एक जमाने में खजाना लूटा जाता था. अस्मत भी लूटी जाती थी. तमाम तरह की लूटों के किस्से सदियों तक तैरते रहते थे. इतिहास को समझना आसान करते थे. लुटेरे इतिहास-कथा के रोचक सूत्रधार थे. आज लुटेरे लुटेरों जैसे नहीं लगते. न्यायप्रिय पदों, कपड़ों, लहजों में वे बिखरे हुए हैं. उनके जुमले सम्मोहन मंत्र की तरह काम कर जाते हैं. तुम हम पर विश्वास करो, हम तुम्हें लूट लेंगे. लूट की यह सनक सत्ता से समाज तक फैल गई है. समाज इन दिनों सबसे अधिक कुछ लूट रहा है, तो वह है खबरें. खबरों की लूट के बाद उनका बंटवारा होता है. आखिर में एक चीथड़ा बचता है. यह चीथड़ा दरअसल लोकतंत्र का होता है.
सरकार और सरकारी बुद्धिजीवियों की एक बड़ी जमात है, जिनका मानना है कि सोशल मीडिया इस लुटेरी सनक का शाहकार है. कई मुल्कों में सोशल मीडिया को नियंत्रित भी कर दिया गया है. हिंदुस्तान में भी धारा 66ए थी, जो अभिव्यक्ति के नागरिक अधिकारों को नियंत्रित करती थी, लेकिन इसी साल मार्च के आखिरी हफ्ते में इसे खत्म कर दिया गया. एक आजाद मुल्क में जबानें भी आजाद होती हैं. यह एक सच है कि दंड विधान की कोई भी धारा सवा सौ करोड़ जबानों को खींचने या काटने में सक्षम नहीं हो सकती.
मामला तब संगीन होता है, जब संवेदनशील खबरों को समाज का एक हिस्सा लूट लेता है और उसे अपने लोभ-लालच के खंडहर में बांटने का काम करता है. कई दंगों में हमने इस लूट की करामात देखी है. ऐसे मामलों में समाज के सामूहिक विवेक को इसका जिम्मेदार बनाने की जगह सरकारें और मुख्यधारा के मीडिया, सोशल मीडिया को निशाना बनाती हैं. जबकि इंटरनेट से पहले भी दंगे होते थे, चरित्र हनन होता था.
भारत में सोशल मीडिया की गतिविधियों पर नजर रखने की शुरुआत यूपीए सरकार के वक्त हो चुकी थी. कपिल सिब्बल पहले घोषित शत्रु के रूप में सामने आए थे, जब 2011 के आसपास न्यूयॉर्क टाइम्स ने रिपोर्ट जारी की थी कि सिब्बल ने सोशल नेटवर्किंग साइट्स के प्रतिनिधियों के साथ एक गुप्त बैठक की थी, जिसमें उन पर सरकार विरोधी कंटेंट को हटाने का दबाव डाला गया था. बाद में सिब्बल ने अपने बयान में कहा भी था कि सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर नकेल कसने की जरूरत है. गूगल ट्रांसपेरेंसी रिपोर्ट 2011 के मुताबिक भारत सरकार ने अपने 68 शिकायती पत्रों के जरिए 358 आइटम्स को हटाने की गुजारिश की थी, जिनमें गूगल ने आधी शिकायतों पर ही कार्रवाई की. सरकार ने 1739 एकाउंट्स की निजी जानकारी गूगल से मांगी, जिनमें से 70 प्रतिशत की जानकारी दे दी गई. यह पूरी प्रक्रिया गैरकानूनी है और सरकार के अधिकारों का दुरुपयोग है – लेकिन सरकार ने ऐसा किया. इससे साफ है कि सरकार चाहे तो सोशल नेटवर्किंग साइट्स की जबान बंद करने में सक्षम है लेकिन अपने इन अधिकारों का उपयोग करने के पीछे सरकार की मंशा कभी सकारात्मक नहीं रही. सरकार अपनी तरह से अभिव्यक्ति के तमाम माध्यमों पर अपनी पकड़ चाहती है. यूपीए सरकार ने अपनी आलोचना की धार कुंद करने के लिए सोशल मीडिया की निगरानी की बात की, वहीं मोदी सरकार ने अपनी छवि चमकाने के लिए और विरोधियों की लानत-मलानत करने के लिए इसका इस्तेमाल किया.
रूपर्ट मर्डोक का बड़ा मशहूर बयान है, ‘वस्तु नहीं, वस्तु की छवि बेचो.’ 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की छवि को चमकाने के लिए भाजपा ने अपना आईटी सेल खोला और उसमें हजारों नवयुवकों की भर्ती की. उनका काम था सच को अपने चश्मे से देखना और उसका श्रृंगार करके वर्चुअल वर्ल्ड में उतारना. इसमें दुनिया के किसी भी हिस्से के सच को भारतीय परिस्थितियों की फोटोशॉप्ड चादर में लपेटकर भ्रम फैलाना शामिल था. यह योजना इतनी असरकारी साबित हुई कि मोदी ईश्वर का अवतार लगने लगे और अंतत: प्रधानमंत्री की कुर्सी पर काबिज हो गए. बहुसंख्यक हिंदुओं को भरमाकर सत्ता में आई सरकार को लग गया कि अफवाहों में यकीन करने वाला जनमानस उसका सबसे बड़ा सेफगार्ड है. यह सबसे खतरनाक समय है, जब एक ऐसा हथियार, जिसने जनता को लोकतांत्रिक आत्मसम्मान दिया, उसका इस्तेमाल जनता को ही बरगलाने के काम में लिया जा रहा है.
सरकारें ही नहीं, कॉरपोरेट कंपनियां भी सोशल मीडिया का बेजा इस्तेमाल करती हैं. दो साल पहले कोबरा पोस्ट ने खुलासा किया था कि कैसे कंपनियां अपने ग्राहकों के बीच अधिक लोकप्रिय दिखने के लिए फर्जी तौर-तरीके अपनाती हैं. बाबा नागार्जुन की एक कविता इस मौके के लिए बड़ा मौजूं है. कविता तो बड़ी है, पर यहां आखिरी चार पंक्तियां देखिए: ‘अंदर टंगे पड़े हैं गांधी तिलक जवाहरलाल, चिकना तन चिकना पहनावा चिकने चिकने गाल; चिकनी किस्मत चिकना पेशा मार रहा है माल, नया तरीका अपनाया है राधे ने इस साल.’
सोशल मीडिया चूंकि अब सरकार और मुनाफाखोर कंपनियों का भी खिलौना बन चुका है, इसलिए ये बहस बेमानी है कि जनसमूह इसका दुरुपयोग कर रहा है और इससे अराजकता फैल रही है. दरअसल आविष्कार या विज्ञान को फैलने से कोई रोक नहीं सकता. जो हो चुका है, वह होता रहेगा. सिनेमा जब आया था, तो गांधी ने लिखा था कि यह विज्ञान समाज के लिए ठीक नहीं है. गोविंद निहलानी ने अपने एक लेख में इसका जिक्र किया है. गांधी का एक बड़ा सामाजिक आधार था, इसके बावजूद सिनेमा ने अपनी जगह बनाई. आज अच्छा सिनेमा, बुरा सिनेमा की चर्चा जरूर होती है लेकिन सिनेमा की तकनीक को लेकर कोई बहस नहीं है. पोस्टकार्ड और अंतर्देशीय पत्रों से आत्मीय पीढ़ियों ने मोबाइल संदेशों के खिलाफ एक बड़ा माहौल बनाया. लेकिन आज पुराने संवाद माध्यम अप्रासंगिक हो चले हैं. तकनीक के प्रयोग को लेकर बहस हो सकती है लेकिन तकनीक को लेकर बहस बेमानी है.
दो उदाहरण हैं. एक पाकिस्तान का और एक अपने देश का. 2011 में पाकिस्तान में कुछ दिनों के लिए फेसबुक पर पाबंदी लगी थी. एक पेज क्रिएट किया गया था, जिस पर पैगंबर मोहम्मद के आपत्तिजनक कार्टून बनाने की प्रतियोगिता चल रही थी. मुसलमानों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के आरोप के चलते पाकिस्तान के एक न्यायालय ने फेसबुक पर कुछ समय के लिए प्रतिबंध लगा दिया. न्यायालय ने पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय को निर्देश भी दिया कि वह ईशनिंदा में बनाए गए कार्टून के मामले को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी उठाए. बाद में जिस फेसबुक यूजर ने ‘एवरीवन ड्रॉ मोहम्मद डे’ प्रतियोगिता आयोजित की थी, उसने वह पृष्ठ हटा लिया. इस अभियान से जुड़ा ब्लॉग भी उसने डिलीट कर दिया.
दूसरा उदाहरण गोवा का है. एक नवयुवक, जिसके दिल में देश में तेजी से फैल रहे भ्रष्टाचार के जंगल को लेकर एक वाजिब गुस्सा उबल रहा था, उसने ट्रैफिक पुलिस वालों की अवैध वसूली के खिलाफ मोर्चा लेने की ठानी. वह अपना कैमरा लेकर रोज एक चौराहे पर जाता और वाहन चालकों से अवैध वसूली की तस्वीरें उतारता और फेसबुक पर मौजूद इंडिया अगेंस्ट करप्शन के पेज पर उसे पोस्ट कर देता. एक बार उसे पुलिस वालों ने देख लिया और उसे इतनी बुरी तरह पीटा कि उसे अस्पताल में भर्ती करना पड़ा लेकिन उस हालत में भी अपने दोस्त की मदद से उसने फेसबुक के जरिए भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाना जारी रखा. गोवा प्रशासन के पास पूरे देश से इतने फोन गए कि घटना की सुबह होते-होते दोषी पुलिसकर्मियों को निलंबित कर दिया गया.
इन दोनों ही उदाहरणों के जरिए समझना आसान है कि तकनीक के उपयोग का सबका अपना-अपना हिसाब है. ऐसे मान लें कि अंतर्जाल एक बड़ी परती जमीन है, उसके अलग-अलग हिस्सों पर एक आदमी गंदगी फैला रहा है, एक आदमी पौधे लगा रहा है, एक आदमी तालाब बना रहा है और एक आदमी पत्थर हटा रहा है. अब फिर अपने मूल सवाल पर लौटते हैं. दरअसल खबरें तटस्थ होती हैं, व्यक्ति तटस्थ नहीं होता. आधिकारिक मीडिया एजेंसी से जब खबरें व्यक्ति के पास आती हैं, तो व्यक्ति उसे अपने तरीके से हासिल करता है और अपने नजरिए के छौंक के साथ उसे आगे बढ़ाता है. यह हमेशा से होता रहा है. सोशल मीडिया ने इस होने को और आसान बना दिया है. लेकिन यह सिर्फ एक सामाजिक व्यक्ति का मामला नहीं है, यह सिस्टम और उसकी नीतियों का भी मामला है कि किसी घटना या खबर पर फैलने वाले भ्रम को किस तरह से साफ करे.
आज फेसबुक और ट्वीटर पर सबसे अधिक लोगों की आवाजाही है. पूरी दुनिया में फेसबुक के 1.44 बिलियन यूजर्स हैं और ट्वीटर के 302 मिलियन यूजर्स. अकेले भारत में 22.2 मिलियन लोग ट्वीटर पर सक्रिय हैं और फेसबुक इस्तेमाल करने वाले लोगों की संख्या 112 मिलियन है. इसमें तेजी से इजाफा हो रहा है. अभिव्यक्ति का पानी पूरे वेग से बह रहा है. अगर आप एक नदी का मुंह बंद करेंगे, तो दूसरी धारा बन जाएगी. इसलिए जरूरी है कि शिक्षा और सलाहियत जैसे मुद्दों पर समाज को विवेकवान बनाने की बात करें. अभिव्यक्ति की इन खुली हुई खिड़कियों को कनखियों से और संदेह से भरकर देखने की जरूरत नहीं है.
(लेखक ब्लॉगर और वरिष्ठ पत्रकार हैं)