हमारा संविधान कहता है कि संसद सदस्य वही बन सकता है जो देश का नागरिक हो, राज्यसभा सदस्य बनने के लिए 30 साल और लोकसभा के लिए 25 साल से ज्यादा उम्र का हो.
जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 के मुताबिक सांसद बनने की इच्छा रखने वाले व्यक्ति का देश के किसी चुनाव क्षेत्र में मतदाता होना जरूरी है. इसके अलावा किसी भी पुरुष या महिला को संसद सदस्य बनने के लिए कोई और योग्यता नहीं चाहिए. किसी के सांसद बनने या न बनने से उसकी शिक्षा का कोई लेना-देना नहीं है और किसी भी व्यक्ति के मंत्री बनने के लिए उसका सिर्फ सांसद होना ही जरूरी है.
इसका मतलब स्मृति ईरानी के 12वीं पास होकर मानव संसाधन विकास मंत्री या शिक्षामंत्री बनने में कुछ भी गलत नहीं होना चाहिए. वे देश की नागरिक हैं, मतदाता के रूप में मुंबई की वर्सोवा विधानसभा में पंजीकृत हैं और 38 साल की होकर पिछले तीन सालों से राज्यसभा की सांसद भी हैं.
कुछ लोग -जिनमें से ज्यादातर कांग्रेसी हैं – कह रहे हैं कि वे मंत्री तो हो सकती हैं लेकिन केवल 12वीं तक पढ़ी होने के बावजूद, देश की शिक्षामंत्री कैसे हो सकती हैं. इसके जवाब में स्मृति की तरफदारी करने वाले तरह-तरह के तर्क दे रहे हैं. इनमें से एक सवालनुमा तर्क यह है कि ऐसी बातें करने वाले ज्यादातर नेताओं की नेता सोनिया गांधी खुद कितनी पढ़ी हैं. दूसरा, गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर भी तो ज्यादा नहीं पढ़े थे लेकिन देश के सबसे अनूठे विश्वविद्यालय विश्व-भारती की स्थापना उन्होंने ही की थी.
भाजपा नेता उमा भारती की बात सही है. सोनिया गांधी ज्यादा से ज्यादा हमारे देश की बारहवीं कक्षा के बराबर ही पढ़ी होंगी. या इससे एकाध साल ज्यादा. उन्होंने ट्यूरिन से तीन साल का अंग्रेजी और फ्रांसीसी भाषा का कोर्स किया है. इस कोर्स के खत्म होते वक्त वे मात्र साढ़े सत्रह साल की ही थीं इसलिए यह कमोबेश हमारी बारहवीं कक्षा के बराबर ही रहा होगा. इसके बाद उन्होंने कैंब्रिज से एक साल का अंग्रेजी का एक कोर्स और किया जहां उनकी मुलाकात राजीव गांधी से हुई.
स्मृति के तरफदारों की यह बात भी सही है कि गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने भी कोई खास औपचारिक शिक्षा नहीं ली थी. लेकिन उतना ही सही यह भी है कि सन 1939 में विश्व-भारती की स्थापना से कोई 26 साल पहले ही वे साहित्य के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किए जा चुके थे. इस सम्मान को पाने वाले वे यूरोप से बाहर के पहले व्यक्ति थे.
उमा भारती यदि चाहतीं तो सोनिया की जगह अपना उदाहरण भी दे सकती थीं. वे खुद भी पांचवीं कक्षा तक ही पढ़ी होने के बावजूद तीसरी बार कैबिनेट मंत्री बनी हैं. वे अकाली दल के कोटे से मंत्री बनीं हरसिमरत बादल का नाम भी ले सकती थीं. हरसिमरत ने दसवीं के बाद एक डिप्लोमा किया है जो शायद बारहवीं के बराबर ही होगा. लेकिन आज की राजनीति में दूसरे की लकीर को छोटा करके ही अपनी लकीर को बड़ा दिखाने का रिवाज है. अजय माकन भी तो यही कर रहे थे जब वे स्मृति की कम शिक्षा का ढिंढोरा पीट रहे थे.
यहां उमा भारती के संदर्भ में यह कहना भी जरूरी है कि वे सीधे काबीना मंत्री नहीं बनीं थीं. सन 2000 में पहली बार कैबिनेट रैंक की खेलमंत्री बनने से पहले वे दो अलग-अलग विभागों में बतौर राज्यमंत्री काम कर चुकी थीं. और हरसिमरत बादल को भी पहली बार खाद्य प्रसंस्करण मंत्रालय जैसा अपेक्षाकृत हल्का विभाग ही मिला है.
बस यहीं से स्मृति के मामले में थोड़ा अगर-मगर की गुंजाइश निकलने लगती है. ठीक है कि मंत्री बनने के लिए क्लर्क जैसा शिक्षित होना जरूरी नहीं है और मंत्रालय का ज्यादा कामकाज तो बाबू ही संभालते हैं, लेकिन पहले थोड़ा प्रशिक्षित होने में क्या बुराई है? यानी कि शुरुआत में स्मृति को मानव संसाधन विकास मंत्रालय में ही उपमंत्री या राज्यमंत्री या किसी कम महत्वपूर्ण विभाग में स्वतंत्र प्रभार वाला राज्यमंत्री या काबीना मंत्री भी तो बनाया जा सकता था.
यहां एक बात और. उनकी पार्टी और समर्थक चाहे कुछ भी कहें लेकिन वे खुद भी शिक्षित होने को महत्वपूर्ण मानती हैं. अगर ऐसा नहीं होता तो खुद को ज्यादा पढ़ा-लिखा दिखाने के लिए चुनाव आयोग को दिए शपथपत्र में अपनी अधिकतम शैक्षणिक योग्यता बीकॉम पार्ट-1 क्यों लिखतीं. जब बी कॉम प्रथम वर्ष के होने न होने का कोई मतलब ही नहीं है तो उन्होंने शपथपत्र में सीधा-सीधा 12वीं कक्षा ही क्यों नहीं लिखवा दिया.
लेकिन लोचा एक और यह भी है कि उन्होंने चुनाव आयोग को ही 2004 में दिए एक अन्य शपथपत्र में अपनी शैक्षणिक योग्यता बी कॉम प्रथम वर्ष की जगह बीए लिखवाई थी. यह अपने राजनीति के शुरुआती नासमझ दौर में संकोचवश की गई या टाइपिंग की मामूली भूल भी हो सकती है. लेकिन जब आप इतने बड़े पद पर बैठ कर करोड़ों का भविष्य निर्धारित करने की अवस्था में हों तो राई जैसी चीजों का पहाड़ बनना भी तय ही है.