आन्दोलन और अराजकता का फ़र्क़

शिवेन्द्र राणा

कोलकाता की महिला चिकित्सक के साथ हुई यौन हिंसा एवं हत्या और उसके बाद उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश समेत देश के कई राज्यों में यौन हिंसा के जघन्य अपराधों ने पूरे राष्ट्रीय समाज को शर्मसार कर दिया। इन घटनाओं ने इस विचार की ही पुष्टि की कि आधुनिकता एवं सभ्यता के तमाम दावों के बावजूद जंगलीपन का एक अंश अभी भी मानवीय जीवन में न सिर्फ़ सक्रिय है, बल्कि समय-समय पर ख़तरनाक रूप से प्रभावी भी हो जाता है। कोलकाता की घटना के बाद चिकित्सक वर्ग में जो आक्रोश दिखा, जैसा उनका आन्दोलन और विरोध-प्रदर्शन हुआ, वह स्वाभाविक था; क्योंकि मानव जीवन सुरक्षा के लिए समर्पित चिकित्सकों के सम्मान एवं जीवन की सुरक्षा राष्ट्र की ज़िम्मेदारी है। अत: आम जनता भी उनके ग़म और ग़ुस्से से उपजे आन्दोलन की समर्थक ही नहीं, बल्कि सहभागी भी थी।

लेकिन इसके बाद यह आन्दोलन विरोध से इतर ज़िद एवं अहम् का टकराव बन गया। देश के तमाम हिस्सों में डॉक्टर्स एसोसिएशन ने चिकित्सिय सेवा ठप कर कई प्रकार की माँगें रखीं, जिनमें सुरक्षा और तत्कालीन माँगें तो थीं ही, साथ ही कुछ समूह तत्काल दाण्डिक क़ानून बनाने के साथ ही त्वरित न्याय करते हुए आरोपियों को अविलम्ब सज़ा देने की माँग करने लगे। उधर आन्दोलन का तात्कालिक परिणाम यह हुआ कि अस्पतालों में मरीज़ तड़पते रहे और आन्दोलनकारियों के साथ ही मरीज़ और तीमारदार सभी सड़कों पर थे। कोई ग़म-ग़ुस्से में, तो कोई अपनी पीड़ा में।

ख़ैर, इस मामले के कुछ पार्श्व पहलुओं पर विमर्श आवश्यक है। उदाहरणस्वरूप पिछले कुछ समय में एक-दो राज्यों में ही महिला पुलिसकर्मियों के साथ ऐसी यौन हिंसा की घटनाएँ भी घटीं। हालाँकि उनमें से कुछ ने पुरुष सहकर्मियों पर ही आरोप लगाए। लेकिन क्या ऐसी घटनाओं पर पूरे पुलिस महकमे को ड्यूटी छोड़ हड़ताल पर चले जाना चाहिए था। लेकिन उसके बाद क़ानून व्यवस्था की क्या गति होती? डॉक्टरों का उच्च शिक्षित वर्ग यह नहीं समझ पाया कि उनके प्रोफेशन की समाज के लिए क्या महत्ता है? वे नगर निगम के कर्मचारी नहीं हैं, जिनकी कामबंदी से सड़कें-नाले साफ़ नहीं होंगे या जन्म प्रमाण-पत्र, भूमि के रिकॉर्ड जैसे काग़ज़ात नहीं बनेंगे, तो आम नागरिक का जीवन उतना प्रभावित नहीं होगा।

आप रेलवे, शिक्षण या डीआरडीओ, आईजीएनसीए आदि शोध संस्थानों जैसी सेवा का हिस्सा भी नहीं हैं, जिसका ठप पड़ना कोई त्वरित संकट पैदा करता है; बल्कि आपकी कार्यक्षमता व्यक्ति के जीवन को प्रभावित करती है। आप धरती पर श्रेष्ठ ईश्वरीय विधान के जीवन रक्षक हैं। आप ही अपने कर्तव्य से मुँह मोड़ेंगे, तो स्वास्थ्य व्यवस्थाएँ ध्वस्त हो जाएँगी और हुईं भी। चिकित्सक जीवन-मरण को साधने वाली विद्या के प्रतिनिधि हैं। उनका अपने कर्तव्य से विमुख होना मानवीय जीवन के लिए घातक और प्राणान्तक होगा। क्या हड़ताल पर बैठे डॉक्टरों को इसका ध्यान नहीं रहा? अत: स्पष्ट कहें, तो यह विशुद्ध भयादोहन (ब्लैकमेलिंग) है, जहाँ आम जनता की जान दाँव पर लगाकर आप सत्ताओं को झुकाना और समाज को डराकर अपनी प्रभावित साबित करना चाहते हैं। यदि आप अपना कार्य करते हुए विरोध जताते हैं, तो समाज में आपके प्रति आदर तथा समर्थन और बढ़ता।

रही अपराध की बात, तो मानव सभ्यता के शुरुआत के साथ ही यह रहा है और जब तक कठोर दण्ड विधान नहीं होगा, यह रहेगा। जैसे अर्थशास्त्रीय भाषा में पूर्ण रोज़गार की आदर्श स्थिति असंभव है, वैसे ही सम्पूर्ण अपराध मुक्त समाज की संकल्पना ऐसी व्यवस्था में एक यूटोपिया सरीखा विचार है। यहाँ ज़रूरत है अपराधों और वीभत्सता की त्वरा शमन और रोकथाम की। अपराधियों पर अंकुश लगाने की। यदि अपराध हो चुका है, तो अपराधियों के विरुद्ध त्वरित कठोर दाण्डिक कार्यवाही की। ऐसे ज़्यादातर मामलों में पुलिस-प्रशासन की कार्रवाई दोषपूर्ण रही है, जिसे न्यायालय एवं विशेष जाँच एजेंसियों की सक्रियता के बाद अपनी उचित दिशा मिली है। लेकिन डॉक्टरों की हड़ताल से आर्थिक रूप से सक्षम मरीज़ों के लिए तो निजी नर्सिंगहोम का विकल्प हैं; लेकिन ग़रीब, वंचित वर्ग के मरीज़ क्या करें? धरती के भगवान तो उन्हें मरने के लिए छोड़ गये हैं। इधर पिछले क़रीब 11 दिनों में निजी अस्पतालों की पौ-बारह रही। ऐसे हड़ताल तो उनके लिए नोट छापने के मा$कूल मौक़े होते हैं। उन्हें ऐसी अराजकता में भी मानो अवसर मिल गया हो। प्राइवेट प्रैक्टिसर्न्स तो इसे लम्बा खींचते देख ख़ुश ही होंगे। उनकी कमायी बढ़ गयी। किसी शायर ने ठीक ही कहा है :-

‘सहमी हुई है झोपड़ी बारिश के ख़ौफ़ से,

महलों की आरजू है कि बरसात तेज़ हो!’

यानी सवाल वही है। आख़िर एक व्यक्ति के कुकृत्य का दंड सम्पूर्ण समाज क्यों भुगते? जबकि वह स्वयं आपके संघर्ष का सहयोगी तथा पक्षधर है, तब तो यह अनुचित भी है। देश आपकी मौलिक माँग सुनकर स्वीकार रहा है। उसका समर्थन कर रहा है; लेकिन क्या आप आम जनता के शारीरिक व्याधियों से उपजी पीड़ा की दर्दनाक आवाज़ें सुन रहे हैं? और कैसा त्वरित न्याय चाहिए आपको? इस देश में कोई भी इस दुष्कृत्य को जायज नहीं ठहरा रहा है; लेकिन आधुनिक जम्हूरियत में न्यायिक प्रक्रिया का औचित्य एवं न्याय प्रणाली के सम्मान का अर्थ समझना होगा। देश में न्यायपालिका है। वह अपना काम करेगी, फ़ास्ट ट्रैक अदालतें हैं, परिष्कृत दंड संहिता, महिला अपराध विरोधी कड़े क़ानून हैं। इसके बावजूद त्वरित न्याय की माँग का तो अब एक ही मतलब बचा है कि तत्क्षण शरई अदालत लगाकर बीच चौराहे अपराधियों का सिर काट दिये जाएँ। या अंग-भंग किया जाए या उन्हें गोली मारी जाए। हालाँकि उनका अपराध इतना जघन्य है कि ये सज़ाएँ भी बहुत छोटी हैं। लेकिन न्याय के ऐसे बर्बर तरीक़े अपनाकर क्या आप अपनी लोकतांत्रिक प्रगति को पश्चगामी दिशा में नहीं धकेलेंगे? क्या आप मध्ययुगीन जीवनशैली में लौटने को उतारू हैं?

इसके अतिरिक्त नये आपराधिक क़ानून का निर्धारण तथा इसे त्वरित लागू करना जैसे माँग तात्कालिक भावुक दावे, तो हो सकते हैं; लेकिन यह संवैधानिक गरिमा नहीं है। क़ानून सड़कें बनाने की जगह नहीं है। इसके लिए देश में संसद और विधानमंडल हैं। अधिकार के नाम पर अराजकता को गौरवान्वित एवं संवैधानिक न्याय का विकृतिकरण स्वीकार नहीं किया जा सकता। इसी परिप्रेक्ष्य में बताते चलें कि बिहार में छात्र आन्दोलन के तीव्र होने के दौरान उस समय के महाराष्ट्र के प्रसिद्ध समाजसेवी एवं पूर्व आईसीएस अधिकारी आर.के. पाटिल, जिनका महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाक़ों में अपने कार्यों के कारण काफ़ी सम्मान था; ने 04 अक्टूबर, 1974 को जे.पी. को लिखे पत्र में लिखा- ‘इंदिरा गाँधी सरकार की ख़ामियों से पूरी तरह वाक़िफ़ हैं; लेकिन वह इस बारे में अभी तक आश्वस्त नहीं हैं कि क्या गलियों-मोहल्लों की बहस से चलने वाली सरकार संसदीय बहसों द्वारा बने क़ानून के तहत चल रही सरकार से बेहतर हो पाएगी? आज आप अच्छाई के लिए लड़ रहे हैं; लेकिन इतिहास गवाह है कि भीड़ द्वारा चलाया जाने वाला आन्दोलन रॉब्सपियर भी पैदा कर सकता है।’

निकट ही बांग्लादेश का उदाहरण देखिए कि एक लोकतांत्रिक आन्दोलन कैसे हिन्दू एवं भारत विरोधी तथा अपने ही देश के स्वतंत्रता आन्दोलन के विरुद्ध हो गया है। राष्ट्रीय नायक शेख़ मुजीबुर्रहमान की प्रतिमाएँ तोड़ीं एवं अभद्र तरीक़े से अपमानित की गयीं। हिन्दुओं के घर, उपासना स्थल, दुकानें लूटी गयीं। उनकी हत्याएँ हुईं। औरतों का बलात्कार हुआ। वो इसलिए, क्योंकि आन्दोलन में जब ध्येय की नैतिकता पतित होती है, तो वो अराजकतापूर्ण एवं विघटनकारी हो जाता है। और अराजकता को प्रश्रय देना राष्ट्रीय समाज के लिए आत्मघाती निर्णय होता है।

बलात्कार के बाद डॉक्टर बेटी की हत्या देश के लिए एक शर्मनाक घटना है और पूर्ण न्यायिक प्रक्रिया के पालन के साथ अपराधियों के विरुद्ध दंडात्मक कार्यवाही राष्ट्रीय नैतिकता का वास्तविक तक़ाज़ा है। लेकिन उसकी दोषसिद्धि आम भारतीयों के विरुद्ध होना भी अनैतिकता का प्रतिमान है। हालाँकि सर्वोच्च न्यायालय की अपील और उसके सकारात्मक निर्देशों के बाद अखिल भारतीय चिकित्सक संघ महासंघ (एफएआईएमए) ने अपनी 11 दिनों की हड़ताल को समाप्त करने का निर्णय किया। लेकिन इस दौरान आम लोगों के प्रति डॉक्टर्स एसोसिएशन के संवेदनहीन एवं शुष्क व्यवहार ने भी आहत किया है। किसी भी अन्याय का प्रतिकार व्यक्ति का अधिकार है। और इस रूप में सहकर्मी महिला चिकित्सक के विरुद्ध हुए पाशविक अपराध के विरुद्ध आन्दोलन एवं विरोध-प्रदर्शन चिकित्सक समूह का अधिकार है। लेकिन यह अधिकार तभी अर्थपूर्ण होता है, जब यह कर्तव्य के साथ समन्वित हो।

अधिकारों के प्रति संकुचित-स्वार्थी मानसिकता राष्ट्र की नैतिक एवं सामाजिक व्यवस्था में अराजकता पैदा करती है। उम्मीद है कि धरती पर ईश्वर के प्रतिनिधि ऐसी स्थिति नहीं आने देना चाहेंगे और अपने कर्तव्य पालन के प्रति दृष्टिकोण उन्नत रखेंगे।