हाथ मिलाकर अपनी पकड़ कमज़ोर करना नहीं चाहतीं। इसी के चलते शिवसेना, तृणमूल कांग्रेस, सपा और राजद ने खुलकर दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का समर्थन किया है। और दिल्ली में जिस प्रकार से अरविंद केजरीवाल के पक्ष में इन क्षेत्रीय पार्टियों के नेताओं ने समर्थन दिया, वो यह साफ़ ज़ाहिर करता है कि क्षेत्रीय पार्टियाँ कहीं-न-कहीं इन दोनों बड़ी पार्टियों को केंद्र की सत्ता से भी दूर रखने पर एकमत हैं। हालाँकि आज़ाद हिंदुस्तान के तक़रीबन 72 साल से ज़्यादा के इतिहास में जो भी सरकारें अब तक बनी हैं, उनमें सबसे ज़्यादा कांग्रेस ने और उसके बाद भाजपा ने ही शासन किया है। दूसरी पार्टियों के प्रधानमंत्री तो हिंदुस्तान को मिले हैं, और जनता पार्टी की सरकार भी एक बार बनी है; लेकिन न तो दूसरी पार्टियों के प्रधानमंत्री लंबे समय तक शासन में रह सके और न ही कोई तीसरी पार्टी केंद्र की सत्ता को लंबे समय तक नेतृत्व कर सकी।
क्योंकि जनता पार्टी की सरकार साल 1977 के लोकसभा चुनाव में बन तो गयी; लेकिन तीन साल के भीरत ही साल 1980 में ही कांग्रेस ने ज़ोरदार वापसी कर ली। उसके बाद साल 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद जो चुनाव हुए, उनमें उनके बेटे राजीव गाँधी ने जबरदस्त सीटें हासिल करते हुए सत्ता हासिल की। इसके बाद बीच-बीच में भाजपा की सरकार भी बनी; लेकिन पूरे पाँच साल चल नहीं सकी। लेकिन साल 2000 में भाजपा की जबरदस्त वापसी हुई और एनडीए की सरकार अटल बिहारी वाजपेई के नेतृत्व में बनी, जो पूरे पाँच साल चली। इसके बाद साल 2004 और साल 2009 में फिर कांग्रेस ने बाज़ी मार ली। और साल 2014 के बाद से नरेंद्र मोदी सत्ता में आये। हालाँकि साल 2024 में वो भी भाजपा को मज़बूती नहीं दिला पाये; लेकिन किसी तरह चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार के दम पर सरकार बना ले गये। विपक्षी दलों में कांग्रेस को यहाँ पूरे 10 साल बाद कुछ मज़बूती तो मिली; लेकिन सरकार बनाने लायक नहीं। अब क्षेत्रीय पार्टियों के पास मौक़ा यह है कि किसी भी तरह राज्यों में अपनी पकड़ मज़बूत रखो, जिससे भविष्य में न तो भाजपा मज़बूती के साथ केंद्र में उभर सके और न ही कांग्रेस वापसी कर सके। इससे होगा यह कि केंद्र में बैठी सरकार क्षेत्रीय पार्टियों को कमज़ोर करने के लिए ईडी, सीबीआई और इनकम टैक्स कार्यालय के झमेले में नहीं फँसा सकेंगी और केंद्र में भी अगर उनको ज़रूरत पड़ी, तो क्षेत्रीय पार्टियों का ही मुँह देखना पड़ेगा।
बहरहाल, दिल्ली विधानसभा चुनाव ज़ोर-शोर से चल रहा है और सभी पार्टियों का एजेंडा यही है कि किसी भी तरह दूसरी पार्टियों की कमियाँ निकालकर और आरोप लगाकर उन्हें कमज़ोर किया जाए। इसके लिए झूठे इश्तिहारों, बरगलाने वाले पोस्टरों और बैनरों से लेकर झूठे विज्ञापन तक तैयार किये जा रहे हैं। इस काम में सबसे आगे भाजपा दिख रही है, जो न सिर्फ़ आम आदमी पार्टी की तरह आम जनता को मुफ़्त योजनाओं का लालच दे रही है, बल्कि महिलाओं को वोट देने के लिए अभी से पैसे भी बाँटने का काम कर रही है। चुनाव आयोग ऐसी घटनाओं को जिस तरह से नज़रअंदाज़ कर रहा है, वो लोकतंत्र के लिए एक गंभीर ख़तरे का संकेत है। इन दिनों दिल्ली वासियों के लिए सभी पार्टियाँ एक से बढ़कर एक वादे करती जा रही हैं। हालाँकि मुक़ाबला त्रिकोणीय तो बनता दिख रहा है; लेकिन आम आदमी पार्टी का पलड़ा अभी भी भारी ही दिख रहा है। फ़िलहाल, 05 फरवरी को दिल्ली में वोटिंग है और 08 फरवरी को रिजल्ट आना है। सरकार किसकी बनेगी, यह रिजल्ट वाले दिन ही साफ़ हो पाएगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं।)