‘यह सिर्फ मांग नहीं है, जिंदगी का सवाल है’

फोटोः विकास कुमार
फोटोः विकास कुमार

कौन

उत्तर प्रदेश की आशा बहू कार्यकर्ताएं

कब

07-14 अक्टूबर 2014

कहां

जंतर मंतर, नई दिल्ली

क्यों

‘हम और हमारी साथी आशा बहुएं सरकार की स्वास्थ्य योजना को गांव-देहात में लागू करवाती हैं. हम गली-देहात में भटक-भटक कर काम करती हैं और सरकार हमारी ही अनदेखी करने में लगी हुई है. सरकार के डॉक्टर देहात में जाना नहीं चाहते. जहां वो नहीं जाते या जाना नहीं चाहते वहां आशा बहुएं पहुंचती हैं. नवजात बच्चों और माताओं की देखभाल करती हैं. बालिका भ्रूण की हत्या रोकने में हम सरकार की मदद कर रही हैं. लेकिन इन आशा बहुओं की चिंता किसी को नहीं है. इतनी बड़ी संख्या में हम पिछले कई दिनों से यहां धरने पर बैठी है लेकिन किसी को कोई फर्क ही नहीं पड़ रहा,’ अपनी नाराजगी का इजहार करती सीमा सिंह वर्ष 2005 से आशा बहू कर्यकर्ता हैं. तब से लेकर आजतक वो अपने इलाके के हर गांव, हर टोले में घूम-घूम कर महिला और नवजात बच्चों के स्वास्थ्य की देखरेख कर रही हैं. आज सीमा सिंह के नेतृत्व में ही प्रदेश भर की आशा बहुएं दिल्ली के जंतर-मंतर पर जुटी हैं. इनकी मांगों को जानने से पहले यह जान लिया जाए कि इनकी नियुक्ति कैसे और किस आधार पर हुई. भारत सरकार ने साल 2005 में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य योजना के तहत ग्रामीण भारत में स्वास्थ्य सुविधाओं को बेहतर करने के लिए आशा बहू नियुक्त करने की शुरुआत की थी. भारत सरकार ने प्रति 1000 आबादी पर 1 आशा कार्यकर्ता रखने का लक्ष्य रखा है, लेकिन उत्तर प्रदेश में 1,139 लोगों पर एक आशा कार्यकर्ता है. आज की तारीख में उत्तर प्रदेश में 1,36,094  आशा बहू कार्यकर्ता  हैं, जो भारत में सबसे ज्यादा हैं. उत्तर प्रदेश की आशा कार्यकर्ताओं को कोई निश्चित मानदेय नहीं मिलता. अगर कोई कार्यकर्ता किसी गर्भवती महिला को प्रसव के लिए अस्पताल लेकर जाती है तो उसे 600 रुपये और बच्चों के टीकाकरण पर 150 रुपये मिलते हैं.

वहीं देश के कुछ दूसरे राज्यों में आशा बहू कार्यकर्ताओं को महीने में तय मानदेय दिया जाता है. इसी आधार पर उत्तर प्रदेश की आशा कार्यकर्ताएं मांग कर रही हैं कि उन्हें भी महीने में तय मानदेय दिया जाए. उन्हें शिक्षामित्र की तरह स्वास्थमित्र या स्वास्थ्य कार्यकर्ता का दर्जा दिया जाए. आजमगढ़ जिले के ठेकमा पंचायत में आशा कार्यकर्ता के तौर पर जुड़ी विभा राय का कहना है, ‘इसी देश में जब कई राज्य अपनी कार्यकर्ताओं को तय मानदेय दे रहे हैं  तो यूपी सरकार क्यों नहीं दे सकती. हम काम करती हैं तो अपना हक मांग रही हैं. कोई बिना वजह बात तो नहीं कर रहीं.’ विभा आगे बताती हैं, ‘अलग-अलग मदों में मिलने वाले अनुदान को अधिकारी आपस में ही बंदरबांट कर लेते हैं. हमें जो मिलता है वो बहुत कम होता है. हम दिन रात काम करती हैं, लेकिन हमंे सरकार से मानदेय तक नहीं मिलता. हम दूसरी महिलाओं के स्वास्थ्य की रिपोर्ट तैयार करती हैं लेकिन अपनी सेहत ठीक नहीं रख पाती हैं. नवजात बच्चों की देखरख का जिम्मा हमारा है. लेकिन हम अपने बच्चों के भविष्य के लिए एक पैसा नहीं जोड़ पाती हैं. अब बताइए ऐसे कैसे सुधरेगा देश का भविष्य? आशा कार्यकर्ता के बच्चे भी तो देश का भविष्य हैं. इनका ध्यान कौन रखेगा?’

गांव में स्वास्थ्य को लेकर जागरुकता फैला रही ये कार्यकर्ताएं अब अपनी मांग को लेकर मोर्चा खोल चुकी हैं. तय मानदेय के अलावा ये चाहती हैं कि आशा बहू कार्यकर्ता के जीवन की बीमा सरकार कराए ताकि अगर कल को ड्युटी के दौरान किसी कार्यकर्ता के साथ कोई दुर्घटना हो जाती है तो उसके परिवार को कुछ मदद मिल सके. अभी ऐसा कोई प्रावधान नहीं है.

चार दिन जंतर मंतर पर बैठने के बाद केंद्रीय स्वास्थ मंत्री ने इनसे बातचीत की है और विश्वास दिलाया कि अगर इनकी मांगे जायज हुई तो इन्हें पूरा करने की कोशिश की जाएगी. स्वास्थ्य मंत्री से मिले भरोसे के बाद फिलहाल जंतर मंतर का धरना स्थगित कर दिया गया है. लेकिन आशा कार्यकर्ताओं का कहना है कि अगर स्वास्थ्य मंत्री ने अगले कुछ महीनों में उनकी मांगों को लेकर कोई घोषणा नहीं की तो फिर से दिल्ली में धरना दिया जाएगा. जिला मऊ में बतौर आशा कार्यकर्ता काम करने वाली संजू सिंह कहती हैं, ‘ई केवल मांग नहीं है. ई हम कार्यकर्ताओं के लिए जिनगी(जिंदगी) का सवाल है इसलिए लड़ना तो पड़ेगा ही.’