– बलात्कारियों को जल्द सज़ा देने के पश्चिम बंगाल सरकार के निर्णय का देश भर में स्वागत होना चाहिए
संविधान के अनुच्छेद-51(1) के मुताबिक, सम्मान महिलाओं (लड़कियों और महिलाओं) का मौलिक अधिकार है। इस अनुच्छेद में महिलाओं को कई प्रकार की स्वतंत्रताएँ मिली हुई हैं; लेकिन इसके बाद भी न तो महिलाओं को पूरी तरह सम्मान मिल पाता है और न ही उन्हें पूरी स्वतंत्रता है। इसके विपरीत महिला संरक्षण को लेकर कई क़ानून होने के बाद भी उनके ख़िलाफ़ अपराध बढ़ रहे हैं। ये अपराध तब रुकेंगे, जब महिलाओं पर अत्याचार करने वाले दोषियों को जल्द-से-जल्द कड़ी-से-कड़ी सज़ा मिलनी शुरू होगी। पश्चिम बंगाल के सरकारी अस्पताल में 09 अगस्त को हुए जघन्य अपराध से वहाँ की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को इतना बड़ा झटका लगा कि उन्होंने ऐसे अपराध रोकने के लिए सख़्त क़दम उठा लिये। पश्चिम बंगाल की विधानसभा में ध्वनिमत से सर्वसम्मति के साथ अपराजिता महिला और बाल (पश्चिम बंगाल आपराधिक क़ानून संशोधित) विधेयक-2024 पारित हो गया। इस क़ानून में सज़ा का नया प्रावधान करते हुए पश्चिम बंगाल सरकार ने जो साहस दिखाया है, वह पूरे देश के लिए एक मिसाल है।
हालाँकि इससे पहले भी हरेक यौन अपराधी के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद हुई है और लोगों ने ऐसे अपराधियों के लिए मौत की सज़ा की माँग भी की है। यह आवाज़ संसद से लेकर ज़्यादातर राज्यों की विधानसभाओं में भी गूँजी है और यौन अपराधियों को सज़ा देने के लिए क़ानूनों में बदलाव भी किये गये हैं। लेकिन ज़्यादातर राज्यों में इस जघन्य अपराध को करने वालों के ख़िलाफ़ नये अध्यादेश जारी करके या विधेयक पारित करके सरकारों ने इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया है। दिल्ली में सन् 2012 में निर्भया के साथ हुए इस जघन्य अपराध के बाद पूरे देश में अपराधियों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठी, तो केंद्र सरकार ने 2013 में बलात्कार के मामले में अपराधियों को कड़ी सज़ा देने के लिए आपराधिक क़ानून में बदलाव किया। इसके बाद राजस्थान, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और अरुणाचल प्रदेश समेत कई राज्यों की सरकारों ने क़ानून में बदलाव किया। लेकिन इन बदलावों से बलात्कार की घटनाओं में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा।
उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में अपराधियों के थरथर काँपने के दावे किये जाते हैं; लेकिन वहाँ अपराध रुक ही नहीं रहे हैं। इसी तरह मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, मणिपुर समेत कई राज्यों में बलात्कार की रिकॉर्ड तोड़ घटनाओं के बाद भी सरकारें अपराधियों का कुछ ख़ास नहीं बिगाड़ पा रही हैं। लेकिन जैसा कि पश्चिम बंगाल में अपराजिता क़ानून के तहत राज्य में बलात्कार के मामले की जाँच 21 दिन में पूरी होगी, ट्रायल नहीं होगा और बलात्कार या सामूहिक बलात्कार के दोषियों को मौत की सज़ा दी जाएगी। अगर पीड़ित महिला या लड़की कोमा में चली गयी है या उसकी मौत हो गयी है, तो भी दोषियों को फाँसी की सज़ा दी जाएगी, जो स्वागत योग्य है। हालाँकि कुछ लोग इस विधेयक को लेकर ममता सरकार को सवालों के घेरे में खड़ा कर रहे हैं। उनका कहना है कि जब देश में पहले से ही बलात्कारियों को मौत की सज़ा देने का क़ानून है, तो पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री को यह सब करने की क्या ज़रूरत थी?
केंद्रीय क़ानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने कहा है कि यह क़ानून ममता सरकार द्वारा ख़ुद को बचाने की कोशिश है। लेकिन केंद्रीय मंत्री यह नहीं बोले कि मुख्यमंत्री ममता ने इस क़ानून में संशोधन करके विधेयक पास करने से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर फास्ट ट्रैक कोर्ट स्थापित करने की माँग की थी, जिसका जवाब प्रधानमंत्री ने नहीं दिया। ऊपर से केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री अन्नपूर्णा देवी ने इस पत्र के जवाब में कहा कि देश भर में फास्ट ट्रैक कोर्ट हैं; लेकिन आपने फास्ट ट्रैक कोर्ट स्थापित नहीं किये हैं।
अपराजिता विधेयक पास करने को लेकर पश्चिम बंगाल सरकार का स्वागत होना चाहिए; लेकिन इसे अमल में भी लाया जाना चाहिए। हालाँकि यहाँ ग़ौर करने की बात यह है कि किसी भी राज्य सरकार को दण्ड संहिता के क़ानून में संशोधन लागू करने के लिए राष्ट्रपति की सहमति की ज़रूरत होती है। पश्चिम बंगाल में अपराजिता क़ानून के मामले में कई क़ानूनविद यह भी कह रहे हैं कि पश्चिम बंगाल सरकार को इस क़ानून में संशोधन नहीं करना था, बल्कि मौज़ूदा क़ानून को ही सख़्ती से लागू करना चाहिए था। ऐसे लोगों का बेतुका तर्क है कि सिर्फ़ बलात्कार के सामान्य अपराध में फाँसी की सज़ा देना बहुत ग़लत होगा। इसके लिए पहले से ही सज़ा देने का क़ानून मौज़ूद है। लेकिन क़ानूनविदों से सवाल यह है कि अगर बलात्कारियों को मौत की सज़ा नहीं दी जाएगी, तो क्या देश में बलात्कार की घटनाएँ कभी रुकेंगी? इसलिए आज पूरे देश में ऐसे सख़्त क़ानून की ज़रूरत है; क्योंकि हर दिन महिलाओं के ख़िलाफ़ अनैतिक यौन हिंसा हो रही है।
केंद्रीय जाँच एजेंसी नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आँकड़ों के मुताबिक, भारत में हर साल चार लाख से ज़्यादा मामले महिलाओं पर अत्याचार के दर्ज होते हैं। इन अपराधों में बलात्कार, मारपीट, अपहरण, तस्करी, हत्या, एसिड अटैक और छेड़छाड़ के मामले हैं, जो बच्चियों से लेकर महिलाओं तक के ख़िलाफ़ होते हैं। एनसीआरबी के मुताबिक, भारत में हर घंटे कम-से-कम तीन लड़कियाँ और महिलाएँ बलात्कार का शिकार होती हैं। यानी हर 20 मिनट में एक बलात्कार देश में होता है। बलात्कार करने वालों में 96 प्रतिशत से ज़्यादा अपराधी पीड़ितों के परिचित होते हैं। लेकिन सज़ा के मामले में भारतीय क़ानून व्यवस्था काफ़ी कमज़ोर है, जिसके चलते 100 बलात्कारियों में से सिर्फ़ 27 को ही सज़ा हो पाती है। अगर देश में होने वाले बलात्कार के ही आँकड़े हैरान-परेशान करने वाले हैं।
साल 2009 में देश में 21,397 बलात्कार और सामूहिक बलात्कार के मामले दर्ज हुए। इसके बाद साल 2010 में 22,172 मामले, साल 2011 में 24,206 मामले, 2012 में 24,923 मामले, 2013 में 33,707 मामले, साल 2014 में 36,735 मामले बलात्कार और सामूहिक बलात्कार के मामले दर्ज हुए। इसके बाद साल 2015 में यह आँकड़ा कुछ कम हुआ और 34,651 मामले बलात्कार और सामूहिक बलात्कार के मामले दर्ज हुए। इसके बाद फिर बलात्कार और सामूहिक बलात्कार के मामलों में बढ़ोतरी हुई और साल 2016 में 38,947 मामले दर्ज हुए। फिर साल 2017 में 32,559 मामले, साल 2018 में 33,356 मामले, साल 2019 में 32,032 मामले, साल 2020 में 28,046 मामले, साल 2021 में 31,677 मामले, साल 2022 में 31,516 मामले दर्ज हुए। इसके बाद के आँकड़े सामने नहीं आये हैं। हालाँकि राज्यों में होने वाले बलात्कार के आँकड़ों से पता चलता है कि देश में बलात्कार और सामूहिक बलात्कार के मामले बढ़े ही हैं।
भारतीय दण्ड संहिता, भारतीय न्याय संहिता से सम्बन्धित धाराएँ आज बलात्कार के लिए मौत की सज़ा या उम्रक़ैद या कड़ी सज़ा का प्रावधान करती हैं। मौत की सज़ा पाँच अपराधों- बलात्कार, सामूहिक बलात्कार, पुलिस अधिकारी या लोक सेवक द्वारा बलात्कार, बलात्कार के चलते मौत होने या पीड़िता के हमेशा के लिए कोमा में चले जाने और दोबारा बलात्कार का अपराध करने पर दिये जाने का क़ानून देश में है। लेकिन फाँसी की सज़ा तो दूर की बात, ज़्यादातर बलात्कार के अपराधियों को सज़ा तक नहीं होती है।
केंद्रीय गृह मंत्रालय ने 20 सितंबर, 2018 को साइबर अपराध पोर्टल लॉन्च किया था, जिससे कोई भी व्यक्ति किसी अश्लील सामग्री की रिपोर्ट कर सके। लेकिन न तो अश्लील सामग्री पर रोक लगी और न बलात्कार और अत्याचार की घटनाएँ कम हुईं। गृह मंत्रालय ने कई राज्यों में साइबर अपराध फोरेंसिक लैब स्थापित किये; लेकिन महिलाओं और बच्चों के ख़िलाफ़ साइबर अपराध कम नहीं हुए। अपराधियों का पता लगाने के लिए 410 सरकारी अभियोजक और न्यायिक अधिकारियों समेत 3,664 से ज़्यादा कर्मचारियों को सरकार ने अपराधियों पर नियंत्रण के लिए प्रशिक्षण दिया; लेकिन अपराध कम नहीं हुए।
इसके अलावा महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध रोकने के लिए देश में दहेज निषेध अधिनियम-1961, महिलाओं का अभद्र चित्रण (निषेध) अधिनियम-1986, राष्ट्रीय महिला आयोग अधिनियम-1990, घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम-2005, बाल विवाह निषेध अधिनियम-2006, यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम-2012, कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम-2013 बनाये हुए हैं; लेकिन फिर भी महिलाओं और लड़कियों के ख़िलाफ़ अपराध हो रहे हैं। इसके अलावा केंद्र सरकार ने 31 जनवरी, 1992 को संसद द्वारा प्रस्तावित राष्ट्रीय महिला आयोग अधिनियम-1990 के तहत राष्ट्रीय महिला आयोग (एनसीडब्ल्यू) की स्थापना की थी; लेकिन महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध नहीं रुके। इसके अलावा केंद्र सरकार ने साल 2012 में निर्भया फंड बनाया गया, जिसमें साल 2013 के केंद्रीय बजट में 1,000 करोड़ रुपये का घोषित फंड था। इस फंड में व्यक्तिगत रूप से लोगों ने ख़ूब दान किया। लेकिन इस फंड से बलात्कार पीड़िताओं की मदद या तो होती ही नहीं है या कितनी होती है, इसकी कोई जानकारी सार्वजनिक नहीं की जाती है।
इसके अलावा संबल नाम का सरकारी फंड है, जिसका बजट घटा दिया गया है। इसकी वजह यह बतायी जाती है कि इस फंड का पैसा ख़र्च नहीं हो पाता। यह अजीब तर्क है कि पैसा ख़र्च नहीं हो पाता। पैसा जब पीड़ित महिलाओं को दिया ही नहीं जाएगा, तो ख़र्च कहाँ से होगा? इन सब पहलुओं पर केंद्र सरकार से लेकर राज्य सरकारों तक को ध्यान देना चाहिए और क़ानूनों का सख़्ती से पालन करते हुए पीड़ित महिलाओं और लड़कियों को सांत्वना के तौर पर फंड रिलीज करना चाहिए। इसके साथ ही बलात्कारियों और महिलाओं पर अत्याचार करने वालों को कड़ी-से-कड़ी सज़ा तो हर हाल में मिलनी ही चाहिए।