‘मसान’ तक की अपनी यात्रा के बारे में बताइए. इसे बनाने का विचार कैसे आया?
मसान तक की यात्रा के बारे में जानने से पहले ये जानना जरूरी है कि आखिर मैं फिल्मों में आया कैसे और एक फिल्मकार कैसे बना. बचपन में मैंने दूरदर्शन पर काफी कला फिल्में या कहें समानांतर सिनेमा देखा है, इसलिए नहीं कि इनमें रुचि थी बल्कि इसलिए क्योंकि मेरी मां और बहन इन्हें पसंद करती थीं. तब से ही मैं श्याम बेनेगल व सत्यजीत रे के नाम अौर काम से वाकिफ हो गया था. अगर ऐसा कुछ नहीं हुआ होता तो मैं भी औरों की ही तरह सिर्फ अमिताभ बच्चन की फिल्मों को देखते हुए ही बड़ा हुआ होता.
मैंने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की और फिर एमबीए करने पुणे पहुंचा. वहां एक बार मैंने सिनेमा पर फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट के पूर्व डीन समर नखाटे की क्लास अटेंड की, जिसने फिल्मों को देखने के मेरे नजरिये को पूरी तरह बदल दिया. हालांकि मैंने सत्यजीत रे की पाथेर पांचाली देखी हुई थी पर तब वो मुझे बहुत बोरिंग लगी थी. उसके बारे में नखाटे के विश्लेषण ने मुझे उस फिल्म के बारे में एक नए सिरे से सोचने पर मजबूर कर दिया. फिर मैंने एक हिन्दी फिल्म वेबसाइट ‘पैशन फॉर सिनेमा डॉट कॉम’ के लिए काम करना शुरू किया. अनुराग कश्यप और सुधीर मिश्रा जैसे बड़े फिल्मकारों के ब्लॉग पर की जाने वाली मेरी टिप्पणियों ने धीरे-धीरे ब्लॉग की शक्ल ले ली, जहां मैं विश्व सिनेमा पर अपने विचार और रिव्यू लिखता. मैं लगभग महीने भर का वक्त लेकर किसी फिल्म का विश्लेषण करता और विस्तृत रूप से उस पर लिखता.
और फिर मुझे वेबसाइट का संपादक बना दिया गया. तब मुझे तीन और लोगों के साथ अनुराग कश्यप से मिलने के लिए मुंबई बुलाया गया. उस दिन हम सुबह पांच बजे तक सिनेमा पर बात करते रहे, बातचीत के दौरान ही विशाल भारद्वाज भी आ गए. वो किसी सपने की तरह था.
उसी वक्त से मैंने सोच लिया कि मुझे सिनेमा के क्षेत्र में ही कुछ करना है. फिर मुंबई आकर कुछ दिन मैंने यूटीवी के प्रोडक्शन हाउस यूटीवी स्पॉटबॉय के साथ काम किया. फिर एक दिन अनुराग का फोन आया और उन्होंने अपने साथ काम करने का प्रस्ताव रखा. बस फिर क्या, मैंने घर फोन करके अपने माता-पिता से कहा कि मैं अपनी कॉर्पोरेट की नौकरी छोड़कर फिल्म बनाने जा रहा हूं. अनुराग कश्यप के साथ गैंग्स ऑफ वासेपुर में असिस्टेंट डायरेक्टर के बतौर काम करना ही मेरा फिल्म स्कूल बना. यही वो समय था जब मैं ‘मसान’ के बारे में सोचने लगा था. ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ की शूटिंग के समय पर हम वाराणसी गए थे. वहां मैंने इस शहर के बारे में एक छोटी कहानी लिखी. फिर जब वरुण (मसान के दूसरे स्क्रीनप्ले राइटर) मेरे साथ जुड़े तब हम फिर वाराणसी गए और शहर को समझने के लिए लगभग डेढ़ महीना वहां बिताया. तब जाकर मसान की ये कहानी लिख पाए जो आपने फिल्म में देखी.
कई सालों से बॉलीवुड की कई कहानियां इसी शहर के इर्द-गिर्द बुनी गई हैं. क्या आप वाराणसी को अलग तरह से दिखाने के बारे में आशंकित या चिंतित नहीं थे?
जैसा मैंने बताया कि हमने वाराणसी में काफी समय गुजारा, ये इसलिए नहीं था कि किसी टूरिस्ट की तरह हम शहर घूमे, बल्कि हम खुद बनारसी बनना चाहते थे. हमने स्थानीय बोली सीखने की कोशिश की, छोटे शहरों की लड़कियों-महिलाओं के बारे में जाना. आजकल की फिल्मों में छोटे शहरों को जिस तरह एक व्यंग्य के रूप में पेश किया जाता है, वो मुझे और वरुण दोनों को ही पसंद नहीं है. साथ ही हम ये भी देख रहे थे कि कहीं कहानी के चलते हम वास्तविकता से ही दूर न चले जाएं. इसीलिए हमने दर्शकों को खुद सोचने का मौका दिया. एक तरफ हमने छोटे शहरों का बढ़ता हुआ यानी प्रगतिवादी रवैया दिखाया और उसके सामने पुराणपंथी, नैतिकता का चोला पहने खड़े झूठ और कपट को भी रखा. फिल्म के कलाकार संजय मिश्रा के शब्दों में कहूं तो ‘ये फिल्म बनारस की नहीं बनारसियों के बारे में है’
फिल्म में दिल को छू लेने वाली अदायगी है. फिल्म की कास्ट के बारे में फैसला कैसे कर पाए?
क्योंकि मैं ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में ऋचा चड्ढा के साथ काम कर चुका था तो देवी का किरदार लिखते समय सिर्फ वे ही मेरे दिमाग में थीं. वे इस लड़की के रोल के लिए बिलकुल सटीक हैं. साथ ही जब फिल्म बार-बार टल रही थी, तब भी वो हमारे साथ ही रहीं, पीछे नहीं हटीं.
शुरू में हमने देवी के पिता के किरदार के लिए मनोज बाजपेयी का नाम सोचा था, पर ऐसा हो नहीं पाया. बाद में संजय मिश्रा, जो दिल से, सच्चे बनारसी हैं, हमारे विद्याधर बने. अब तक वो जिस तरह सिर्फ हास्य किरदार करते रहे हैं, ये उनसे आगे की बात है. वैसे भी फिल्म ‘आंखों देखी’ के बाद से ही एक चरित्र अभिनेता के रूप में उनकी असली क्षमताओं की पहचान हो पाई है. वे कहते हैं कि उनके लिए ये किरदार उनकी जड़ों की तरफ लौटने जैसा है.
विकी कौशल को चुनने के पीछे एक दूसरी ही कहानी है. हम दोनों ही ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में असिस्टेंट डायरेक्टर थे और पहले-पहल तो मैं ये सोचकर ही उन्हें ये रोल ऑफर नहीं करना चाहता था कि कहीं ये किसी दोस्त का पक्ष लेने जैसा न हो जाए. पर ऑडिशन के समय जिस आसानी से उन्होंने खुद को एक पंजाबी से बनारसी में बदला, मुझे पता चल गया कि दीपक का किरदार उन्हीं के लिए है.
फिल्म में कविताओं के रंग घुले हुए हैं. कविताएं शामिल करने का विचार कैसे आया?
फिल्म में वरुण का मुख्य रूप से यही तो योगदान है. हिंदी सिनेमा में हिंदी साहित्य अछूता ही रहा है, इस फिल्म में शालू का किरदार इसका जवाब है. फिल्म में दुष्यंत कुमार, मिर्जा गालिब, बशीर बद्र, अकबर इलाहाबादी और निदा फाजली की कविताओं/शेरों का प्रयोग किया गया है. यहां तक कि हमारे एक गाने के बोल भी हिंदी कविताओं के खजाने से लिए गए हैं.
फिल्म में बनारस की पृष्ठभूमि में कई कथानक साथ चलते हैं. ‘शिप ऑफ थिसियस’ जैसी फिल्मों ने इसे बहुत प्रभावी रूप से प्रयोग किया है, क्या ये विचार वहीं से आया था?
मेरी लिखी एक छोटी कहानी इस फिल्म के कथानक का आधार रही है. पर हम जब इस पर काम कर रहे थे तब हमने फिल्म को एक हिंदी उपन्यास की तरह गढ़ा. हां, शिप ऑफ थिसियस में कई कहानियां हैं पर हमारी फिल्म बिना किसी विशेष प्रयास के अपने मौलिक स्वरूप में पहुंच जाती है.
‘मसान’ में सेक्स स्कैंडल व जातिगत भेदभाव के मुद्दों को भी उठाया गया है. क्या ये तय था कि छोटे शहरों को किसी विशेष तरीके से ही दिखाना है या फिर ये सिर्फ आम जिंदगी को कैद करने की कोशिश थी?
अगर गौर करें तो इंडस्ट्री की गंभीर फिल्मों में ही सामाजिक संदेश होते हैं. चाहे वो गृह युद्ध संबंधी हों या किसी शारीरिक अक्षमता के बारे में हों. पर हम सोच के उस दायरे से आते हैं जहां कहानी मूल में है और उसके इर्द-गिर्द सामाजिक और राजनीतिक परतों को बुना गया है. आप मणिरत्नम की फिल्मों को देख लीजिए. उनकी किसी फिल्म की पृष्ठभूमि भले ही गृहयुद्ध की हो उसके मूल में एक खूबसूरत प्रेमकथा होती है. अब मेरी फिल्म का उदाहारण लेते हैं. फिल्म में इंस्पेक्टर का किरदार देखिए. ये सिस्टम पर कोई सीधी चोट करने की बजाय उस भ्रष्ट चरित्र को दिखा रहा है जो समाज में आसानी से देखा जा सकता है. वो सादे कपड़ों में पुलिस चौकी से दूर जाकर रिश्वत लेता है. तो ये कहानी का स्वाभाविक हिस्सा है जो समाज की विभिन्न परतों को दिखा रहा है.
फिल्म में कहीं बहुत उदासी है तो कहीं ये बहुत सहज और सरल है. क्या कहानी कहने के किसी विशेष तरीके को प्रयोग करना चाहते थे?
मैं इस बात को गलत साबित करना चाहता था कि किसी फिल्म में सिर्फ हीरो-हीरोइन का होना जरूरी है. हमारी फिल्म में हर किरदार अहम है. हमने कहानी को ऐसे ही बनाया था कि अगर किसी जगह पर एक कहानी थोड़ी उदास या विषादपूर्ण हो तो हम साथ चल रही दूसरी कहानी को कुछ हल्का या सरल ही रखें. ऐसा जान-बूझकर ही किया गया था. आप मैक्सिको के फिल्म निर्देशक अलेजांद्रो इनार्तियु की फिल्में देखें तो उन्हें कला या मुख्यधारा जैसे किसी खांचे में नहीं बांट पाएंगे. वे ऐसी फिल्में हैं जो लोगों से जुड़ती हैं, उन्हें प्रभावित करती हैं. मैं भी अपनी फिल्म से बिलकुल यही चाहता था.
आत्म-अन्वेषण यानी खुद की खोज आपकी फिल्म का एक अभिन्न हिस्सा है. इसी पर बात करें तो ये क्यों जरूरी लगा कि दोनों मुख्य किरदारों को अंत में मिलना ही चाहिए?
वो मिले क्योंकि वो वहां थे! यहां मैं फिर कहूंगा कि हमने फिल्म को किसी हिंदी उपन्यास की तरह बनाया है, जहां लोग, जगहों और चीजों के बीच में किसी भी अवसर और संयोग की पूरी-पूरी संभावना रहती है. अगर आप फिल्म की परिस्थितियों को गौर से देखेंगे तो पता चलेगा कि दोनों किरदारों के रास्ते कई बार टकराते हैं पर वो इससे अनजान हैं. इसके अलावा, अगर ऐसा नहीं होता तो दर्शकों को एक शून्यवादी, अर्थहीन-सा अंत देखने को मिलता, यह फिल्म की टैगलाइन के उलट होता, जो कहती है, सेलीब्रेटिंग लाइफ एंड डेथ, एंड एवरीथिंग इन बिटवीन (जीवन और मृत्यु के बीच की सभी चीजों पर उत्सव मनाना).
दर्शकों के एक वर्ग का मानना है कि फिल्म अच्छी है पर उतनी नहीं कि उसे कांस जैसे नामी फिल्म समारोह में इतना सराहा जाए! आप क्या कहना चाहेंगे?
वैसे तो फिल्म को हर तरफ सराहना ही मिली है पर आपका शुक्रिया कि इसकी आलोचना भी मुझ तक पहुंचाई. मुझे कोई गिला नहीं है कि लोग ‘मसान’ को जरूरत से ज्यादा तवज्जो देने की बात कह रहे हैं. अगर कोई फिल्म एक अच्छा विचार-विमर्श शुरू नहीं कर सकती तो क्या फायदा? किसी फिल्म की प्रासंगिकता के लिए स्वस्थ आलोचना जरूरी होती है.
इसके उलट, क्या आपको लगता है कि ‘द लंचबॉक्स’ के बाद दर्शकों का एक बड़ा वर्ग तैयार हुआ है जो इस तरह की फिल्मों को देखना पसंद करता है?
मैं ‘द लंचबॉक्स’ का शुक्रगुजार हूं. उसके आने के बाद से ही धीरे-धीरे लोगों की धारणा बदली कि फिल्म समारोह में दिखाई जाने वाली फिल्में भी आम दर्शकों को भा सकती हैं, वे उनको एंजॉय कर सकते हैं. मुझे ढेरों लोगों ने मेसेज भेजे कि उन्हें मेरी फिल्म बहुत पसंद आई. एक सज्जन जिन्हें मैं जानता तक नहीं, उन्होंने मुझे फेसबुक पर मेसेज किया कि कैसे फिल्म देखते हुए उन्हें उनके पिता का दाह-संस्कार याद आया. और यही बातें होती हैं जो किसी फिल्मकार को बॉक्स ऑफिस रिकॉर्ड से ज्यादा याद रहती हैं.
तो अब मसान की सफलता के बाद क्या योजना है?
मैंने पिछले पांच सालों से कोई ब्रेक नहीं लिया है तो सबसे पहले तो मैं छुट्टी पर जाने की सोच रहा हूं. ऐसी जगह जहां कोई मुझे न जानता हो, जिससे मैं इस फिल्म से आगे निकल कर अपने नए प्रोजेक्ट के बारे में सोच सकूं.