पत्रकारिता के अव्वल, दोयम और फर्जी संस्थानों से हर साल सपनीली आंखों वाले लड़के-लड़कियों के झुंड बाहर निकल रहे हैं. इनमें से बहुतेरे किसी दोस्त, परिचित के हवाले से मुझसे मिलते हैं. कॅरिअर के बारे में सलाह मांगने के बीच में अचानक उतावले होकर बोल पड़ते हैं, सर! कोई नौकरी हो तो बताइए, मैं अपनी जान लगा दूंगा या दूंगी. तब किसी आदिम प्रवृत्ति के तहत मेरा ध्यान उनके मांसल पुट्ठों और नितंबों की ओर चला जाता है जैसे वे किसी कसाईबाड़े में जाने को आतुर पगहा तुड़ाते जवान जानवर हों और मैं उनका गोश्त तौल रहा हूं.
उन्हें मेरी सोच क्रूर और हिंसक लग सकती है लेकिन सच यही है कि दस-बारह साल के भीतर उनका शरीर भले फैल जाएगा लेकिन उनके बौद्धिक और मानसिक सारतत्व का जरा-सा हिस्सा बहुत सस्ते दामों में खरीदकर घटिया कामों में इस्तेमाल कर लिया जाएगा बाकी हताशा में बर्बाद होने के लिए छोड़ दिया जाएगा. मैं उनसे कहता हूं कुछ भी कर लो मीडिया में मत जाओ, वे मुझे संदेह से देखते हैं जैसे मैं उनका पत्ता साफ कर देने के लिए कोई षडयंत्र बुन रहा हूं, फिर उलझ पड़ते हैं तो सर आप क्यों पत्रकार हो गए और अब तक बने हुए हैं?
मैं उन्हें कैसे समझाऊं कि पत्रकारिता की आत्मा कब की सस्ते में नीलाम हो चुकी है और अब पत्रकार होना जिंदगी भर के लिए गरीब, संदिग्ध, असुरक्षित और सारे धतकर्मों का मूकदर्शक होना है. तिस पर तुर्रा यह है कि इन दिनों पत्रकारों को दल्ले-भंड़ुवे जैसे संबोधनों से नवाजने का फैशन जोर पकड़ चुका है. ऐसा करने वाले अधिकतर वे हैं जो किसी न किसी अवैध धंधे में शामिल हैं. उन्हें दिल से लगता है कि उन्हें अपनी तिकड़मों से माल काटने की अबाध आजादी मिलनी ही चाहिए.
मैंने पिछले पच्चीस सालों में हिंदी-अंग्रेजी पत्रकारिता के कई घाटों का पानी पीया है और अब भी प्यासा भटक रहा हूं. एक घाट यानी दुनिया के सबसे बड़े हिंदी अखबार दैनिक जागरण में मेरे एक संपादक थे, जो लखनऊ के हजरतगंज में दफ्तर की छत पर अखबार के सर्कुलेशन और विज्ञापन के मैनेजरों को मुर्गा बनाया करते थे, रिपोर्टरों को लप्पड़ रसीद कर दिया करते थे, महिला पत्रकारों को छिनाल और रंडी कहकर बात किया करते थे. वे खुद भी अक्सर लात खाते थे लेकिन उन्हें इसकी कुछ खास परवाह नहीं थी. पत्रकारों के साथ दासों जैसा व्यवहार करने वाले अखबार के कॉरपोरेटी हो रहे मालिक उन्हें हार्ड टास्क मास्टर कहा करते थे और चाहते थे बाकी संस्करणों के संपादक भी उन्हीं जैसे हो जाएं. उनकी नकल बहुतों ने की (अब भी करते हैं) लेकिन बराबरी कोई नहीं कर पाया.
उनका तरीका यह था कि वे अखबार के मालिकों के सारे सही गलत काम (राज्यसभा के टिकट से लेकर सस्ती दरों पर प्लॉट और महंगी दरों पर विज्ञापन हथियाने तक के काम) नेताओं और अफसरों के संपर्क में रहने वाले ब्यूरो के रिपोर्टरों को धमकाकर बड़ी तत्परता से कराते थे. चार काम मालिकों के होते थे तो दो अपने भी करा लेते थे. वे इतने दहपट थे कि पशुपालन और बागवानी जैसी बीट देखने वाले गरीब रिपोर्टरों से भी दवाएं और गमले निचोड़ लेते थे. अगर कोई होशियार रिपोर्टर उनके वाले दो काम कराते हुए एक अपना भी करा ले तो उसकी शामत आ जाती थी, तब वह दल्ला हो जाता था. उसकी नौकरी पर बन आती थी. उनसे गाली और लप्पड़ खाए कई पत्रकार इस वक्त कई बड़े अखबारों के संपादक हैं, उन्हीं की फोटोकॉपी बनना चाहते हैं. उनका जिक्र वे अपने गुरु, निर्माता और गाइड की तरह कानों को हाथ लगाकर करते हैं.
जागरण घाट के पानी का स्वाद बताने से गरज यह है कि लात-जूता और गालियों को निकाल दें तो सारे अखबार और चैनल उसी ढर्रे पर कॉरपोरेटी शालीनता का स्वांग करते हुए चल रहे हैं यानी अपने उपभोक्ताओं (पाठकों) को ठगते हुए धंधा कर रहे हैं. अगर पत्रकारिता के पतन पर बात करनी है तो निरीह पत्रकारों को नहीं कोसा जाना चाहिए जो वेतन आयोगों की निर्धारित तनख्वाह भी नहीं मांग पाते हैं, बेहद विपरीत परिस्थितियों में काम करते हुए हर दिन नौकरी बचाते अपने परिवार पाल रहे हैं. बात मीडिया के मालिकों से शुरू होनी चाहिए जिन्होंने करोड़ों की पूंजी से अरबों का मुनाफा बनाने की हवस में पत्रकारिता को भ्रष्ट नेताओं, अफसरों और जो भी उनके हित साध सकता है उनके हाथों बेच दिया है. इन मालिकों को अभिव्यक्ति की आजादी का उच्चारण करने से भी रोक दिया जाना चाहिए क्योंकि उन्होंने उसे भ्रष्टाचार की आजादी में बदल दिया है.