आप निरंतर भाषा पर काम करते रहते हैं. कई भाषाओें पर काम करने के अलावा आपने तमाम भाषाओं के शब्दकोश भी तैयार किए हैं. इन दिनों क्या नया कर रहे हैं?
भाषा पर निरंतर काम करते रहने से ही जड़ता दूर होगी. भाषा विज्ञान के सामने चुनौतियों का जो पहाड़ है, वह तभी खत्म होगा. खैर आपने पूछा कि अभी क्या कर रहा हूं तो जल्द ही भारत की बोलियों पर एक किताब आने वाली है, जिसमें यह बताने की कोशिश है कि जो लोग बोलियों के मरने से चिंतित हैं, उन्हें यह जानना जरूरी है कि बोलियां बन भी रही हैं और उनके बनने की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है. जब समाज बदल रहा है, संस्कृति बदल रही है, जीवनशैली में बदलाव आ रहा है तो भाषाएं भी अपना स्वरूप बदल रही हैं. संक्रमण, मेल-मिलाप, तोड़फोड़ से नई भाषाओं का जन्म हो रहा है, पुरानी भाषाएं मर रही हैं. इधर मैंने बोलियों पर कुछ अध्ययन किया है. हिंदी के बारे में कहा जाता है कि इसका संसार 18 बोलियों पर खड़ा है जबकि अभी हकीकत यह है कि बोलियां 48 हो गई हैं.
आपने एक बात कही कि भारत में भाषा विज्ञान के सामने चुनौतियों का पहाड़ खड़ा है. क्या कुछ चुनौतियों के बारे में बताएंगे?
अनगिनत चुनौतियां हैं. एक-दो बातें करते हैं. पहले तो यही कि 70 के दशक के शुरू में भाषायी गणना हुई थी. भारत में 1652 भाषाएं थीं. पांच दशक बाद अब 232 ऐसी भाषाएं हैं, जिन्हें सिर्फ एक आदमी जानता है. अब उनको भी भाषा में गिना जाता है. भाषा की परिभाषा यह है कि उससे विचारों का आदान-प्रदान हो, भावों का विस्तार हो. अब जिसे जानने वाले एक लोग ही बचे हैं, उसे भी भाषा में शामिल करके रखना कौन सी बात है. अब दूसरी बात सुनिए. भारत में बच्चों को उलटा ही पढ़ाया जा रहा है. इसमें धीरे-धीरे सुधार लाने की जरूरत है. एबीसीडी…कखगघ… बच्चों को पढ़ाने की इस विधा में बदलाव लाने की जरूरत है. भाषाविज्ञान ध्वनियों से नहीं चलता, वाक्यों से चलता है. वाक्य उसकी मूल इकाई होती है, ध्वनि नहीं. आप खुद सोचिए कि सबसे पहले जब भाषा का आविष्कार हुआ होगा तो वाक्य ही आया होगा, ध्वनि नहीं. दुनिया में अभी कई भाषाएं हैं, जहां ध्वनि को इकाई नहीं माना जाता, वाक्यों को इकाई माना जाता है. एक और बात बताना चाहूंगा. भारत में दुनिया के चार सबसे प्रमुख भाषा परिवारों की भाषाएं बोली जाती हैं. सामान्यतया उत्तर भारत में बोली जाने वाली भारोपीय परिवार की भाषाओें को आर्य भाषा समूह, दक्षिण की भाषाओं को द्रविड़ भाषा समूह, आस्ट्रो-एशियाटिक परिवार की भाषाओं को मुंडारी भाषा समूह और पूर्वोत्तर में रहने वाली तिब्बती-बर्मी नृजातीय समूह की भाषाओं को नाग भाषा समूह के रूप में जाना जाता है.
भारत में भाषायी अध्ययन सिर्फ आर्य समूह को ही ध्यान में रखकर ज्यादा होता रहा है जबकि बाकी तीनों समूह कोई कम महत्वपूर्ण नहीं. आर्य समूह को आधार बनाने और संस्कृत को अवलंबन बनाने से भाषा विज्ञान का विकास रुका हुआ है. वह जड़ता का शिकार बना हुआ है. इन बातों का क्या असर पड़ता है?
बहुत असर पड़ता है. सबसे पहले तो अगर आप आर्य समूह को आधार बनाते हैं तो आप हमेशा द्वंद्व और दुविधा की दुनिया में रहते हैं. संस्कृत में सभी बातों का निदान नहीं है. आप एक शब्द जानते होंगे ‘मायके’ या ‘मैके’. ‘नैहर’ को कहा जाता है. ‘मायके’ का मतलब होता है मां का घर. बहुत ही लोकप्रिय शब्द है. अब इसकी तलाश संस्कृत से कीजिए, ओर-छोर का ही पता नहीं चलेगा. जब आप पूर्वोत्तर में जाएंगे तो मायके के ‘के’ का मतलब समझ में आएगा. वहां ‘के’ का मतलब घर होता है. वहीं से यह शब्द आया. एक और शब्द गांव-घर में बहुत मशहूर रहा है, सुने होंगे-कनखी. यानी आंख मारना या नजर बचाकर देखना. अब बताइए आंख दबाने को कनखी कहा जाता है. कान से उसका क्या लेना-देना! अब इस लोकप्रिय शब्द का मतलब संस्कृत को या आर्य भाषा को आधार बनाकर तलाशते रहिए, नहीं मिल पाएगा. दक्षिण भारत में जाएंगे तो मालूम होगा कि आंख को ‘कन’ कहा जाता है तो वहां से यह शब्द आया है. लेकिन हमारे यहां के भाषाविज्ञानी संस्कृत को ही बड़ा अवलंबन बनाकर भारत में भाषा विज्ञान को आगे बढ़ाना चाहते हैं और इससे भाषा और भाषा के अध्ययन दोनों का विकास रुका हुआ है. तत्सम-तद्भव वगैरह में ही सब उलझ कर रह जाते हैं. अब आप एक और शब्द ‘आम’ को देखिए. तत्सम ‘आम्र’ कहा जाता है, तद्भव ‘आम’. जबकि आप इसके मूल में जाइएगा तो यह मुंडारी शब्द है, ‘अम्ब’. यह वहीं से आया है. ‘अम्बू’, ‘निम्बू’, ‘अम्ब’ यह सब मुंडारी से आए हुए शब्द हैं. आप बिहार के औरंगाबाद वाले इलाके में जाएंगे तो कई इलाके इस नाम पर मिलेंगे- ‘अम्बा’, ‘कुटुम्बा’ आदि. मेरे कहने का मतलब यह है कि भारत के भाषा विज्ञानियों को थोड़ा अपने अवलंबन को बदलकर भाषा विज्ञान का विस्तार करना चाहिए या होने देना चाहिए नहीं तो मनुष्य को मनु की संतान बताया जाता रहेगा जबकि मनुष्य ‘मानुष’ से आया हुआ शब्द है और यह वेद ही बताता है.
आर्य भाषा समूह का जो वर्चस्व थोपा गया, वह इरादतन था या फिर उस समय की स्थितियां ही ऐसी थीं?
कुछ तो इरादतन भी और कुछ उस समय में समझ नहीं होने के कारण या दायरा सीमित होने के कारण. कुछ भारत जैसे देश में भाषा को गंभीरता से नहीं लेने और शोध नहीं होने के कारण भी. अब आप देखिए कि रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य का इतिहास लिखा. अब उन्होंने अपना पूरा आधार ही इसे लिखने के लिए एक पत्रिका ‘सरस्वती’ को बना दिया और उसी के आधार पर हिंदी साहित्य का इतिहास लिख दिया. हुआ यह कि मिर्जापुर, बनारस, इलाहाबाद के साहित्यकार और उस इलाके में होने वाली साहित्यिक गतिविधियां ही उसमें आ सकीं जबकि उस समय सिर्फ ‘सरस्वती’ पत्रिका ही तो नहीं निकलती थी. रामचंद्र शुक्ल के पास वही पत्रिका आती होगी, वही उन्होंने पढ़ा होगा और फिर इसी आधार पर लिखा होगा. कहने का मतलब है कि अब उसको ही जीवन भर आधार मत बनाए रखिए. बात को आगे बढ़ाइए. ऐसा नहीं करेंगे तो संकट और गहराएगा. हिंदी पर जिस तरह से यूपी-बिहार का वर्चस्व दिखता है, वही दिखता रहेगा जबकि हिंदी भाषी राज्य तो दस हैं देश में.
हिंदी को अपनी रूढ़ियों से निकलना होगा. व्याकरण को बोझ बनाने की बजाय उसे सहायक बनाना होगा
बतौर भाषा अगर बात करें तो हिंदी के सामने क्या संकट दिखता है?
सबसे पहले तो यह समझना होगा कि हिंदी का जो समाज रहा है वह पारंपरिक रहा है. रूढ़ियों से ग्रस्त और शुद्धतावादी आग्रह रखने वाला भी. यही रवैया हिंदी भाषा के सामने संकट के तौर पर है. इसे मैं थोड़ा और विस्तार से बताता हूं. हिंदी भाषा की जब पहला शब्दकोश तैयार हुआ था तो 20 हजार शब्दों को लिया गया था उसमें और अंग्रेजी के पहले शब्दकोश में 10 हजार शब्द. आज अंग्रेजी के शब्दकोश में 7.5 लाख के करीब शब्द हैं और हिंदी दो लाख के आसपास ही फंसा हुआ है. हिंदी ने उदारता नहीं दिखाई, यह रूढ़ियों में फंसी रह गई. हिंदी टिकट, बैंक, ट्रेन का हिंदी मतलब तलाशती रह गई और अंग्रेजी ने ‘रिक्शा’ जैसे जापानी शब्द को, ‘टोबैको’ जैसे पुर्तगाली शब्द को, ‘चॉकलेट’ जैसे अमेरिकन मूल के शब्द को आसानी से अपने में समेटते हुए अपना ही शब्द बना लिया. भाषा को समृद्ध करने और उसे बढ़ाने के लिए उदारता चाहिए, रूढ़िवादी रवैया नहीं. हम अब भी कामता प्रसाद गुप्त के व्याकरण से ही हिंदी को तय करते हैं. फ्रांस जैसे देश में वहां की सरकार हर दस साल पर व्याकरण बदल देती है. हिंदी में तो कविता के लिए जिस तरह से छंद बंधन रहा है, उसी तरह से व्याकरण भी बंधन हो गया. महिलाओं के चूल्हे-चौके से, खेत-खलिहान से शब्द आते हैं लेकिन हम मर्यादा पुरुषोत्तम राम की तरह हिंदी को बनाए रखने में रह गए. यहां मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं लीला पुरुषोत्तम कृष्ण चाहिए, जो हमेशा निर्धारित दरवाजे से ही नहीं घुसेंगे, खिड़की से भी आ जाएंगे, निकल जाएंगे. हिंदी को अपनी रूढ़ियों से निकलना होगा. व्याकरण को बोझ बनाने की बजाय उसे सहायक बनाना होगा. उससे मुक्त भी होना होगा और सिर्फ आर्य दुनिया में नहीं रहना होगा. हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, छत्तीसगढ़ यह सब हिंदी भाषी राज्य ही हैं, उनके शब्दों को लेना होगा, विस्तार करना होगा. और जो परिवर्तन हो रहा है, उसे भी समझना होगा. पहले घुटने से नीचे वाले हिस्से को ‘जंघा’ कहते थे, अब घुटने से ऊपर वाला हिस्सा ‘जांघ’ कहा जाता है. भाषा ऐसे ही अपना रूप-स्वरूप बदलती है. इसे मानना और जानना होगा क्योंकि यह वैज्ञानिक प्रणाली है कि हर एक हजार साल पर किसी भाषा के 19 प्रतिशत शब्द मर जाते हैं. उसकी जगह नए शब्द आ जाते हैं. पूरी दुनिया में ऐसा होता है. उसे लेकर आह नहीं भरते रहना होगा. कबीर ने अपने समय में व्याकरण से मुक्ति पाई तो देखिए उनका असर, तुलसीदास उसी आर्य प्रणाली में फंसे रह गए और उसके बाद छायावादी युग के लोग भी संस्कृत और आर्य प्रभाव में रहे. निराला से लेकर सुमित्रानंदन पंत तक. बाद के कालखंड में रेणु ने बंधन को तोड़ा तो देखिए उनकी कालजयिता. हमें बंधनों को तोड़ना होगा.
आपने तुलसीदास की बात कही. तुलसीदास ने तो अपने समय में ब्राह्मणों की भाषा, देव की भाषा, वर्चस्व की भाषा संस्कृत के काशी जैसे गढ़ में एक लोकभाषा अवधी को खड़ा किया.
मैं यह कह रहा हूं कि तुलसीदास ने अवधी में अधिकाधिक संस्कृतनिष्ठ शब्दों का भी प्रयोग किया.
आपने एक बात कही कि व्याकरण से मुक्ति चाहिए. क्या इससे भाषा का स्वरूप ही अलग नहीं हो जाएगा?
मैंने ऐसा नहीं कहा. मैंने कहा कि बेजा व्याकरण के दबाव में रहने या हिंदी को रखने की जरूरत नहीं. अब एक उदाहरण सुनिए. लिंग निर्णय की बात. देखिए हिंदी कितना बोझ झेल रही है. टेबल का लिंग क्या होगा, कुर्सी का लिंग क्या होगा, ईंट का लिंग क्या होगा, पत्थर का लिंग क्या होगा… अब दो लाख शब्द हैं, पूरी जिंदगी एक आदमी सभी शब्दों का लिंग जानने में ही लगा देगा. सिर्फ लिंगबोध के ही कारण वाक्य की क्रिया, विशेषण सब बदलने पड़ते हैं. राम जाता है, सीता जाती है. यह क्या है? अंग्रेजी व्याकरण में ऐसा क्यों नहीं. वहां तो सीधे होता है ‘राम इज गोइंग, सीता इज गोइंग’. ऐसा नहीं है कि यह सिर्फ अंग्रेजी में देख सकते हैं आप. देखिए आदिवासी भाषाओं में, लिंग निर्णय का इतना बोझ नहीं है. यह आर्य पद्धति है, इसमें ऊर्जा लग रही है. जितनी ऊर्जा इसमें लगती है, उतने में तो नौजवान रॉकेट बना लेगा.
फिर एक तरीके से कहें कि राजभाषा हिंदी का जो कॉन्सेेप्ट देश के लिए है, वह भी ठीक नहीं. संपूर्ण देश के लिए सरकारी स्तर पर एक भाषा को निर्धारित कर देना भी ठीक नहीं.
ऐसा नहीं. राष्ट्र की एक अवधारणा होती है. भारत जब आजाद हुआ तो हिंदी का निर्धारण हुआ. इसका कोई एक कारण नहीं रहा. और यह पहली बार भी नहीं हुआ. हर शासन में शासक द्वारा अपनी भाषा चलाई गई है. मौर्य काल में प्राकृत को राजभाषा बनाया गया. तब सब लोग प्राकृत नहीं जानते थे. गुप्तकाल में संस्कृत राजभाषा बनी. मुगलकाल में फारसी को राजभाषा बना दिया गया. तब आम जनता तो ये भाषाएं नहीं बोलती थी. शेरशाह ने भी फारसी को ही चलाया, जबकि शेरशाह की खुद की भाषा पश्तो थी. बाबर की भाषा तुर्की थी. उसने तो अपनी जीवनी भी तुर्की भाषा में ही लिखी लेकिन राजभाषा फारसी को रखा. शासन और शासक वर्ग के इर्द-गिर्द जो लोग होते हैं, वह अपने अनुसार राजभाषाओं का निर्धारण करवाते रहे हैं. वह कोई समस्या नहीं. जनता अपने हिसाब से अपनी भाषा में व्यवहार करती है, नई भाषा का निर्माण करती है.