ऐसा लग ही नहीं रहा है कि केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार किसी भी मोर्चे पर नाकाम है. न ये कि कोई भी चुनावी वादा ऐसा है जो अधूरा रह गया है. चारों दिशाओं से आ रही मुसलमानों की बेरहम हत्याओं ने जश्न का कुछ ऐसा समां बांधा है, मानो बेरोक-टोक हो रही ये मुस्लिम-हत्याएं इस देश की हर नई-पुरानी समस्या का अंत कर रही हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का लोकसभा चुनाव पूर्व का हर वादा झूठ, ढोंग, जुमला साबित हो चुका है, इसके बावजूद वो दिल्ली, बिहार, उत्तर प्रदेश जैसे मुख्य क्षेत्रों के चुनाव में स्टार प्रचारक हैं. उन्हें लाज क्यों नहीं आती, डर क्यों नहीं लगता कि जनता उन्हें विकास के वादे याद दिला सकती है? और वाकई जनता भी उन्हें ये वादे क्यों नहीं याद दिलाती? क्यों जनता ये नहीं पूछती कि अच्छे दिन की बजाय बदतर दिन क्यों आ गए? किसानों की आत्महत्याएं क्यों बढ़ीं? बलात्कार क्यों बढ़ गए? दाल का भाव 180-200 रुपये प्रतिकिलो क्यों चल रहा है? श्रम-कानून क्यों लचर किए गए? पर्यावरण कानून क्यों कमजोर हुए? नेपाल क्यों दीदे दिखा रहा है? चीन क्यों नहीं सुधर रहा है? पाकिस्तान से आखिर चल क्या रहा है? बेतहाशा विदेश-यात्राओं की फिजूलखर्ची से क्या हासिल हुआ? काला धन आने की बजाय बाहर क्यों जा रहा है? शिक्षा और स्वास्थ्य का बजट बढ़ाने की बजाय घटाया क्यों जा रहा है? मनरेगा जैसी योजनाओं को असफल क्यों बनाया जा रहा है?
जनता चुनाव की रैलियों में ये सवाल क्यों नहीं पूछती अपने इस अंतर्राष्ट्रीय नेता से? क्या जनता सिर्फ इस बात से खुश है कि और कुछ हुआ हो या न हुआ हो लेकिन म्लेच्छ-मुसलमानों को सही काटा जा रहा है? क्योंकि डेढ़ साल में सिर्फ यही फर्क आया है कि भारत की सबसे निर्धन-कमजोर-सत्ताहीन आबादी-दलितों और मुसलमानों को बे-रोक, बेहिचक मारना और भी आसान हो गया है. तो क्या इस देश को बस यही चाहिए? क्या वह सिर्फ इस बात से राजी-खुशी है कि और कुछ करो न करो बस मुसलमानों को ‘ठीक’ कर दो? दलितों का सिर कुचल दो? विकास की वे बातें सब छलावा थीं.
सवाल यही है कि मुस्लिमों के प्रति हिंसा को बढ़ाने के लिए इतिहास की किताबों तक को प्रोपेगेंडा पम्फलेट में बदल रही ये व्यवस्था किस लक्ष्य को पाना चाहती है? 13 प्रतिशत की आबादी वाले सबसे निर्धन और हशियाग्रस्त मुस्लिम समाज से दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाले देश को क्या वाकई खतरा हो सकता है? भारत के किसी भी हिस्से में इतने मुसलमान एक साथ नहीं रहते कि देश की संप्रभुता को कोई खतरा बन जाएं. भारत का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं जहां इनकी एकछत्र मर्जी चलती हो. कृषि-उद्योग-कारीगरी-श्रम में ये न सिर्फ दूध में चीनी की तरह घुले हुए हैं बल्कि सबसे निचले पायदान पर हैं. राजनीति, नीति और अर्थतंत्र में ये अपने सभी हकों से वंचित हैं, ऐसे में मुस्लिम-वध के लिए इतनी संवेदनहीन और खून की प्यासी जमीन कैसे तैयार की गई? और सबसे बड़ा सवाल यह कि इसकी जरूरत क्यों है?
इसका जवाब वर्ण-व्यवस्था के अंदर है और दलित समाजविज्ञानी अब इस साजिश को समझने लगे हैं कि इस खून-खराबे की धुरी सांप्रदायिकता या हिंदू-मुस्लिम ‘एकता-फेकता’ है ही नहीं. धर्मनिरपेक्षता से इसका लेना-देना है ही नहीं, न ही देश की छवि का सवाल इसके आड़े आता है. दरअसल ये सवाल सनातन समाज के अंदर से आ रहे जानलेवा चुनौती को भ्रमित कर, मुसलमान को खतरा बता, सनातन धर्म के अस्तित्व को बचाने का आखिरी दांव है. वरना ऐसा क्यों है कि जब भी सनातन व्यवस्था आधुनिकता से टकराती है, दलित को बराबरी और हिस्सा देने की बात सिर उठाती है तभी हिंदू-मुस्लिम एकता और द्वेष के धुर-विरोधी खेमे आपस में जोर-शोर से कदमताल करने लगते हैं?
आजादी की लड़ाई याद कीजिए, उस वक्त भी सब कुछ ‘ठीक’ चल रहा था. गोरे मालिकों को बाहर कर देसी मालिकों के हाथ में सत्ता आ ही गई थी कि सनातन-व्यवस्था के अंदर के गुलामों (दलितों) ने अपना दावा ठोंक दिया. गांधी जो महात्मा बन चुके थे, इसलिए दलितों (हरिजनों) के स्वयं के नेतृत्व के अधिकार को नकारते हुए, ये तय कर चुके थे कि वैश्य जाति के वे स्वयं ही अछूतों के प्रतिनिधि हैं, न कि एक दलित भीमराव आंबेडकर! दूसरी गोलमेज कॉन्फ्रेंस में वे बिफर गए, बाबा साहेब की आधुनिक और वैज्ञानिक दलीलों ने अंग्रेजों से दलितों के लिए अलग व्यवस्था सुनिश्चित करा ली थी लेकिन ‘महात्मा’ के राजहठ के आगे उन्हें अपने कदम वापस लेने पड़े. दलित का सवाल केंद्र में आ ही गया था कि तभी सबसे तीखा हिंदू-मुस्लिम टकराव पैदा होता है. गांधी एक तरफ हिंदू-मुस्लिम की एकता की वकालत करते तो दूसरी तरफ भारत में ‘रामराज्य’ लाने का शोशा छेड़कर मुसलमानों को संदेश देते कि नई व्यवस्था सनातन धर्म के आधार पर चलेगी. ‘रामराज्य’ की स्थापना को अपना लक्ष्य बताने वाले गांधी अपने विरोधाभासों से हिंदू-मुस्लिम नफरत की जड़ें मजबूत कर रहे थे. ये द्वेष जैसे-जैसे बढ़ा वैसे-वैसे दलितों का एजेंडा हाशिये पर सरकता चला गया. बहरहाल बंटवारा हुआ और हिंदुओं के साथ सहअस्तित्व में यकीन न रखने वाला सामंती-सांप्रदायिक मुसलमान सरहद पार कर गया, जिससे काफी हद तक भारतीय मुस्लिम समाज के अंदर का सामंती मैल भी छंटा. लेकिन भारत के हिंदू समाज में ऐसी कोई छंटनी नहीं हुई बल्कि उस तरफ का सामंती और सहअस्तित्व का विरोधी हिंदू भी इधर ही जमा हो गया. नतीजा ये कि महज कुछ दशकों में ही शाकाहारी हत्यारे जत्थे उत्तर भारत की पहचान बन गए हैं और दलितों और मुसलमानों पर पिल पड़े.
गांधी एक तरफ हिंदू-मुस्लिम एकता की वकालत करते तो दूसरी तरफ भारत में ‘रामराज्य’ लाने का शोशा छेड़कर मुसलमानों को संदेश देते कि नई व्यवस्था सनातन धर्म के आधार पर चलेगी. ‘रामराज्य’ को अपना लक्ष्य बताने वाले गांधी अपने विरोधाभासों से हिंदू-मुस्लिम नफरत की जड़ें मजबूत कर रहे थे
तब से लेकर आजतक सफल फार्मूला वही है- दंगों में दलितों-पिछड़ों का इस्तेमाल कर ‘सत्ताहीनों की एकता’ को तोड़ो, दलित-वध बिना शोर शराबे के और मुसलमान-वध उत्सव की तरह करते रहो. देश को हिंदू-मुस्लिम की परिपाटी से इतर सोचने न दो और हिंदू धर्म-समाज के अंदर से सिर उठाने वाली चुनौतियों को कभी मुख्यधारा के सवाल बनने न दो. लिहाजा मुख्यधारा का बनिया-ब्राह्मण संचालित सर्वव्यापी मीडिया कभी किसी दलित की हत्या पर शोर नहीं मचाता, उनकी नैतिकता दलित हत्याओं-बलात्कारों को आत्मसात कर चुकी है. उनकी जरूरत तो मुसलमान-वध है. पूरे हिंदू समाज की एकता को साझा दुश्मन यानी मुसलमान की सबसे ज्यादा जरूरत आज ही इसलिए भी है कि अब दलित-आदिवासी चेतना अपने इतिहास के सबसे मुखर दौर में दाखिल हो चुकी है. दलित बुद्धिजीवी और कार्यकर्ता देश से लेकर विदेशों तक अपने समाज को तेजी से आंदोलित कर रहे हैं. अब इस सैलाब को भटकाया नहीं गया तो महज 8 प्रतिशत की आबादी वाला ब्राह्मण-बनिया गठजोड़ कैसे देश के 80 प्रतिशत संसाधनों पर काबिज रह सकेगा? जैसे-जैसे बेदखल अवाम आपसी गठजोड़ बनाएंगे उसी अनुपात में हिंदू एकता को मुसलमान बलि की दरकार रहेगी. अतः फिलहाल ये उत्सव जारी रहेगा.
दिल्ली से सटे दादरी में एक मुस्लिम परिवार पर सैकड़ों की भीड़ का हमला करना, मुखिया अखलाक को पीट-पीट के मार डालना और जवान बेटे को लगभग मरा छोड़ कर इस जघन्य अपराध को जायज ठहराना, सारी दुनिया की पहली खबर बना, लेकिन बात-बात पर ‘मन की बात’ करने वाले प्रधानमंत्री ने उस परिवार से दो शब्द हमदर्दी के नहीं कहे. हमदर्दी से कोई जिंदा नहीं हो जाता, शरीर और आत्मा के घाव भर नहीं जाते, किसी नुकसान की भरपाई नहीं हो जाती. वह प्रधानमंत्री, जिसने तीन माह पूर्व ही अपनी विदेश यात्राओं से ठीक पहले, देश के मुसलमानों को वचन दिया था कि ‘अगर आधी रात में भी आप मेरा द्वार खटखटाएंगे तो मैं आपका साथ दूंगा’. प्रधानमंत्री अपनी तमाम नाकामियों को मुसलमान-वध के उत्सव में ढक देना चाहते हैं.
(लेखिका सामाजिक कार्यकर्ता हैं)