पंडित प्रेम बरेलवी
चुनाव आयोग पर ईवीएम हैकिंग जैसे गंभीर आरोप लगातार लगते रहे हैं। ये आरोप कितने सही हैं और कितने ग़लत? इस बारे में स्पष्ट तो कुछ नहीं है; लेकिन चुनाव आयोग का दोहरापन दूसरे कई मामलों में स्पष्ट रूप से उजागर होता है। किसी भी चुनाव में नेताओं की मनमानी पर चुनाव आयोग का आँखें मूँद लेना देश के लोकतंत्र की रक्षा का सबसे बड़ा भार उठाने वाली इस स्वायत्त संस्था के दोहरेपन का सबसे घिनौना उदाहरण है।
अफ़सोस होता है, जब चुनाव आयोग सत्ताधारी नेताओं की अनर्गल भाषा, पैसे, शराब, कपड़े, मुर्ग़ा आदि बाँटने को अनदेखा करके सिर्फ़ कमज़ोर और विपक्षी पार्टियों के नेताओं को आचार संहिता एवं चुनावी प्रक्रिया के क़ायदे-क़ानूनों का कड़ाई से पालन करने के निर्देश देता है। चुनाव आयोग का उत्तरदायित्व और परम् कर्तव्य है कि वह निष्पक्ष होकर देश में चुनाव कराए। भारत के संविधान ने निर्वाचन आयोग को स्वतंत्र एवं संवैधानिक निकाय का दर्जा इसलिए दिया है, जिससे वह किसी लालच या दबाव के बिना देश में विधानसभाओं और लोकसभा से लेकर राष्ट्रपति तक के चुनाव ईमानदारी से करा सके। अगर कोई सरकार, पार्टी अथवा नेता किसी तरह का दबाव बनाते हैं। लालच देकर चुनाव जिताने की अपील करते हैं। किसी भी बूथ पर किसी तरह की कोई गड़बड़ी फैलाते हैं, तो भारत निर्वाचन आयोग अर्थात् चुनाव आयोग अनुच्छेद-324 के तहत संविधान द्वारा प्रदत्त अपनी शक्तियों का उपयोग करके ऐसे व्यक्ति, नेता, मंत्री और पार्टी के ख़िलाफ़ इस्तेमाल करके उन्हें जेल में भेज सकता है, यहाँ तक कि पार्टी के चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगा सकता है। लेकिन अक्सर देखा जाता है कि चुनाव आयोग अपनी मनपसंद पार्टी के द्वारा चुनावी प्रक्रिया की धज्जियाँ उड़ाने के मामलों में आँखें मूँद लेता है। सन् 2019 के लोकसभा चुनाव में वाराणसी लोकसभा सीट पर प्रधानमंत्री मोदी के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ने के लिए नामांकन भरने वाले ज़्यादातर प्रत्याशियों के नामांकन उनमें कमियाँ निकालकर ख़ारिज किये गये थे। चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री मोदी का नामांकन पत्र वायरल हुआ, जिसमें कमियाँ थीं; लेकिन चुनाव आयोग ने उनका नामांकन पत्र ख़ारिज नहीं किया। नरेंद्र मोदी ने गुजरात में विधानसभा चुनाव लड़ने से लेकर लोकसभा के तीन चुनाव लड़ने तक अपने नामांकन पत्र में वैवाहिक जीवन और शैक्षणिक योग्यता को लेकर अलग-अलग जानकारियाँ दी हैं, जबकि यह बात किसी से नहीं छिपी है कि वह शादीशुदा भी हैं और उनकी शैक्षणिक योग्यता क्या है?
अब दिल्ली में भाजपा नेताओं के द्वारा मतदाताओं को रुपये, कंबल और दूसरी चीज़ें बाँटने के कई वीडियो वायरल हो रहे हैं, जिन्हें चुनाव आयोग अनदेखा कर रहा है। भाजपा सांसद रमेश बिधूड़ी की अभद्र टिप्पणियाँ, झूठे विज्ञापनों को भी चुनाव आयोग अनदेखा कर रहा है। लेकिन वह भाजपा नेताओं के द्वारा मतदाताओं के मताधिकार को छीनने की नीयत से उनके मत निरस्त करने की सूचियों पर पूरा ध्यान दे रहा है और उन्हें तत्काल बिना किसी पड़ताल के निरस्त भी कर रहा है। भाजपा नेताओं पर फ़र्ज़ी मतदाता पहचान पत्र बनवाने के आरोप भी लग रहे हैं। चुनाव आयोग की संलिप्तता के बिना आख़िर यह सब कैसे हो रहा है? सन् 2019 एवं सन् 2024 के लोकसभा चुनाव में कई मतदाताओं को बूथों पर नियुक्त अधिकारियों द्वारा मतदान न करने देने के अनेक मामले उजागर हुए थे। कई जगह ईवीएम की हेराफेरी के वीडियो हर विधानसभा और लोकसभा चुनाव में कहीं-न-कहीं सामने आते रहे हैं। लेकिन चुनाव आयोग न सिर्फ़ ख़ामोश रहता है, बल्कि सफ़ाई भी देता है। पिछले साल हरियाणा और महाराष्ट्र में तो दिन भर के मतदान के कई दिन बाद मतों की गितनी वाले दिन कई ईवीएम की बैटरी ही 97 से 99 प्रतिशत चार्ज मिली। क्या चुनाव आयोग बता सकता है कि ऐसी कौन-सी बैटरी वह किसी-किसी ईवीएम में इस्तेमाल करता है, जो पूरे दिन इस्तेमाल होने और कई दिन रखे रहने के बाद भी फुल चार्ज रहती है? भाजपा प्रत्याशी जीतते भी इन्हीं फुल चार्ज ईवीएम वाली सीटों से हैं।
पार्टियों द्वारा चुनाव के दौरान धन-बल के उपयोग और तय सीमा से ज़्यादा चुनावी व्यय पर भी अंकुश लगाना चुनाव आयोग का परम् कर्तव्य है। लेकिन कड़े नियमों के बावजूद आजकल के सभी चुनावों में पार्टियों के नेता, विशेषकर सत्ताधारी पार्टियों के नेता काले धन के प्रभाव से चुनाव जीतने का प्रयास करते हैं, जो कि न सिर्फ़ चुनाव आयोग के लिए शर्म की बात है, बल्कि लोकतंत्र के लिए अत्यधिक नुक़सानदायक है। चुनावों में अवैध फंडिंग, अरबों रुपये का ख़र्च और अनर्गल प्रचार-प्रसार आज का चलन बन चुका है, जो चुनावी प्रक्रिया की निष्पक्षता को कमज़ोर कर रहा है। अगर चुनाव आयोग को इस सबके बाद भी आँखें ही मूँदकर रखनी हैं, तो फिर आदर्श आचार संहिता किसलिए है? वह निष्पक्ष चुनाव कराने का दम्भ क्यों भरता है? ऐसा लगता है कि चुनाव आयोग के ऊपर भी किसी निष्पक्ष संस्था का गठन करने की आवश्यकता है, जो चुनाव आयोग के अधिकारियों की पारदर्शिता पर भी नज़र रख सके।