वृंदावन में प्रकृति का विनाश और आस्था का व्यावसायीकरण

गायब हुआ लोटा, ब्रज रज का टोटा

बृज खंडेलवाल द्वारा

वृंदावन—जिसका नाम सुनते ही मन में कृष्ण की बाँसुरी की मधुर तान, यमुना के नीले जल पर उठती लहरें और हरियाली से घिरे कुंज गलियारों की छवि उभरती थी—आज एक  मायावी योजना का शिकार हो रहा है।

यह वही वृंदावन है, जहाँ मीरा ने प्रेम की अमर पंक्तियाँ गाई थीं, जहाँ चैतन्य महाप्रभु ने भक्ति की धारा बहाई थी, और जहाँ सदियों से संतों ने तपस्या की थी। लेकिन आज यह पवित्र भूमि एक क्रूर मशीनरी का हिस्सा बन चुकी है—एक ऐसी मशीनरी जो “विकास” के नाम पर आस्था को कुचल रही है, प्रकृति को निगल रही है और भक्ति को एक कॉर्पोरेट उत्पाद में बदल रही है। 

वृंदावन का स्याह परिवर्तन: जब पवित्रता मुनाफे की भेंट चढ़ी 

कभी वृंदावन की पहचान उसके  पवित्र कुंडों, घने कदंब के वृक्षों और यमुना के किनारे फैले विशाल मैदानों से थी। आज? यह एक बदसूरत शहरी जंगल में तब्दील हो रहा है, जहाँ कंक्रीट के जंगल ने प्राकृतिक सौंदर्य को निगल लिया है। पिछले दो दशकों में वृंदावन का 60% हरित क्षेत्र नष्ट हो चुका है। बृज के 1,000 से अधिक पवित्र कुंडों में से 70 को अवैध कब्जों ने लील लिया है, बाकी को कचरे और गंदगी से पाट दिया गया है। यमुना, जो कभी निर्मल धारा थी, आज एक विषैले नाले में तब्दील हो चुकी है, जिसके किनारे अब  होटल और बहुमंजिला अपार्टमेंट खड़े हैं। 

वृंदावन की कुंज गलियाँ, जो कभी भक्तों के लिए श्रद्धा और शांति का प्रतीक थीं, अब चौड़ी सड़कों में बदल चुकी हैं। इन सड़कों के किनारे  मंदिर, देवालय नहीं, अब श्री कृष्ण  स्टोर्स, राधा-कृष्ण फास्ट फूड और भगवान गिफ्ट शॉप्स की भरमार है। यहाँ अब भक्ति नहीं, बल्कि भक्तों की जेबें काटने की होड़ मची है। 

वृंदावन कॉरिडोर:  

जिस तरह काशी विश्वनाथ कॉरिडोर ने वाराणसी के पुरातन स्वरूप को बदल दिया, उसी तर्ज पर वृंदावन कॉरिडोर बनाया जा रहा है। इसके नाम पर सैकड़ों साल पुराने मंदिर, हवेलियाँ और ऐतिहासिक इमारतें ध्वस्त की जा सकती हैं। सरकार का दावा है कि यह “भक्तों की सुविधा” के लिए किया जा रहा है, लेकिन कुछ लोगों को यह एक व्यावसायिक साजिश दिख रही है। 

लास्ट ईयर, स्थानीय पुजारियों और संतों ने इसका विरोध किया था। वर्षों  से वृंदावन में रह रहे एक आचार्य ने कहा—”इस कॉरिडोर में  भक्ति नहीं, टिकट और सामान  बिकेंगे।” 

लेकिन सरकार और उसके साथ खड़े बाबाओं को इसकी परवाह नहीं। उनके लिए वृंदावन एक “ब्रांड” है, जिसे बेचकर करोड़ों कमाए जा सकते हैं।  इस वक्त तीन ग्रुप्स में विभाजित है विरोध का आंदोलन। कुछ दिनों में कॉरिडोर के पक्ष हो जाएगा माहौल। प्रश्न सिर्फ कॉरिडोर का नहीं, समूचे ब्रज चौरासी कोस में विकास की दिशा का है।

धर्म का नया बाजार: बाबाओं और बिल्डरों का गठजोड़

वृंदावन के पतन का रास्ता उसके “आध्यात्मिक व्यापारीकरण” में देखा जा सकता है। आज यहाँ नए-नए “गुरु” उभर रहे हैं, जो “एक्सप्रेस मोक्ष” का वादा करते हैं।   रियल एस्टेट कारोबारियों ने  वृंदावन की जमीनों को हड़पने के तमाम उपक्रम चला रखे हैं। 2024  की एक रिपोर्ट के अनुसार, पिछले पाँच सालों में वृंदावन की 40% जमीन अवैध तरीके से बेची गई। इनमें से अधिकांश सौदे बड़े धार्मिक ट्रस्टों और नेताओं के बीच हुए। 

इन्होंने पेड़ काटे, तालाब पाटे और उनकी जगह लग्जरी आश्रम, शॉपिंग कॉम्प्लेक्स और पार्किंग लॉट बना दिए। आज वृंदावन में “प्रेम की नगरी” नहीं, “पैसे की नगरी” बस चुकी है। 

सुविधा बनाम संस्कृति

कुछ लोग कहते हैं कि यह आधुनिकीकरण अच्छा है, क्योंकि इससे मंदिर सबके लिए खुल गए हैं। सच है, जाति और लिंग के आधार पर भेदभाव खत्म हुआ है। लेकिन क्या इसका मतलब यह है कि हम अपनी विरासत को ही मिटा दें? 

स्थानीय वासियों को डर है कि वृंदावन कॉरिडोर, अपनी एयर-कंडीशंड सुविधाओं के साथ, तीर्थ को एक “मॉल” में बदल देगा। भक्त अब यहाँ श्रद्धा से नहीं, सेल्फी लेने आएँगे। क्या यही चाहते थे हमारे ऋषि-मुनि? 

क्या बचेगा वृंदावन में? 

आने वाले समय में वृंदावन एक विशाल कंक्रीट का जंगल बनकर रह जाएगा। यहाँ की मिट्टी की खुशबू, पक्षियों की चहचहाट और कुंज गलियों की शांति—सब खत्म हो जाएँगे। बचेगा तो सिर्फ एक खोखला ढाँचा, जहाँ भक्ति के नाम पर पैसा बटोरा जाएगा। 

यदि यही “विकास” है, तो यह विनाश से कम नहीं। ब्रज वृंदावन की आत्मा को बचाने का समय अब निकला जा रहा है।