आर्थिक मसलों में कुछ खास तो हुआ नहीं है. इन्होंने निवेश वगैरह का जो रास्ता साफ किया, उससे निवेश तो कुछ खास आया ही नहीं है. सरकार के दावे तो अच्छे-अच्छे हैं, लेकिन आप देखिए कि जमीन पर काम कितना हुआ है. निवेश तो आया नहीं. भारत में बाहर से कंपनियां भी नहीं आईं. कारखाने लगाए जाते, नए उद्योग शुरू होते, ऐसा नहीं हुआ है. मेक इन इंडिया में इन्होंने कहा कि लोग आएंगे, यहां उद्योग लगाएंगे, लेकिन अब तक कोई आया नहीं. एक तो वैश्विक मंदी इसका कारण है. उद्योगपति यहां आने के बदले कहीं और जा रहे हैं. चीन तक में उद्योगपति नहीं जा रहे हैं. चीन का आकर्षण कहीं अधिक है, लेकिन वहीं नहीं जा रहे हैं, तो यहां क्या आएंगे. अब अगर विश्व अर्थव्यवस्था सुधरेगी, अगर लोग निवेश करना चाहें, इसके साथ बाकी चीजें भी सुधरें. जैसे जमीन की उपलब्धता हो, मजदूरों की हालत ठीक हो, सरकार की नीतियां ठीक हों, तब लोग आएंगे. भारत की पहली प्रतियोगिता तो चीन के साथ है. वहां जो सरकार है उसका अर्थव्यवस्था पर अपना कंट्रोल है, जबकि इनका कोई खास कंट्रोल नहीं है. कुछ राज्यों के हाथ में है, कुछ केंद्र के हाथ में है. इसलिए क्या होने जा रहा है, कुछ कह नहीं सकते.
विजय माल्या जैसी घटनाएं तो ये नहीं रोक सकते. सरकार और पब्लिक सेक्टर से ही लोग पैसा लेकर निवेश करते हैं और खाते-पीते हैं. सुब्रत राय सहारा, शारदा चिटफंड और ऐसे बहुत से हैं जो सरकार के या जनता के पैसे खा गए. भारतीय अर्थव्यवस्था में माल्या जैसे लोग कैसे काम कर पाते हैं, वह तो इस व्यवस्था का बड़ा लंबा-चौड़ा चक्कर है. अर्थव्यवस्था में एक होती है पोंजी स्कीम. एक थे चार्ल्स पोंजी. वे इटैलियन थे जो अमेरिका आए थे. बोस्टन शहर में उनका काफी दबदबा था. उन्होंने लोगों के पैसे-वैसे बहुत लूटे. उसने बताया कि वह यह करेगा, वह करेगा और लोग उसके झांसे में आ गए. वहीं पोंजी स्कीम का यह एक प्रकार है जो शारदा, सहारा या विजय माल्या आदि के रूप में सामने है. ये अखबारों में छपवाएंगे कि बहुत फायदा होने वाला है, बहुत लाभ मिलेगा. लोग इसमें फंस जाते हैं और पैसा लगा देते हैं. ये सब पोंजी योजनाओं के ही प्रकार हैं.
यह बात हिंदुस्तान में बहुत जमाने से कही जा रही है कि कृषि का उत्पादन बढ़ेगा. कृषि में डिमांड बढ़ेगी तो उद्योग में उत्पादन बढ़ेगा. गांवों में लोग सामान बेचेंगे. यह कोई नई बात नहीं है. लेकिन इनका फोकस कॉरपोरेट की ओर है, जो पैसा ले जाकर बाहर निवेश करते हैं. राज्यों में सूखा है, किसान आत्महत्या कर रहे हैं, लेकिन उस पर कोई खास ध्यान नहीं है.
कृषि को लेकर सरकार की जो नीतियां हैं, उससे कोई खास उम्मीद नहीं बनती. अब भी कृषि में लगभग 60 प्रतिशत लोग लगे हुए हैं. कृषि से बहुत ज्यादा आउटपुट आता है. अगर कृषि की हालत नहीं सुधरेगी तो कुछ नहीं हो सकता. कृषि में लोग संगठित नहीं हैं. कहीं कुछ है, कहीं कुछ है. जहां तक कृषि क्षेत्र में सुधार की बात है तो एक जमाने में भूमि सुधार वगैरह की बात की जाती थी, जिस पर अब कोई बात ही नहीं करता. छोटे-मोटे किसान बंटाई पर खेती करते हैं. सरकार को कुछ ऐसा करना चाहिए जिससे वे आगे बढ़ सकें. अगर ऐसा नहीं होता है तो यही किसान खेती छोड़कर शहर की ओर भागते हैं. वे शहर जाएंगे और मजदूरी करेंगे. लोग गांव से शहर की ओर भाग रहे हैं. वे चाय बेचने जैसे छोटे-मोटे धंधे में लग जाते हैं. लेकिन कृषि में इतना खतरा है कि किसान खेती से भाग रहे हैं.
काले धन पर नियंत्रण कर पाने के मामले में मुझे नहीं लगता है कि कुछ हो सकता है. इन्होंने यहां से आर्थिक सीमा खोल दी है कि यहां से पैसा ले जाइए और बाहर लगाइए. इसमें दो धंधे हैं. एक तो निवेश जाता है, दूसरा काला धन यहां से बाहर जाता है और मॉरिशस रूट से धो-पोंछकर, ह्वाइट होकर वापस आ जाता है. फिर वह लीगल हो चुका होता है. कुछ छोटे-मोटे देश ऐसे हैं जहां ले जाकर निवेशक पैसा लगाते हैं. वहां पता चलता है कि एक ही बिल्डिंग पर पचासों बोर्ड लगे हुए हैं. वहां जाकर निवेश कर दीजिए. फिर वह घुमा-फिराकर यहां आ जाएगा. लेकिन जो गैरकानूनी पैसा होता है वह तो लाना मुश्किल है. यह बहुत ही जटिल है. दूसरे, उत्पादन सब का सब यहां नहीं होता. कुछ यहां होता है, कुछ बाहर होता है. तो इसे रोक पाना संभव नहीं है. यह काला धन वापस लाने का दावा तो ऐसे ही किया गया था. अब देखिए, उस पर अब कोई बात नहीं करता. वे सब चुनावी वादे थे जिस पर अब बात नहीं होती.
(लेखक अर्थशास्त्री हैं)
(कृष्णकांत से बातचीत पर आधारित)