शिवेन्द्र राणा
तीसरे दौर में एनडीए की अस्थिर चित्त के जदयू एवं तेदेपा जैसे सहयोगियों के सहारे सरकार बन चुकी है। प्रधानमंत्री मोदी और उनके कई चहेते शपथ ग्रहण कर चुके हैं और अब नये संसद भवन में पहला सत्र भी चल रहा है। संभावना थी कि कम सीटें आने के झटके के बाद सरकार के नुमाइंदों की संरचना बदल जाएगी। कुछ चेहरे बाहर किये जाएँगे, कुछ नये चेहरे मंत्रिमंडल में शामिल होंगे। यह भी कहा जा रहा था कि सहयोगियों को महत्त्वपूर्ण मंत्रालय मिलेंगे, नहीं तो सरकार गिर जाएगी। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से सारे कयासों को धता बताते हुए प्रधानमंत्री मंत्रिमंडल में अपने अधिकांश पुराने साथियों को पदासीन करने सफल रहे। वही पार्टी के नाश-कर्ताओं की जमात फिर से दिख रही है।
भाजपा के कथित चाणक्य ने अपना दबदबा दिखाते हुए एकाधिकार से टिकट बाँटे, पूरे देश में कटु राजनीतिक वातावरण पैदा किया और करवाया। इस हार की ज़िम्मेदारी तय करने के बजाय उन्हें फिर गृह मंत्रालय में बैठा दिया गया। पार्टी को डुबोने में अपने नाकारापन और अपने स्तरहीन बयानों के साथ योगदान करने वाले नड्डा को फिर से अध्यक्ष की कुर्सी दे दी गयी। निरंतर हादसों से रेलवे और सरकार, दोनों की भद्द पिटवा रहे अश्विनी वैष्णव को फिर रेल मंत्रालय मिल गया। अग्निवीर और लॉजिस्टिक के ख़र्च घटाने के नाम पर सेना के ढाँचे को मटियामेट करने वाले राजनाथ सिंह पुन: रक्षामंत्री बन गये। पूरे देश में पेपर लीक और परीक्षा घोटाले हो रहे हैं। लेकिन नीट से लेकर तमाम पेपर लीक के घोटालों के लिए जवाबदेही तय करने के बजाय धर्मेन्द्र प्रधान को फिर से शिक्षा मंत्रालय मिल गया। जीएसटी, महँगाई और मुद्रास्फीति के सम्बन्ध में अजीब-ओ-ग़रीब तर्क देने वाली अपने ही पति से आलोचना सुनने वाली निर्मला सीतारमण फिर से वित्त मंत्री बन गयीं। ऐसे ही कई अन्य अयोग्य सांसद केंद्र में फिर से सत्ता जमते ही मनचाही कुर्सियों से बैठा दिये गये।
अब इसे अहंकार नहीं, तो और क्या कहा जाए कि सरकार की नाक के नीचे अव्यवस्थाएँ फैली हुई हैं; लेकिन इसकी वजह जानने और इससे निपटने में अक्षम ग़ैर-ज़िम्मेदार सांसदों की कमियों को अनदेखा किया जा रहा है। आख़िर इसकी ज़िम्मेदारी कौन लेगा? मंत्रिमंडल में इन चेहरों के होने का एक ही अर्थ है- नित नये-नये भ्रष्टाचार। भाजपा नेतृत्व का अहंकार इतना तीव्र है कि उसने आत्म-समीक्षा के मार्ग को ही बाधित कर दिया गया है। हालाँकि नितिन गडकरी जैसे व्यक्तित्वों को मंत्रिमंडल में देखना संतोषप्रद है। सत्ता के अहंकार से उपजी मानसिक कुंठा और आत्ममुग्धता स्व-मूल्यांकन का मार्ग अवरुद्ध करके पतनशीलता का मार्ग खोल देती है। यही भाजपा में हो रहा है। लेकिन भविष्य ही बताएगा कि साहेब का अहंकार उन्हें मनमर्ज़ी से कार्य करने के कितने अवसर उपलब्ध कराता है?
इस चुनाव में साहेब एक तरफ़ हिंदुत्व और पंथ-निरपेक्ष के मझदार में फँसे दिखे, तो दूसरी ओर पार्टी के प्रचार को स्व-केंद्रित रखने में उद्यत रहे। इससे भाजपा का मूल काडर रुष्ट दिखा। जैसे कश्मीरी ब्राह्मणों के हितैषी बनकर सहानुभूति बटोरने वाले साहेब को वहाँ के मुस्लिमों के साथ सेल्फी लेने का समय मिल गया; लेकिन शरणार्थी बने हिन्दुओं का हाल-चाल लेने की फ़ुर्सत नहीं मिली। बस उनके नाम पर लफ़्फ़ाजी ही करते रहे। असल में इनकी नोबेल पुरस्कार पाने की चाहत अभी पार्टी को और बुरे दिन दिखाएगी।
जिस धर्म केंद्रित राजनीति ने भाजपा को शीर्ष सत्ताधिकारी बनाया, उसी ने इस बार पार्टी को नकार दिया। यह नकारना इतना तीव्र था कि देश के प्रसिद्ध धार्मिक स्थलों चित्रकूट, अयोध्या, प्रयागराज, बक्सर, रामेश्वरम और रामटेक में भाजपा क्षेत्रीय दलों से पराजित हो गयी। ग़ाज़ीपुर सीट से पारसनाथ राय को चुनाव में उतारा, जिन्होंने कोई दावेदारी ही नहीं की थी। आम लोगों और पत्रकारों से अधिक तो ख़ुद पारसनाथ राय अपनी उम्मीदवारी से आश्चर्यचकित थे। आधे से अधिक प्रचार का समय तो पूरे ज़िले में उनका परिचय कराने में ही गुज़र गया। प्रतापगढ़ सीट से भी विरोध के बावजूद संगम लाल गुप्ता को दोबारा टिकट दे दिया गया। इसी तरह आजमगढ़, कन्नौज, चंदौली, अमेठी और अयोध्या जैसी कई महत्त्वपूर्ण सीटों पर भी उम्मीदवारों के विरुद्ध आम जनता की शिकायतों और नाराज़गी की चर्चा आम थी; लेकिन तब भी उन्हें मैदान में उतारा गया। आज भाजपा इवेंट ऑर्गेनाइजर का संगठन बनकर रह गयी है। स्वतंत्रता के बाद से कांग्रेस के जिस व्यक्ति पूजन परंपरा के संघ-जनसंघ एवं भाजपा कटु आलोचक रहे हैं, आज वही संस्कृति भाजपा में ज़हर बनकर एक दशक से उसका चारित्रिक पतन कर रही है और संगठन अब भी आँखें मूँदे बैठा है।
स्वतंत्र भारत में छ: दशकों तक निर्द्वंद्व राज करने वाले कांग्रेसियों के घमंड से संक्रमित होने में भाजपा नेताओं को मात्र एक दशक ही लगा। आप साहेब और कथित चाणक्य ही नहीं, बल्कि उनके भरोसे कुर्सियाँ पाने वाले सभी महिला-पुरुष नेताओं का मीडिया के सामने आने से लेकर पर्दे के अंदर तक का आचरण देखिए, चरम अहंकार से भरा हुआ है। मानो ये लोग स्वयं ख़ुदा समझ बैठे हों। जैसे पिछले कार्यकाल में स्मृति ईरानी का अहंकार इस स्तर पर था कि वह अमेठी में विरोधियों को तो छोड़िए, भाजपा कार्यकर्ताओं को भी सार्वजनिक रूप से पमानित करने लगीं थीं।
पार्टी काडर की कौन कहे, साहेब और चाणक्य के चाटुकार दरबारियों ने पार्टी के प्रतिबद्ध नेताओं को निरंतर अपमानित किया। दूसरे दलों से आयातित नेताओं, वंशवादियों और भूतपूर्व नौकरशाहों को पदासीन करके इन लोगों ने भाजपा-संघ की दूसरी पीढ़ी के उभरते नेतृत्व को मटियामेट कर दिया गया। काफ़ी भाजपाई सार्वजनिक रूप से भले इस बात को स्वीकार न करें; लेकिन इस बार के चुनाव परिणाम से विपक्षी दलों से अधिक तो वही प्रसन्न हैं। कमाल है कि भाजपा सत्ता के बाहर जितना ज्ञान नैतिकता पर देती है और काडर के सम्मान का दम भरती है, सत्ता पाते ही वो सारा भाव तिरोहित हो जाता है। सन् 2004 में पार्टी कार्यकर्ताओं की उपेक्षा और हवाबाज़ी ने अगली विजय की प्रबल संभावनाओं को ध्वस्त किया था; लेकिन भाजपा ने अतीत से कुछ भी न सीखने की क़सम खा रखी है। आज भी भाजपा नेता 2024 में पुन: उसी रास्ते पर हैं। लेकिन तब भी सवाल मौज़ूँ है कि आख़िर ऐसा क्यों हुआ कि साहेब पुन: अपनी महत्त्वाकांक्षा पार्टी-संगठन पर लादने में सफल हुए?
असल में पिछले एक दशक में संघ से लेकर भाजपा तक में एकाधिकार समर्थक समूह के ऐसे कील-काँटे सेट किये गये हैं कि विभिन्न पदों पर क़ाबिज़ यह रीढ़-विहीन सुविधाभोगी वर्ग मलाई चाटने का अभ्यस्त हो चुका है और जो प्रतिवाद करने और सवाल उठाने में सक्षम थे, उन्हें सुनियोजित तरीक़े से ठिकाने लगा दिया गया। एक वक़्त हुआ करता था, जब भाजपा में नीति-निर्णयन से लेकर चुनावी प्रबंधन एवं टिकट वितरण सामूहिक निर्णय की प्रक्रिया द्वारा सुनिश्चित की जाती थी। लेकिन पिछले सात-आठ वर्षों में पार्टी में एकाधिकार की व्यवस्था बन गयी, जिस पर मोदी-शाह का पूर्ण अधिकार हो गया। आख़िर इस आम चुनाव में भाजपा की इस राजनीतिक दुर्गति के लिए इन दोनों गुजराती बंधुओं की जवाबदेही क्यों नहीं तय की जानी चाहिए? समीक्षा सिर्फ़ भाजपा नेतृत्व की ही नहीं, बल्कि इनकी दरबारी फ़ौज की भी होनी चाहिए।
एक समय जिस भाजपा में वंशवाद-परिवारवाद की राजनीति को एक नैतिक अपराध माना जाता था, आज उसी में बीसीसीआई प्रमुख के पद से लेकर लोकसभा और विधानसभाओं तक के टिकट सगे-सम्बन्धियों को बाँटे जाते हैं। पार्टी के लिए सड़कों पर पसीना बहाने वाले लोग अपमानित किये जाते हैं। बाहर से आये सेटर और घुसपैठिये मखमली कारपेट के रास्ते बुलाकर सत्ता की कुर्सियों पर बैठाये गये। पार्टी के पूरे सांगठनिक चरित्र को पतित कर दिया गया और इस दुर्गति तक पहुँचाने वालों से सवाल करने के बजाय उन्हें फिर से उनके मनचाहे सिंहासन दिये जा रहे हैं। आज भाजपा नेतृत्व भ्रष्टाचार के विरुद्ध ज़ीरो टोलरेंस की नीति की वकालत कर रहा है और इस मामले में बिलकुल ईमानदार भी दिखना चाहता है। कामचोर लोग इस नीति का समर्थन कर रहे हैं। लेकिन प्रबुद्ध छोड़िए, किसी आम भारतीय से पूछकर देखिए, वह भ्रष्टाचार विरोधी अभियान का प्रबल समर्थन करता मिलेगा। फिर भी भ्रष्टाचार विरोधी कार्यवाहियाँ चयनित तरीक़े से हो रही हैं। केंद्र द्वारा ईडी, सीबीआई के दुरुपयोग, दबाव की राजनीति और कई राज्यों में ऑपरेशन लोटस के नाम पर विरोधियों को जेल भेजने और सरकारें बनाने-बिगाड़ने के खेल का जनता में कोई सकारात्मक संदेश नहीं गया। वैसे भी पिछले पाँच वर्षों में भाजपा के राजनीतिक शुद्धिकरण मशीन की चर्चा ख़ूब हुई। लेकिन पार्टी ने ऐसी आलोचनाओं पर कान धरना भी गवारा नहीं समझा, जिसका नतीजा आज सामने है।
अब भाजपाई हार की खीझ में जनता को कोस रहे हैं, जो समझ के परे है। जब सन् 2014 और 2019 में इसी जनता ने सिर-माथे पर बैठाया था, तब सब अच्छा था; और आज जब उसने आईना दिखा दिया, तो आप गालियाँ देने पर उतर आये। सत्ता किसी की बपौती नहीं है। जो काम करेगा, उसे जनता चुनेगी, जो गड़बड़ी करेगा, उसे उतार फेंकेगी। उसे कोसने वाला कोई कौन होता है? प्रधानमंत्री और उनके अनुगामी स्वयंभू मंत्रियों और पार्टी पदाधिकारियों को पतन की ओर धकेलने वाला चाटुकार समूह ही नहीं, बल्कि भाजपा के सियासी रणनीतिकारों को आम जनमानस की समझ पर संदेह नहीं करना चाहिए। क्योंकि लोगों को पता है कि किसे सत्ता सौंपनी है और किसे ज़मीन दिखानी है।
भाजपा को यह याद रखना चाहिए कि हारकर भी उसकी जीत में इस बार बहुत हद तक विपक्ष के नकारापन का भी योगदान है। यदि ज़मीनी संघर्ष से तपे-परखे नेता इस बार विपक्ष में होते, तो भाजपा इस चुनाव में बुरी तरह एक कमज़ोर विपक्ष बन जाती। पिछले 10 वर्षों में सिलसिलेवार कई जन-विरोधी कार्यों, भाजपा के परिवारवाद, भ्रष्टाचार, वैश्विक छवि के पीछे पड़ोसी देशों से रिश्ते बिगाड़ने और साहेब पर होने वाले बड़े ख़र्च जैसे तमाम मुद्दों पर भाजपा की ढंग से घेरेबंदी हो सकती थी। लेकिन वंशवादी सत्ता की उपज से निकम्मे बने विपक्षी दल एंटी-इनकम्बेंसी के भरोसे बैठे रहे। जनता की स्वत:स्फूर्त सोच ने ही उन्हें पहले से अधिक सीटें दी हैं। जनता पार्टी सरकार में सूचना एवं प्रसारण मंत्री रहे लालकृष्ण आडवाणी अपनी आत्मकथा ‘माई कंट्री माई लाइफ’ में लिखते हैं- ‘वर्ष 1980 में हमने यह भी सीखा कि गहरा मोहभंग भी उन्हें (मतदाताओं को) उस पार्टी को सज़ा देने के लिए उकसा सकता है, जो उनकी आशाओं पर खरा नहीं उतरती।’ उम्मीद है भाजपा अपने पितृ-पुरुष के राजनीतिक अनुभव से कुछ सीखेगी।