शिवेंद्र राणा
दिल्ली हिंदुस्तान का दिल है। यह थोड़ा रूमानी मिसरा है। वास्तव में बिहार भारत का दिल है; क्योंकि राष्ट्रीय परिदृश्य जैसा भी हो, बिहार की चर्चा के बिना अधूरा ही रहता है। चाहे महाराष्ट्र में मनसे कार्यकर्ताओं के निशाने पर बिहारी अवाम हो या बिहार का आसन्न विधानसभा चुनाव। इसी अनुरूप बिहार की चुनावी सरगर्मी में मतदाता पहचान-पत्र और मतदाता सूची को लेकर पैदा विवाद विद्रूप हो चुका है।
हुआ यूँ कि गत 24 जून को चुनाव आयोग ने बिहार में मतदाता सूची का संशोधन और सत्यापन करने हेतु निर्देश जारी किया, जिसके लिए लगातार हो रहे पलायन, युवाओं की मतदान पात्रता और अवैध प्रवासियों का नाम निर्वाचन सूची में शामिल होने जैसे कारण गिनाये। ये प्रथम दृष्टया वाजिब से लगते हैं; लेकिन इसके बाद इस प्रक्रिया में कई अगर-मगर लगे, जिनमें आयोग ने ये शर्तें लगायीं कि 2003 की मतदाता सूची को सत्यापन का आधार माना जाएगा तथा इसमें शामिल लोग और उनके बच्चे ही मतगणना फार्म भरने के योग्य होंगे। यानी बिहार के कुल सूचिबद्ध 7.9 करोड़ मतदाताओं में से पाँच करोड़ मतदाता, जो 01 जनवरी, 2003 तक संशोधित और सत्यापित मतदाता सूची में शामिल थे, उनको वोटर लिस्ट का हवाला देना है। बचे हुए लोगों से चुनाव आयोग द्वारा प्रस्तावित 11 डॉक्यूमेंट में से कम-से-कम एक प्रस्तुत करना होगा, तभी वे मतदान के योग्य माने जाएँगे। इनमें सक्षम अधिकारी द्वारा निर्गत जाति प्रमाण-पत्र, सरकारी कर्मचारियों के पहचान-पत्र या पेंशन भुगतान आदेश, वन अधिकार प्रमाण-पत्र, स्थायी आवासीय प्रमाण-पत्र, सक्षम अधिकारी द्वारा जारी जन्म प्रमाण-पत्र, पासपोर्ट, शैक्षणिक प्रमाण-पत्र, भूमि / मकान आवंटन का सरकारी प्रमाण-पत्र इत्यादि शामिल हैं। उधर चुनाव आयोग ने आधार, मनरेगा और राशन कार्ड को इस वैध दस्तावेज़ों की सूची से बाहर रखा है।
इलेक्शन कमीशन के इस आदेश और सत्यापन प्रक्रिया के प्रकाश में आने के साथ ही राज्य से लेकर केंद्र तक की सरकार और विपक्ष में आरोप-प्रत्यारोप की राजनीतिक टकराव शुरू हो गया। और सियासत तथा नागरिक पहचान से जुड़ा यह विवाद राजनीतिक गलियारों से होते हुए न्यायपालिका की देहरी तक पहुँच गया। साथ ही विपक्षी विरोध प्रदर्शन राज्यव्यापी बंद के आह्वान में तब्दील हो गया। चूँकि 10 जुलाई को सर्वोच्च न्यायालय में मतदाता सूची के पुनरीक्षण पर सुनवाई होने वाली थी, इसलिए एक दिन पहले यानी 09 जुलाई को इंडिया गठबंधन की ओर बिहार बंद आयोजित किया गया, जिसे सत्ता पक्ष यानी एनडीए ने विपक्षी दलों द्वारा न्यायपालिका पर दबाव बनाने के रणनीतिक प्रयत्न के रूप में आरोपित दुराग्रह कहा। इस प्रदर्शन में शामिल कांग्रेस, राजद और वाम दलों द्वारा सरकार और आयोग पर यह आरोप लगाया जा रहा है कि जैसे महाराष्ट्र में चुनाव चोरी हुआ था, वैसी ही कोशिश बिहार में भी हो रही है। उसके लिए महाराष्ट्र मॉडल से अलग यहाँ बिहार में नया मॉडल लाया जा रहा है। साथ ही साढ़े चार करोड़ लोगों का नाम काटने की कोशिश हो रही है। उनका आरोप है कि सरकार पोषित इस कार्यवाही में चुनाव आयोग अपनी संवैधानिक मर्यादा से इतर अनुचित सहयोग कर रहा है। सवाल है कि आज़ादी के 75 वर्षों बाद भी देश नागरिक पहचान के दस्तावेज़ों की प्राथमिकता, उनका सुनिश्चित आधार और एकरूपता निर्धारित नहीं कर पाया, यह कैसी आपत्तिजनक स्थिति है?
‘औरत, बेटा, घोड़ा और ग़ुलाम को पीटते रहना चाहिए, भले ही ग़लती हो या नहीं।’ -आचार्य कृपलानी ने अपनी आत्मकथा में इस फ़ारसी कहावत का उल्लेख किया है। असल में देश की ताक़तवर राजनीतिक जमात की नज़र में आम जनता की स्थिति भी ऐसी है। यानी जब मन करे, इन्हें लतियाया और धकियाया जा सकता है। चाहे वह विकास के नाम पर हो, क़ानून के नाम पर हो या नागरिक पहचान के नाम पर। वर्षों से सरकार से लेकर न्यायपालिकाएँ तक यह तय ही नहीं कर पा रही हैं कि देश में कॉमन नागरिक पहचान का दस्तावेज़ क्या हो? महाशक्ति बनने की आकांक्षा पाले जनतंत्र के लिए इससे भद्दा मज़ाक़ कोई दूसरा नहीं हो सकता। यह समझना कठिन नहीं है कि आख़िर दो वक़्त की रोटी की लड़ाई लड़ने वाला तबक़ा रोज़ नये प्रकार के पहचान-पत्र की लड़ाई कैसे लड़ेगा?
ख़ैर, यहाँ असल दिक़्क़त राजनीतिक विवाद के केंद्र में सत्ता के दाँव-पेंच या रस्साकशी का नहीं है। यहाँ वास्तविक समस्या सरकार एवं प्रशासनिक तंत्र की नीयत की है। आख़िर इतने वर्षों में नागरिक पहचान-पत्र का स्थायी अधिकार सुनिश्चित नहीं हो पाना किसकी विफलता है? जबकि यह तय किया जाना प्राथमिकता होनी चाहिए थी। दूसरी बात, सरकार एवं आयोग ने मतदाता सूची पुनरीक्षण के लिए अवैध प्रवासियों को भी कारण माना है। बिहार के उपमुख्यमंत्री इसे एक बड़ी चुनौती बता रहे हैं। वैसे इस सम्बन्ध में प्राप्त आँकड़े भी ज़रा डरावने हैं। जैसे 2025 में केवल किशनगंज ज़िले से जुलाई महीने के पहले हफ़्ते में दो लाख से अधिक लोगों ने स्थायी निवास प्रमाण-पत्र के लिए आवेदन किया। वहीं मुज़फ़्फ़रपुर ज़िले में क़रीब एक लाख आवेदन आये। यूँ भी बिहार का सीमांचल इलाक़ा नेपाल और बांग्लादेश के रास्ते आने वाले अवैध प्रवासियों से प्रताड़ित रहा है। वर्ष 2019 में ही गृह मंत्रालय का अनुमान था कि बिहार में लगभग 10 लाख घुसपैठियों हैं, जिनमें अधिकांश सीमांचल के इलाक़े में हो सकते हैं। इनके अवैध तरीक़े से आधार कार्ड और वोटर कार्ड प्राप्त करने की सूचना एवं आँकड़े न केवल सरकार और प्रशासनिक स्तर पर परेशानी भरे हैं, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से अत्यंत भयावह हैं। यदि सरकार और प्रशासनिक तंत्र के आरोपों में रत्ती भर भी सत्यता है कि इतनी बड़ी संख्या में अवैध रूप से रोहिंग्या और बांग्लादेशी प्रवासियों ने वोटर आईडी और आधार समेत अन्य नागरिक पहचान-पत्र की सुविधा में सेंधमारी की है, तो यह अत्यंत विकट अवस्था का सूचक है।
इसके बावजूद भी यह सवाल बनता है कि यदि अवैध प्रवासी या अनाधिकृत शरणर्थियों की इतनी बड़ी संख्या बिहार में मौज़ूद होने की जानकारी सरकार एवं प्रशासन को थी, तब क्या वह इसके निस्तारण के लिए चुनावी मुहूर्त का इंतज़ार कर रही थी या उससे भी कहीं बड़ा सवाल इस मुद्दे से जुड़ा बहुसंख्यक समाज के भावनात्मक उद्वेलन का था? ताकि उसके मतों का ध्रुवीकरण इस उपजे भय के द्वारा संभव हो सके। राज्य में इसी वर्ष अक्टूबर अथवा नवंबर के पहले हफ़्ते में विधानसभा चुनाव प्रस्तावित है। अत: विपक्ष की एक मुख्य आपत्ति चुनाव के निकट आने पर आयोग की इस संशोधन की क़वायद पर भी है। विपक्ष इसे अपने चुनावी अभियान के विरुद्ध सत्ता समर्थित निर्वाचन आयोग की अनैतिक कार्यवाही बता रहा है। यानी विपक्ष का आरोप है कि चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था राजनीतिक विवादों में सत्ता पक्ष आधारित कार्य में संलग्न है। कांग्रेस नेता राहुल गाँधी ने महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव 2024 के परिणाम पर सवाल उठाते हुए मतदान केंद्र के वेबकास्टिंग और सीसीटीवी फुटेज की माँग की थीं, जिसे आयोग ने सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देश और मतदाता की निजता उल्लंघन का हवाला देते हुए देने से इनकार कर दिया। हालाँकि जिस तरह के कटु आरोप इलेक्शन कमीशन पर विगत वर्षों में विपक्ष द्वारा निरंतर लगाये जा रहे हैं, उसमें आयोग को अपनी निष्पक्षता सिद्ध करने के लिए यदि आगे बढ़कर आना पड़े, तो आना चाहिए। यही राष्ट्र के संवैधानिक-लोकतांत्रिक भविष्य का सुखद प्रयास होगा। इसके अतिरिक्त विपक्ष ने ग़रीबों, भूमिहीनों के ज़मीन, मकान के दस्तावेज़ न होने या उनके शैक्षणिक प्रमाण-पत्र न होने अथवा दूसरे राज्यों में रह रहे प्रवासियों की परेशानी का वाजिब मुद्दा उठाया है, जिनका व्यवस्थित उत्तर सरकार या आयोग को देना है।
अब यहाँ प्रश्न प्रशासनिक नियम का नहीं, सत्ता की नीयत का है और नीयत का यही सवाल न्यायपालिका और चुनाव आयोग जैसी अन्य संवैधानिक संस्थाओं से भी है। क्योंकि व्यवस्था की स्थिति तो पहले से ही संदिग्ध रही है; और बहुत हद तक अकर्मण्य भी रही है। संभवत: ब्रिटिश सत्ता से आज़ादी और जनतांत्रिक यात्रा की शुरुआत के साथ ही। वैसे याद हो कि सीएए, एनआरसी के विवाद के दौरान देश के पूर्वी राज्यों में भारतीय सेना या प्रशासन के लिए अपनी सेवाएँ दे चुके लोगों का नागरिकता सूची से बाहर हो जाने की अत्यंत दु:खद सूचनाएँ भी चर्चा में थीं। यह प्रशासनिक तंत्र और संवैधानिक-सांविधिक संस्थाओं की विफलता ही थी, जो सुपात्र और कुपात्र में भेद करने में अक्षम साबित होती रही है।
ख़ैर, यह तो हुई आपत्तियों और आरोपों की बात, किन्तु इस विवाद के दूसरे पक्ष को भी समझना होगा। और यह सवाल विपक्ष से हैं कि क्या सत्ता प्राप्ति की अनधिकृत त्वरा में वह अवैध अप्रवासियों और घुसपैठियों यानी बांग्लादेशी रोहिंग्याओं के संकट का सत्य जानकार भी आँखें मूँदे तो नहीं रहा है? और क्या वह संवैधानिक संस्थाओं की अधिकारिता और कार्यविधि को लेकर अनावश्यक संशय तथा विवाद पैदा करने का प्रयास तो नहीं कर रहा है? जैसा कि गुरुवार यानी 10 जुलाई को हुई सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को राहत देते हुए उसकी स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (एसआईआर) को रोकने से इनकार कर दिया है। कोर्ट ने आपत्ति के रूप में उठाये गये प्रश्नों का उत्तर देते हुए कहा कि आयोग को मतदाता सूची को संशोधित करने की शक्ति प्राप्त है। हालाँकि न्यायालय ने एक अहम टिप्पणी करते हुए यह भी कहा कि ग़ैर-नागरिकों को मतदाता सूची से हटाने का अधिकार गृह मंत्रालय को है न कि चुनाव आयोग को। उसने कहा कि आप नागरिकता के मामले की ओर क्यों जा रहे हैं? जबकि यह गृह मंत्रालय का विषय है। इस पर आयोग का तर्क था कि भारत का मतदाता बनने के लिए अनुच्छेद-326 के तहत नागरिकता की जाँच आवश्यक है।
अब 28 जुलाई को न्यायालय द्वारा अगली सुनवाई पर जो भी निर्णय हो। लेकिन वर्तमान स्थिति यह है कि बिहार में उपजा मतदाता सूची संशोधन और सत्यापन का विवाद पूरे देश में चुनावी प्रक्रिया जनित गहरा विवाद उत्पन्न करने वाला है। असल में सत्ता के आकांक्षी स्वार्थी, शातिर वर्ग के राजनीतिक द्वंद्व के रूप में जब राष्ट्रीय समस्याओं को अवसर के रूप में भुनाने पर उतारू हो जाएँ, तब देश को ऐसे अप्रिय विवादों का सामना करना पड़ता है। उपरोक्त सवालों के जवाब, उनके विश्लेषण भारतीय लोकतंत्र की अस्मिता एवं उसकी संवैधानिक गरिमा की सुनिश्चितता के लिए अत्यावश्यक हैं। इससे संवैधानिक संस्थाओं की शुचिता और पक्ष-विपक्ष, सभी राजनीतिक दलों की नैतिक गरिमा की सीमा भी तय होगी।