नक्सलवाद पर मतभेद

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छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में स्थित सचिवालय में 19 नवंबर को आम दिनों के मुकाबले चहल-पहल कुछ बढ़ गई थी. माहौल में कुछ तनाव भी महसूस हो रहा था. पहले तो लोगों को यह समझ नहीं आया कि साहब लोगों का मूड उखड़ा हुआ क्यों है, लेकिन धीरे-धीरे कारण स्पष्ट होने लगा. गृह मंत्रालय के अफसरों के तनाव की वजह एक पत्र था, जो उसी दिन केंद्रीय गृह मंत्रालय से उन्हें मिला था. गृह मंत्रालय की तरफ से रमन सिंह सरकार को लिखे गए पत्र में राज्य सरकार की 8 साल पुरानी उस मांग को खारिज कर दिया गया था, जिसमें नक्सल मोर्चे के जवानों पर होनेवाले 2400 करोड़ रुपये के खर्च को केंद्र सरकार द्वारा वहन करने की मांग की गई थी.

दरअसल केंद्र में भाजपा की सरकार आने के बाद से नक्सल मोर्चे की रणनीति और खर्च को लेकर केंद्र और राज्य सरकार में खींचतान और बढ़ गई है. इसमें नया तो कुछ भी नहीं है, लेकिन अचरज भरा जरूर है क्योंकि फिलहाल राज्य और केंद्र दोनों में इस वक्त भाजपा की सरकार है. पहले यह माना जा रहा था कि केंद्र में भाजपा सरकार आ जाने से नक्सलवाद के मोर्चे पर राज्य और केंद्र का आपसी सामंजस्य थोड़ा बेहतर हो जाएगा. लेकिन हो इसके उलट रहा है. राज्य और केंद्र के बीच तनातनी इसलिए भी बढ़ गई है क्योंकि केंद्र सरकार ने स्पष्ट कर दिया है कि अकेले छत्तीसगढ़ के लिए पुरानी नीतियों में बदलाव नहीं किया जा सकता. इतना ही नहीं केंद्र ने सख्त संदेश देने की मंशा से ही छत्तीसगढ़ की वह मांग ठुकरा दी है जिसमें राज्य सरकार चाहती थी कि नक्सल मोर्चे के जवानों पर होनेवाले 2400 करोड़ रुपये को केंद्र वहन करे. इससे पहले यूपीए सरकार भी छत्तीसगढ़ सरकार की यह मांग ठुकरा चुकी है.

जब छत्तीसगढ़ के नक्सल मोर्चों पर तैनात अर्धसैनिक बलों के खर्च पर केंद्र और राज्य सरकार के बीच धुंधलका छाया हुआ था उसी दौरान एक दिसंबर की दोपहर को सुकमा जिले के चिंतागुफा इलाके में माओवादियों ने घात लगाकर सेंट्रल रिजर्व पुलिस फोर्स के 14 जवानों की हत्या कर दी. इनमें दो अधिकारी भी शामिल हैं. यह इस साल का सबसे बड़ा नक्सली हमला है. ऐसे में नक्सलवाद के सफाए की नीतियों को लेकर भाजपा की ही केंद्र और राज्य सरकारों की आपसी टकराहट कई सवाल खड़े करती है.

छत्तीसगढ़ में तैनात सीआरपीएफ, आईटीबीपी, बीएसएफ के जवानों के खर्च की यह लड़ाई उस वक्त से चली आ रही है जब केंद्र में यूपीए की सरकार थी. एक जुलाई 2007 को नई दिल्ली में मुख्यमंत्री रमन सिंह ने यूपीए के गृहमंत्री पी चिदंबरम और वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी से मिलकर राज्य सरकार की स्थिति इस मामले में स्पष्ट कर दी थी. लेकिन यूपीए सरकार छत्तीसगढ़ की मांग पर राजी नहीं हुई थी. मोदी सरकार के आने के बाद मुख्यमंत्री रमन सिंह को लगा कि अब उनकी बरसों पुरानी मांग पूरी होने का वक्त आ गया है और उन्होंने केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह से चर्चाकर दोबारा प्रस्ताव भेज दिया. लेकिन छत्तीसगढ़ की दाल एनडीए सरकार में भी नहीं गली. हालांकि केंद्र के इस फैसले को राज्य शासन केवल एक प्रशासनिक निर्णय के तौर पर देख रहा है. मुख्यमंत्री के प्रमुख सचिव अमन सिंह का कहना है, ‘यह पुरानी प्रक्रिया है, जिस पर केंद्र सरकार का जवाब आया है.’

राज्य के अपर मुख्य सचिव गृह एनके असवाल का कहना है, ‘केंद्र से इस बारे में फिर आग्रह किया जाएगा.’ दूसरी ओर केंद्रीय गृह मंत्रालय के अफसर नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘ऐसा नहीं हो सकता कि केंद्र में सरकार बदल गई है तो नियम भी बदल जाएं. कोई भी बदलाव सामुहिक निर्णय के आधार पर सभी के लिए एक समान होगा.’ गृह राज्यमंत्री किरण रिजीजू ने लोकसभा में जानकारी देते हुए साफ कर दिया है कि केंद्र ने छत्तीसगढ़ को बकाए के भुगतान में छूट देने से मना कर दिया गया है.

दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ सरकार का कहना है कि नक्सल समस्या से निपटने की जिम्मेदारी अकेले राज्य सरकार की नहीं है. इसमें केंद्र सरकार की भी उतनी ही जिम्मेदारी बनती है. यहां गौर करने वाली बात यह है कि एंटी नक्सल ऑपरेशन ग्रीन हंट के लिए वर्ष 2007 से छत्तीसगढ़ में केंद्रीय अर्धसैनिक बलों की बड़े पैमाने पर तैनाती हुई थी. इसके बाद छत्तीसगढ़ सरकार पर खर्चे का दबाव बढ़ गया और राज्य सरकार ने इसका भुगतान करने में असमर्थता जताई. ध्यान देनेवाली बात यह भी है कि नक्सल प्रभावित नौ राज्यों में सीआरपीएफ की 90 बटालियन तैनात हैं. इनमें आधी से अधिक यानी 48 बटालियन अकेले छत्तीसगढ़ में तैनात हैं.

राज्य के एक आला अफसर की मानें तो मुख्यमंत्री रमन सिंह ने राजनाथ सिंह को यह समझाने की कोशिश की थी कि राज्य में नक्सलियों से लड़ने के लिए सीआरपीएफ की तैनाती का पूरा खर्च केंद्र सरकार को उठाना चाहिए, क्योंकि यह एक राष्ट्रीय जवाबदेही है न कि किसी राज्य विशेष से जुड़ी कानून और व्यवस्था की समस्या. रमन सिंह ने राजनाथ सिंह को विशेष दर्जेेवाले नॉर्थ-ईस्ट राज्यों, जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश का हवाला देते हुए यह कहा था कि इन राज्यों को केंद्रीय बलों की तैनाती का महज 10 प्रतिशत की भुगतान करना होता है जबकि बाकी राज्यों को पूरी रकम का भुगतान करना होता है.

मुख्यमंत्री का एक तर्क यह भी था कि उनके राज्य यानी छत्तीसगढ़ का कुल बजट 54,000 करोड़ रुपये है और वह किसी भी हालत में केंद्रीय सशस्त्र बलों की तैनाती के बदले 2,400 करोड़ रुपये का भुगतान करने की हालत में नहीं हैं.

मुख्यमंत्री ने बस्तर में और अधिक केंद्रीय बलों की तैनाती की जरूरत बताते हुए केंद्र से 26 और बटालियन भेजे जाने की भी मांग की. केंद्र सरकार ने राज्य को स्पष्ट कर दिया है कि अतिरिक्त केंद्रीय सुरक्षा बलों की तैनाती 2016 के पहले संभव नहीं है और उस हालत में भी इसका पूरा खर्चा राज्य सरकार को ही उठाना होगा.

नक्सलवाद के सफाए में लग रही भारी भरकम राशि का मसला सुलझा भी नहीं था कि 1978 बैच के आईपीएस अफसर दिलीप त्रिवेदी ने सेवानिवृत्त होते वक्त राज्य सरकारों की मंशा पर सवाल खड़े कर दिए. 15 महीनों तक सीआरपीएफ के मुखिया रहे दिलीप त्रिवेदी के शब्दों में, ‘राज्य सरकारें नक्सलवाद रोकने को लेकर गंभीर नहीं है, बल्कि वे तो चाहती हैं कि नक्सलवाद बना रहे, ताकि वे इसके नाम से केंद्रीय सहायता के रूप में मोटी रकम वसूलते रहें.’ त्रिवेदी ने इस बात पर चिंता प्रकट की कि नक्सलियों को हथियारों की आपूर्ति रोकने में भी राज्य सरकारें गंभीर नहीं हैं. इतने वरिष्ठ अधिकारी ने अपनी यह राय अपने अनुभव के आधार पर ही बनाई होगी. त्रिवेदी ने यह भी कहा कि नक्सल प्रभावित राज्यों में नेतृत्व के स्तर पर इसे लेकर कोई बेचैनी नहीं दिखाई देती. इसकी वजह शायद यह है कि इसमें उनका कुछ भी दांव पर नहीं लगा है.

गृह मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि छत्तीसगढ़ सरकार लंबे समय से सीआरपीएफ की तैनाती का खर्च माफ करने की गुहार लगा रही है. जब पी. चिदंबरम और सुशील कुमार शिंदे गृहमंत्री थे उस समय भी राज्य सरकार की ओर से कई बार पत्र लिखा गया था. लेकिन संप्रग सरकार ने ऐसा करने से मना कर दिया था. केंद्र में राजग सरकार आने के बाद रमन सिंह की उम्मीदें फिर से जगी और उन्होंने पिछले महीने खर्चे को माफ करने का औपचारिक अनुरोध किया.

मुख्यमंत्री रमन सिंह को दिल्ली में अपनी ही पार्टी की सरकार से काफी उम्मीदें थीं. खासकर उन मांगों के लिए जिसे यूपीए सरकार लंबे समय से नजरअंदाज करती रही थीं, लेकिन रमन सिंह को एनडीए सरकार से भी निराशा ही हाथ लगी है. राज्य में नक्सलियों से लड़ने के लिए सीआरपीएफ और अन्य केंद्रीय सशस्त्र बलों को तैनात किए जाने के मद में राज्य सरकार को केंद्र को इस रकम का भुगतान करना है. छत्तीसगढ़ सरकार ने 2007 के बाद से इस मद में केंद्र सरकार को कोई भुगतान नहीं किया है.

‘राज्य सरकारें नक्सलवाद रोकने को लेकर गंभीर नहीं हैं, वे चाहती हैं कि नक्सलवाद बना रहे और वे केंद्रीय सहायता के रूप में मोटी रकम वसूलते रहें’

यह अकेला मुद्दा नहीं है, जिसमें राज्य और केंद्र की खींचतान नजर आ रही है. नक्सलवाद के प्रति रवैये को लेकर भी दोनों में मतभेद हैं. छत्तीसगढ़ सरकार पर नक्सल मोर्चे पर लचीला रुख (सलवा जुडूम की बात छोड़ दें तो) अख्तियार करने का आरोप लगता रहा है. कुछ मायनों में यह सही भी है, क्योंकि गाहे-बगाहे मुख्यमंत्री रमन सिंह और उनके गृहमंत्री (जो पिछले तेरह सालों से बदलते रहे हैं) नक्सलियों से वार्ता का राग अलापते रहे हैं. वहीं नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के पहले ही अपने चुनाव कैम्पेन में नक्सलियों को ललकारना शुरु कर दिया था. केंद्र की नई सरकार बनते ही नक्सलवाद को नाम बदलकर वामपंथी उग्रवाद करने की प्रक्रिया शुरु कर दी थी. नए नाम को सुनकर ही यह बात साफ हो गई थी कि केंद्र का रवैया नक्सलियों के प्रति नरम या उदार नहीं रहनेवाला है. इसकी एक झलक तब दिखी जब केंद्र ने हस्तक्षेप करते हुए बस्तर के सात पुलिस कप्तानों को न केवल बदलवा दिया, बल्कि एसआरपी कल्लूरी को बस्तर का आईजी बनाकर नक्सलवाद के सफाए की कमान उन्हें सौंप दी. कल्लूरी को सरगुजा से नक्सलवाद का सफाया करने के लिए भी जाना जाता है. (ताड़मेटला में आदिवासियों के घर जलाने का आरोप भी कल्लूरी पर लग चुका है). उसके बाद से राज्य सरकार ने कल्लूरी को किनारे कर रखा था. कल्लूरी आईजी स्तर के ऐसे पहले अफसर हैं, जो आजकल सीधे केंद्रीय गृहमंत्रालय और गृहमंत्री राजनाथ सिंह को रिपोर्ट कर रहे हैं. इसका एक परिणाम यह हुआ कि पहली बार छत्तीसगढ़ में कथित रूप से नक्सलियों के आत्मसमर्पण और गिरफ्तारियों की खबरें आनी शुरू हो गई हैं. हालांकि इस पर कई सवाल भी उठाए जा रहे हैं. पिछले एक ही महीने की बात करें तो बस्तर में 63 नक्सलियों ने पुलिस के सामने आत्मसमर्पण किया है. इस वक्त छत्तीसगढ़ में करीब 40 माओवादी गुट सक्रिय हैं. जिनमें करीब 50 हजार सशस्त्र माओवादी शामिल हैं. इनमें एक तिहाई संख्या महिला नक्सलियों की है. इनके पास अत्याधुनिक हथियार तो हैं ही, साथ ही इन्हें गुरिल्ला वॉर से लेकर हेलीकॉप्टर तक को निशाना बनाने की जबर्दस्त ट्रेनिंग मिली है.

राज्य सरकार का पुलिस महकमा अपने पुराने वाहनों और पुराने हथियारों के साथ ही माओवादियों से दो-दो हाथ करने को मजबूर है. हमेशा से ही छत्तीसगढ़ सरकार अपने एंटी नक्सल ऑपरेशन के लिए सीआरपीएफ पर निर्भर रही है, लेकिन उसका खर्च उठाने में असमर्थता जाहिर करती रही है. ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि यदि सुरक्षा बलों के खर्च के मुद्दे पर केंद्र ने अपना सख्त रवैया बरकरार रखा तो इसका नक्सली किस तरह से फायदा उठाएंगे या राज्य सरकार क्या इस बहाने अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ लेगी कि उसके पास धन की कमी है, तो एंटी नक्सल ऑपरेशन कैसे चलाए? केंद्र और राज्य के बीच एक ही पार्टी की सरकार होने के बावजूद इस तरह का टकराव अचरज पैदा करता है.