जनादेश का संदेश बिलकुल स्पष्ट है कि ज्वलंत मुद्दों को अपने जोखिम पर नज़रअंदाज़ करें और उससे भी अधिक लोकतंत्र को विपक्ष-मुक्त बनाने का कभी सपना न देखें। अबकी बार 400 पार के नारे ने शायद यही बताने की कोशिश की थी; लेकिन यह सिर्फ़ एक बयानबाज़ी बनकर रह गया है। हालाँकि पार्टी थिंक टैंक का मानना है कि इस नारे के बिना शालीनता जनादेश को और भी मुश्किल बना देती। संदेश यह है कि जब बेरोज़गारी, मुद्रास्फीति, अग्निवीर, कृषि क्षेत्र में अशान्ति और राज्य की ताक़त का प्रदर्शन जैसे अनसुलझे मुद्दे हों, तो आप मतदाताओं को गारंटी के लिए नहीं ले सकते। एग्जिट पोल के पक्षपातपूर्ण पूर्वानुमानों ने अधिकांश मुख्यधारा की मीडिया और पक्षपाती चुनाव विशेषज्ञों को बेनक़ाब कर दिया।
इधर शेयर बाज़ारों में ख़ून-ख़राबे की स्थिति आ गयी, जब 15 महीनों में रुपये में सबसे बड़ी गिरावट देखी गयी। वास्तव में एनडीए ने इंडिया गठबंधन द्वारा दिये गये झटके से ख़ुद को उबार लिया है और एन. चंद्रबाबू नायडू जैसे क्षेत्रीय क्षत्रपों के समर्थन से केंद्र में सरकार बनायी है, जिन्हें राजनीतिक गुमनामी से हटाकर सरकार बरक़रार रखने के लिए नीतीश कुमार के साथ निर्णायक भूमिका में लाया गया है।
भाजपा ने ओडिशा में अच्छा प्रदर्शन किया है और दक्षिण में बड़ी बढ़त बनायी है। दिल्ली, हिमाचल, उत्तराखण्ड और मध्य प्रदेश में भी उसने सभी सीटों पर जीत हासिल की है। हालाँकि उत्तर प्रदेश में लगे झटके ने उसे झकझोर कर रख दिया है। सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि अयोध्या में राम मंदिर के गढ़ फ़ैज़ाबाद में उसे हार मिली, जहाँ समाजवादी पार्टी-कांग्रेस गठबंधन ने उल्लेखनीय प्रदर्शन के साथ भाजपा प्रत्याशी को हरा दिया। 2019 में चार लाख से अधिक के मुक़ाबले वाराणसी में प्रधानमंत्री की ख़ुद की जीत का अंतर पार्टी को चिन्तित करने वाला है। महाराष्ट्र में भी आश्चर्य था। पश्चिम बंगाल में प्रतिष्ठित नेता ममता बनर्जी ने अपनी चतुर राजनीतिक बुद्धिमत्ता से अपनी स्थिति को और मज़बूत किया है। भाजपा को राजस्थान और हरियाणा में भी नुक़सान हुआ, जबकि छत्तीसगढ़ और गुजरात में उसे एक-एक सीट गँवानी पड़ी।
भले ही बिहार, ओडिशा और आंध्र प्रदेश ने एनडीए को समर्थन दिया है; लेकिन ज़ाहिर है कि अब देश को विपक्ष मुक्त होने का कोई ख़तरा नहीं है। साथ ही जनादेश ने ईवीएम और भारत के चुनाव आयोग जैसी संस्था की विश्वसनीयता पर संदेह को दूर कर दिया है। जनादेश न केवल अपने सहयोगियों के कारण, बल्कि एक मज़बूत विपक्ष के कारण भी सरकार को नियंत्रण में रखेगा। 2001 में गुजरात के मुख्यमंत्री बनने के बाद यह पहली बार होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पूर्ण बहुमत के बिना केंद्र में सरकार चलाएँगे और उनके हाथ बँधे रहेंगे; क्योंकि वह अपने एनडीए सहयोगियों पर निर्भर होंगे। चुनाव के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत के बयानों में भी एक संदेश है, जहाँ उन्होंने विनम्रता और सर्वसम्मति की आवश्यकता पर ज़ोर दिया है। इससे पता चलता है कि जहाँ तक वैचारिक रास्ते का सवाल है, संघ भाजपा के साथ एकमत नहीं है। फिर भी यह कहना जल्दबाज़ी होगी कि ‘इंडिया’ खिल रहा है और ‘कमल’ मुरझा रहा है।