दिल्ली अभी दूर है- देश की राजधानी दिल्ली में त्रिकोणीय मुक़ाबला

*किसी के लिए भी आसान नहीं एकतरफ़ा जीत

इंट्रो-आने वाली 05 फरवरी को दिल्ली में विधानसभा चुनाव के लिए मतदान होना है और उसके तीसरे दिन ही 08 फरवरी को चुनाव परिणाम घोषित हो जाएँगे। इस चुनाव में जीत किसकी होगी? इसका दावा तो नहीं किया जा सकता; लेकिन आम आदमी पार्टी को हराने की कोशिश में लगी भाजपा और कांग्रेस के लिए इस चुनावी जंग जीत पाना किसी पहाड़ पर चढ़ने से भी मुश्किल नज़र आ रहा है। इस बार मुश्किलें आम आदमी पार्टी की भी कम नहीं हैं; लेकिन उसकी सरकार के काम, उसकी मुफ़्त की योजनाएँ और इस बार के लिए जनता से किये जा रहे पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के वादे भाजपा और कांग्रेस के पसीने छुड़ाये हुए हैं। इसके चलते भाजपा और कांग्रेस को भी मुफ़्त योजनाओं के वादे करने पड़ रहे हैं। इस बार मतदान से पहले का दिल्ली का माहौल कैसा है? बता रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीति विश्लेषक के.पी. मलिक

देश की राजधानी दिल्ली में विधानसभा चुनाव का बिगुल फुँक चुका है। चुनाव आयोग ने बीते मंगलवार को केंद्रशासित प्रदेश दिल्ली में विधानसभा चुनाव की तारीख़ का ऐलान कर दिया है। दिल्ली में 70 सीटों के लिए विधानसभा चुनाव एक ही चरण में संपन्न कराया जाएगा। चुनाव आयोग के मुताबिक, दिल्ली विधानसभा चुनाव के लिए वोटिंग 05 फरवरी, 2025 को होगी। वहीं चुनाव का परिणाम 08 फरवरी, 2025 को आएगा। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि तक़रीबन पिछले छ: महीने से आम आदमी पार्टी चुनावी रणनीति तैयार कर रही थी और इसी के चलते जेल से छूटते ही अरविंद केजरीवाल ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा देकर आतिशी को मुख्यमंत्री बनाया था। वहीं भाजपा की अगर बात करें, तो उसने दिल्ली के 2025 के विधानसभा चुनाव जीतने की तैयारियाँ साल 2020 का दिल्ली का चुनाव हारने के बाद से ही शुरू कर दिया था; लेकिन कथित शराब घोटाले को हथियार बनाकर उसने चुनावी रुख़ बदलने की कोशिश शुरू कर दी थी।

इस बार का विधानसभा चुनाव अहम है। क्योंकि इससे एक तरफ़ जहाँ आप पार्टी दिल्ली में अपना वजूद बनाये रखने के लिए लड़ेगी, वहीं भाजपा और कांग्रेस अपनी खोई हुई ज़मीन दोबारा से हासिल करने की कोशिश करेंगी। दोनों ही पुरानी पार्टियों के लिए इस चुनाव में जीत या कम-से-कम बढ़त बनाना इसलिए ज़रूरी है, क्योंकि दोनों को अपनी खोई हुई ज़मीन वापस पानी है। भाजपा के लिए ये सबसे ज़्यादा अहम है, क्योंकि पूरे देश में अपनी अलग छाप छोड़ने वाले प्रधानमंत्री मोदी की दाल दिल्ली में नहीं गल पाती है, जबकि 2014 के बाद से सभी लोकसभा और विधानसभा के चुनाव उन्हीं के चेहरे पर लड़े जाते रहे हैं। इसी के चलते दोनों पार्टियाँ इस बार पहले से ज़्यादा ताक़त झोंक रही हैं। आम आदमी पार्टी को अपनी सत्ता बचाने की लड़ाई इस बार और ताक़त से लड़नी होगी। ऐसे में दिल्ली की इन तीनों अहम राजनीतिक पार्टियों के लिए यह चुनाव बहुत महत्त्वपूर्ण है।

दरअसल, लोकसभा चुनाव से लेकर कई राज्यों, ख़ासतौर पर हाल में ही हरियाणा और महाराष्ट्र में प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे पर चुनाव जीतने का दम्भ भाजपा को रहा है। हालाँकि यह अलग बात है कि न तो इस बार साल 2024 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी का जादू पहले की तरह सब वोटर्स से सिर पर चढ़कर बोल सका और न ही उनका जादू झारखण्ड और जम्मू-कश्मीर में ही चल सका। दिल्ली में भी प्रधानमंत्री मोदी का कोई जादू पिछले 10 साल से नहीं चल रहा है। इस बात का दर्द प्रधानमंत्री मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और दूसरे भाजपाई नेताओं को है। इसलिए उन्होंने इस बार मैदान में उतरकर दिल्ली में पहले से ज़्यादा रैलियाँ और जनसभाएँ करने का बीड़ा उठाया है। उनके साथ-साथ उनके सबसे क़रीबी और केंद्र की सत्ता में भी दूसरे नंबर के सबसे ज़्यादा ताक़तवर देश के गृहमंत्री अमित शाह और पूरी भाजपा लॉबी आम आदमी पार्टी के अध्यक्ष अरविंद केजरीवाल के ख़िलाफ़ मैदान में कूद गयी है; यहाँ तक कि उपराज्यपाल भी मैदान में हैं, जो संवैधानिक रूप से ग़लत है। भाजपा ने मोदी के लिए एक कहावत बनायी थी कि शेर अकेला चलता है, यहाँ उलटी पड़ती दिख रही है और यहाँ दिल्ली में शेर केजरीवाल हैं।

बता दें कि भाजपा साल 1998 से दिल्ली सरकार की सत्ता से बाहर है। साल 2022 में आम आदमी पार्टी ने उसे दिल्ली नगर निगम की सत्ता से भी बाहर कर दिया। अपनी इस हार का बदला भाजपा के नेतृत्व में बनी केंद्र सरकार ने इसका बदला दिल्ली सरकार की ज़्यादातर ताक़तें छीनकर तो लीं और सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बावजूद दिल्ली का बॉस उप राज्यपाल को घोषित कर दिया; लेकिन दिल्ली की जनता के दिल में वो अरविंद केजरीवाल की तरह जगह बनाने में अभी भी नाकाम हैं। और दिल्ली की जनता के दिल में जगह बनाने की जगह उनके नेता कभी दिल्ली की जनता को मुफ़्तख़ोर कहते रहे हैं, तो कभी ग़रीब। लेकिन वे भूल जाते हैं कि लोकसभा चुनाव में यही दिल्ली की जनता उन्हें एकतरफ़ा जीत दो बार दिला चुकी है। तो ये खेल दिल्ली विधानसभा और दिल्ली लोकसभा का है, जिसमें लोगों को दिल्ली में केजरीवाल और केंद्र में मोदी को पहली पसंद बताते या मानते देखा जाता है।

बहरहाल, दिल्ली में भाजपा की आख़िरी मुख्यमंत्री सुषमा स्वराज थीं, जो अब इस दुनिया में नहीं हैं। वह साल 1998 में महज़ 52 दिन तक मुख्यमंत्री रह सकी थीं। इससे पहले भाजपा ने दिल्ली में बीजेपी ने 1993 में पहली बार सत्ता का स्वाद चखा था। लेकिन इसी बीच दिल्ली में साल 1996 में प्याज के दाम आसमान छूने लगे और लोगों को शान्त करने के लिए पहले भाजपा संगठन ने मुख्यमंत्री  मदन लाल खुराना को हटाकर साहिब सिंह वर्मा को मुख्यमंत्री बना दिया; लेकिन जब हालात बदलते नहीं दिखे और साल 1998 के दिल्ली विधानसभा के चुनाव सिर पर आ गये, तो भाजपा संगठन ने आख़िरकार चुनाव से 50 दिन पहले एक निर्विरोध, साफ़-स्वच्छ और तेज़तर्रार छवि की माने जानी वाली सुषमा स्वराज को मुख्यमंत्री बना दिया।

कांग्रेस ने भाजपा के इस चेहरे की काट के लिए शीला दीक्षित को मैदान में उतार दिया। शीला दीक्षित उत्तर प्रदेश की बहू और पंजाब की बेटी थीं। बस पूरा चुनाव उलट गया और कांग्रेस ने उनके चेहरे पर साल 1998, साल 2003 और साल 2008 के विधानसभा चुनावों में जीत हासिल करके 15 साल तक शासन किया। साल 2012 में अन्ना आन्दोलन ने कांग्रेस को कमज़ोर किया और उसी आन्दोलन से अरविंद केजरीवाल निकलकर आये। उनकी बनायी आम आदमी पार्टी साल 2013 में दूसरी सबसे बड़ी क्षेत्रीय पार्टी बनकर उभरी। उस समय दिल्ली की 70 सीटों में से 31 सीटें भाजपा ने जीती थीं, क्योंकि कांग्रेस के ख़िलाफ़ पूरे देश में एक माहौल बन चुका था और उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम भी प्रधानमंत्री पद के लिए एक साफ़-सुथरी छवि के रूप में वायरल होने लगा था। लेकिन इस बदलाव के बीच अरविंद केजरीवाल ने अचानक मैदान में उतरकर 28 सीटें जीत लीं और कांग्रेस महज़ आठ सीटों पर जीत हासिल की। तीन सीटों पर निर्दलीय जीते। दिल्ली में सरकार बनाने के लिए किसी भी पार्टी को कम-से-कम 36 सीटें चाहिए और भाजपा इतनी सीटें जुटाने में कामयाब नहीं हो सकी। इसके चलते कांग्रेस ने आम आदमी पार्टी की इस शर्त पर सरकार बनाना उचित समझा कि मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल होंगे। लेकिन 49 दिन की सरकार चलाकर अरविंद केजरीवाल ने यह कहकर इस्तीफ़ा दे दिया कि कांग्रेस लोकपाल बिल नहीं लाने दे रही है।

बहरहाल, राष्ट्रपति शासन लागू हुआ और तक़रीबन दो साल बाद साल 2015 में जब विधानसभा चुनाव हुए, तो आम आदमी पार्टी ने 70 में 67 सीटों पर बंपर जीत हासिल करके अपनी सरकार बनायी और भाजपा को इस चुनाव में जहाँ महज़ तीन सीटें मिलीं, वहीं कांग्रेस शून्य हो गयी। यह पहली बार था कि दिल्ली में एक भी निर्दलीय उम्मीदवार चुनाव नहीं जीत सका। तक़रीबन यही दोहराव साल 2020 के दिल्ली के विधानसभा चुनाव में हुआ। लेकिन इस साल आम आदमी पार्टी की 62 सीटें रह गयीं, आठ सीटें भाजपा को मिलीं और कांग्रेस फिर से शून्य पर रह गयी। कांग्रेस फिर शून्य पर रह गयी और कोई निर्दलीय उम्मीदवार भी नहीं जीत सका। साल साल 2013 से 2020 के बीच भाजपा को पाँच फ़ीसदी वोट ज़्यादा कुल 32.19 फ़ीसदी मिले। वहीं भाजपा का वोट शेयर भी बढ़कर 38.51 के क़रीब पहुँच गया; लेकिन सीटें 31 से आठ ही रह गयीं। इसकी वजह ये रही कि साल 3013 में कांग्रेस का वोट फ़ीसद भी ज़्यादा था और साल 2020 में आम आदमी पार्टी का वोट फ़ीसद भी बढ़ा। उसे जहाँ साल 2013 में 29.70 फ़ीसदी वोट मिले, वहीं साल 2015 में 54.5 फ़ीसदी वोट मिले और साल 2020 में 53.8 फ़ीसदी वोट ही मिले। लेकिन कांग्रेस इन दोनों ही चुनावों में बहुत कम फ़ीसदी वोट हासिल कर सकी। इस बार भी आम आदमी पार्टी के पास 18 फ़ीसदी स्विंग वोटर्स यानी ग़रीब तबक़े का वोटर है, जिसका काट भाजपा और कांग्रेस के पास नहीं है।

दिल्ली केंद्र शासित राज्य है और यहाँ की चुनी हुई सरकार को उतने अधिकार नहीं हैं, जितने कि दूसरी राज्य सरकारों के पास हैं। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की केजरीवाल सरकार और केंद्र में एनडीए की मोदी सरकार में साल 2015 से ही तकरार और तनाव चल रहा है; लेकिन यह तकरार साल 2020 से दिल्ली में आम आदमी की सरकार बनने के बाद से और बढ़ गया। इससे पहले साल 2019 में भाजपा की मज़बूत वापसी के बाद जब नरेंद्र मोदी दोबारा देश के प्रधानमंत्री बने और साल 2014 में पार्टी के अध्यक्ष बने अमित शाह देश के गृह मंत्री बने, तो दिल्ली और केंद्र सरकारों के बीच तकरार बढ़ना स्वाभाविक था। प्रधानमंत्री मोदी के बारे में एक मान्यता है कि जहाँ वो खड़े होते हैं, वहाँ किसी और के लिए जगह ही नहीं छोड़ी जाती, विरोधियों के लिए तो बिलकुल भी नहीं। इस तकरार में दिल्ली सरकार की शक्तियाँ छीनने से लेकर राजनीतिक छींटाकशी और दिल्ली सरकार के प्रमुख चेहरों को कथित शराब घोटाले के नाम पर जेल भेजने तक का क्रम चला; लेकिन आख़िरकार राजनीति और वोट बैंक की धुरी दिल्ली में काम को लेकर ही टिकी हुई है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल दिल्ली की जनता से यह कहने की हिम्मत रखते हैं कि उन्होंने अगर काम किया हो, तो उन्हें वे वोट दें। वहीं प्रधानमंत्री मोदी से लेकर भाजपा के तमाम नेता सिर्फ़ और सिर्फ़ आम आदमी पार्टी की सरकार और पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पर कीचड़ उछालने के अलावा अपना कोई नैरेटिव सेट नहीं कर सके हैं।

दिल्ली में किसी भी पार्टी के लिए इस बार एकतरफ़ा चुनावी जीत आसान नहीं है। इस बार के चुनाव में कांग्रेस और भाजपा अपनी वापसी के लिए जद्दोजहद कर रही हैं, तो आम आदमी पार्टी सत्ता बचाने की कोशिश में है। दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी प्रमुख केजरीवाल को नई दिल्ली विधानसभा सीट पर इस बार सबसे कड़ी टक्कर मिल सकती है। भाजपा और कांग्रेस के नेता उन्हें उनके सरकारी आवास के सौंदर्यीकरण और साफ़-सफ़ाई आदि मुद्दों पर घेर रहे हैं। भ्रष्टाचार और सड़क व्यवस्था पर भी दोनों पार्टियाँ आप सरकार को घेर रही हैं।

बहरहाल, भाजपा और कांग्रेस इस बार दिल्ली जीतने के लिए कड़ी रणनीति बना रही हैं। दोनों पार्टियाँ आम आदमी पार्टी के द्वारा सभी 70 सीटों पर उम्मीदवार घोषित करने के बाद अपने उम्मीदवार आम आदमी पार्टी के चेहरों की ताक़त के हिसाब से उतार रही हैं। भाजपा दिल्ली में कम-से-कम हरियाणा जैसे बहुमत को पाना चाहती है। हरियाणा और महाराष्ट्र जीतने के बाद उसके तेवर भी बदले हैं और साहस भी; लेकिन समस्या यह है कि भाजपा के पास दिल्ली में अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया जैसे मज़बूत चेहरे नहीं हैं। इसलिए भाजपा अपने पूर्व मुख्यमंत्री साहिब सिंह वर्मा के बेटे प्रवेश वर्मा को सबसे मज़बूत चेहरा मानकर उन्हें केजरीवाल के ख़िलाफ़ नई दिल्ली विधानसभा सीट से उतार रही है। यही स्थिति कांग्रेस की भी है। उसके पास भी दिल्ली में नेतृत्व की कमी है। अजय माकन के नेतृत्व में दिल्ली में कांग्रेस को कुछ भी हासिल नहीं हुआ, इसलिए उसने भी शीला दीक्षित के बेटे संदीप दीक्षित पर ही केजरीवाल के ख़िलाफ़ दाँव खेला है। लेकिन भाजपा के पास न सिर्फ़ प्रचार तंत्र सबसे बड़ा है, बल्कि आईटी सेल, जो अपने नेताओं की तरह ही झूठ फैलाने में माहिर है, बल्कि संघ की ताक़त भी है। इसके अलावा चुनाव आयोग, ईडी, सीबीआई और एक बड़ा लालफीताशाही का तबक़ा उसकी मुट्ठी में है। वहीं दूसरी तरफ़ आम आदमी पार्टी के पास सिर्फ़ तीन-चार मज़बूत चेहरे हैं।

दिल्ली में आम आदमी पार्टी की केजरीवाल सरकार और केंद्र में एनडीए की मोदी सरकार में साल 2015 से ही तकरार और तनाव चल रहा है; लेकिन यह तकरार साल 2020 से दिल्ली में आम आदमी की सरकार बनने के बाद से और बढ़ गया। इससे पहले साल 2019 में भाजपा की मज़बूत वापसी के बाद जब नरेंद्र मोदी दोबारा देश के प्रधानमंत्री बने और साल 2014 में पार्टी के अध्यक्ष बने अमित शाह देश के गृह मंत्री बने, तो दिल्ली और केंद्र सरकारों के बीच तकरार का बढ़ना स्वाभाविक था। प्रधानमंत्री मोदी के बारे में एक मान्यता है कि जहाँ वो खड़े होते हैं, वहाँ किसी और के लिए जगह ही नहीं छोड़ी जाती, विरोधियों के लिए तो बिलकुल भी नहीं।

इस तकरार में दिल्ली सरकार की शक्तियाँ छीनने से लेकर राजनीतिक छींटाकशी और दिल्ली सरकार के प्रमुख चेहरों को कथित शराब घोटाले के नाम पर जेल भेजने तक का क्रम चला; लेकिन आख़िरकार राजनीति और वोट बैंक की धुरी दिल्ली में काम को लेकर ही टिकी हुई है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल दिल्ली की जनता से यह कहने की हिम्मत रखते हैं कि उन्होंने अगर काम किया हो, तो उन्हें वे वोट दें। वहीं प्रधानमंत्री मोदी से लेकर भाजपा के तमाम नेता सिर्फ़ और सिर्फ़ आम आदमी पार्टी की सरकार और पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पर कीचड़ उछालने के अलावा अपना कोई नैरेटिव सेट नहीं कर सके हैं। कांग्रेस के पास न कोई विजन है और न ही वो अभी तक कोई बड़ा नैरेटिव सैट नहीं कर सकी है। उसके पास अपनी वापसी के इंतज़ार और चंद वादों के अलावा ज़्यादा कुछ नहीं है। हालाँकि इस चुनाव में दूसरे चुनावों की तरह ही पार्टियों के बीच छींटाकशी का दौर इस क़दर हावी हो गया है कि चुनाव मुद्दों से भटक गया है। भाजपा ने अपने परंपरागत तरीक़े से इस चुनाव को मुद्दों से भटकाया है, तो अब कांग्रेस भी उसी रास्ते पर चलती दिख रही है।

आम आदमी पार्टी की मज़बूती

राजनीतिक गलियारों में ऐसी चर्चा है कि भाजपा के लिए आम आदमी पार्टी के ख़िलाफ़ मुक़ाबला कठिन है। उसके अपने सर्वे की रिपोर्ट में भी आम आदमी पार्टी की सरकार बन रही है। क्योंकि झुग्गी-झोंपड़ियों, अनधिकृत कॉलोनियों, अल्पसंख्यक बहुल क्षेत्रों के अलावा निम्न मध्यम वर्गीय इलाक़ों में तो आम आदमी पार्टी का मज़बूत समर्थन आधार है ही, उच्च वर्गीय लोगों में भी काफ़ी वोट बैंक है। लेकिन भाजपा का वोट बैंक सिर्फ़ उसका मज़बूत आधार वोटर और कुछ उच्च वर्गीय, मध्यम वर्गीय लोगों तक ही सीमित है। यही वजह है कि इस बार भाजपा उन जगहों पर ज़्यादा प्रचार-प्रसार में जुटी है, जहाँ आम आदमी पार्टी का मज़बूत वोट बैंक है।

आम आदमी पार्टी के पास दिल्ली में किये हुए काम हैं, जिसमें दिल्ली की जनता को देने के लिए अस्पतालों, स्कूलों, फ्लाईओवर, सीवर, पानी की पाइपलाइन, वाटर हार्वेस्टिंग टैंक, तालाबों-झीलों में सुधार, फुटपाथों, पार्कों, सड़कों में सुधार की व्यवस्था के अलावा मुफ़्त की सुविधाओं का एक पिटारा है, जिसमें अब तीन नये वादे जुड़ गये हैं। एक दिल्ली की हर महिला को 2,100 रुपये महीने का भुगतान का वादा, दूसरा दिल्ली के मंदिरों के पुजारियों, गुरुद्वारों के पंथियों के लिए 18-18 हज़ार रुपये महीने के वेतन का वादा और तीसरा आरडब्लूए (RWA,s) के सिक्योरिटी गार्ड रखने के लिए दिल्ली सरकार द्वारा वेतन दिये जाने का वादा। ये सब आम आदमी पार्टी के लिए लाभदायक साबित होने की उम्मीद है। लेकिन हरियाणा और महाराष्ट्र में उसकी हार, कथित शराब घोटाले का मामला, भाजपा का प्रचार तंत्र, घेराव, उसकी सरकार के ख़िलाफ़ चल रही मुहिम और लोगों में लंबे समय के बाद जैसा कि किसी भी पार्टी के ख़िलाफ़ एक मन बनने लगता है, वो सब आम आदमी पार्टी के लिए मुश्किलों में डाल सकते हैं।

अगर राजनीति की बात करें, तो केजरीवाल देश के दूसरे ऐसे नेता कहे जा सकते हैं, जो प्रधानमंत्री मोदी के खुले और कट्टर विरोधी के रूप में खुलकर सामने हैं। वह राजनीतिक नब्ज़ को बहुत तेज़ी से पकड़ते हैं और भाजपा को उनकी काट ढूँढने में पसीने छूट रहे हैं। अरविंद केजरीवाल की चुनौतियाँ और चुभते हुए हमले इतने तीखे होते हैं कि भाजपा का कोई नेता तो दूर, ख़ुद प्रधानमंत्री भी उन्हें चुनौती देने का साहस नहीं जुटा पाते। पिछले चार-पाँच साल में केजरीवाल के इन्हीं हमलों और चुनौतियों के चलते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लगातार इस राजनीतिक लड़ाई में ख़ामोश रहना पड़ा। केजरीवाल जहाँ लगातार प्रेस कॉन्फ्रेंस करके सवालों के जवाब देते रहे हैं, वहीं प्रधानमंत्री मोदी ने अभी तक एक भी प्रेस कॉन्फ्रेंस ऐसी नहीं की है, जहाँ उन्होंने जनता या देश से सम्बन्धित जवाब दिये हों। उनका काम विज्ञापनों और भाषणों में अपनी वाहवाही करके और दूसरी पार्टियों को कोसकर चले जाना है। दूसरी तरफ़ अरविंद केजरीवाल की योग्यता भी दूसरे ज़्यादातर नेताओं, ख़ासतौर पर भाजपा के ज़्यादातर नेताओं से ज़्यादा है।

इस पर दिल्ली चुनाव से पहले ही आम आदमी पार्टी के द्वारा की जाने वाली घोषणाएँ और पार्टी प्रमुख व दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के द्वारा सबसे ज़्यादा प्रेस कॉन्फ्रेंस करने से वह अभी भी जीत के सबसे क़रीब माने जा रहे हैं। अरविंद केजरीवाल भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी द्वारा उन पर लगाये जा रहे आरोपों को लेकर भी प्रधानमंत्री मोदी को खुली प्रेस कॉन्फ्रेंस की चुनौती देते फिर रहे हैं, जिसका कि भाजपा को कोई जवाब देते नहीं बन रहा है।

ज़्यादातर राजनीतिक जानकारों का मानना है कि अरविंद केजरीवाल हमेशा गहरी और भविष्यवाणी वाली राजनीति भी करते हैं। वह पहले से ही बता देते हैं कि भाजपा आगे क्या करेगी। जिस प्रकार से उन्होंने साल 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले ही बता दिया था कि अगर देश में भाजपा की सरकार बनती है, तो अमित शाह गृह मंत्री बनेंगे, उसी प्रकार से इस बार उन्होंने भाजपा नेता रमेश बिधूड़ी का नाम लेकर कहा है कि अगर दिल्ली में भाजपा जीतती है, तो रमेश बिधूड़ी को मुख्यमंत्री बनाएगी। और रमेश बिधूड़ी की बदतमीजी के बारे में कौन नहीं जानता? संसद से सड़क तक उनकी भाषा गली के गुंडों वाली ही रही है, जिसे लेकर चुनाव आयोग को इस बार कहना पड़ा कि ग़लत भाषा का इस्तेमाल करने वालों को बख़्शा नहीं जाएगा।

भाजपा की कोशिश

भाजपा दिल्ली में वापसी की कोशिश तो कर रही है; लेकिन उसके नेताओं की भाषा, यहाँ तक कि प्रधानमंत्री की भाषा, झूठ का तंत्र और बिना विजन की राजनीति दिल्ली के लोगों को कम ही प्रभावित कर पा रही है। ऐसा माना जा रहा है कि दिल्ली में भाजपा को पहले से भी ज़्यादा सीटें तो मिल सकती हैं; लेकिन सत्ता तक पहुँच बना पाना अभी उसके लिए संभव नहीं है। हालाँकि भाजपा के बारे में कहा जाता है कि उसके लिए कोई लक्ष्य पाना कठिन नहीं होता, क्योंकि वो साम, दाम, दंड और भेद की रणनीति अपनाते हुए किसी भी सत्ता तक पहुँचती है। और इस बार उसके ऊपर विपक्षी समर्थकों के वोट काटने, लोगों को पैसे बाँटने जैसा संगीन आरोप लग भी चुका है। यह अलग बात है कि इस पर चुनाव आयोग भाजपा के प्रति अपनी वफ़ादारी निभाते हुए ख़ामोशी से बैठा है। वो ख़ुद भाजपा विरोधी वोट काटने के आरोपों से घिरा है; लेकिन इस पर भी ख़ामोश है। ऐसा कहा जा रहा है कि भाजपा केजरीवाल के मज़बूत वोट बैंक में सेंध लगाना चाहती है; लेकिन ये उसके लिए आसान नहीं होगा। तमाम तरह की कोशिशों और सही-ग़लत विज्ञापनों से जब बात नहीं बनी, तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आम आदमी पार्टी को आप-दा कह दिया। और नारा दे दिया कि ‘आप दा नहीं सहेंगे, बदल कर रहेंगे।’ लेकिन इसका असर भी उलटा होता दिख रहा है।

भाजपा के वरिष्ठ नेता लगातार दिल्ली में अपनी जीत की कोशिशें कर रहे हैं और इसके लिए अब प्रधानमंत्री मोदी, गृह मंत्री अमित शाह, भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा से लेकर हर छोटा-बड़ा नेता और हर कार्यकर्ता जी-जान से दिल्ली चुनाव में जुटा है। सभी बड़े नेता हर क्षेत्र की रिपोर्ट लेने के अलावा हर विधानसभा क्षेत्र में अपनी भाजपा की ज़मीन टटोल रहे हैं कि वह कितनी मज़बूत है। लेकिन भाजपा कुछ ऐसे दलों को दिल्ली चुनाव में उतार रही है, जो आम आदमी पार्टी का वोट फ़ीसद कम करने का काम करें। मसलन, महाराष्ट्र के रामदास अठावले की पार्टी रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया, नीतीश कुमार की पार्टी जद(यू), असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन और भी कुछ ऐसी ही पार्टियाँ कहीं न कहीं भाजपा को जिताने के लिए इस बार मैदान में है। चंद्रशेखर आज़ाद ‘रावण’ की पार्टी आज़ाद समाज पार्टी (कांशी राम) भी इस बार दिल्ली से मैदान में है। मायावती तो पहले से ही दिल्ली के चुनावों में हाथ आजमाती रही है।

कांग्रेस की स्थिति

कांग्रेस के पास इस बार भी खोने के लिए कुछ नहीं है; लेकिन पाने के लिए बहुत कुछ है। जीत के किसी लक्ष्य तक वह भले ही नहीं पहुँच रही हो; लेकिन इस बार वह दिल्ली के पिछले दो विधानसभा चुनावों से ज़्यादा सक्रिय दिख रही है। हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव हारने, जम्मू-कश्मीर और झारखण्ड में थोड़ा सही प्रदर्शन करने के बाद वह दिल्ली में ज़ोर आजमाइश इसी मंशा से कर रही है कि दिल्ली में उसकी ज़मीन पहले से ज़्यादा मज़बूत हो और दिल्ली विधानसभा में अपनी उपस्थिति दर्ज करा सके। लेकिन इस बार भी उसका यह सपना कितना साकार होगा, कितना नहीं, यह अभी से नहीं कहा जा सकता, क्योंकि दिल्ली में कांग्रेस अभी भी तीसरी पार्टी के रूप में ही नज़र आ रही है। कांग्रेस ने सबसे बड़ा दाँव शीला दीक्षित के बेटे संदीप दीक्षित को अरविंद केजरीवाल के ख़िलाफ़ नई दिल्ली विधानसभा सीट से उतारकर खेला है।

कड़ी टक्कर वाली सीटें

आम आदमी पार्टी को इस बार सबसे ज़्यादा ध्यान बड़े चेहरों की विधानसभा सीटों पर देना होगा, जिसमें नई दिल्ली विधानसभा क्षेत्र की पार्टी के संयोजक, पार्टी अध्यक्ष और दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की है। क्योंकि इस सीट के बड़े दावेदारों में भाजपा उम्मीदवार प्रवेश वर्मा, जिन्हें आजकल उनके पिता के नाम की पहचान बनाने के लिए प्रवेश साहिब सिंह वर्मा लिखा जा रहा है और कांग्रेस के उम्मीदवार संदीप दीक्षित भी हैं। दूसरी सीट जंगपुरा की है, जहाँ से इस बार मनीष सिसोदिया मैदान में और इस सीट पर भाजपा की बड़ी दावेदारी है। जंगपुरा सीट पर भाजपा के उम्मीदवार तरविंदर सिंह मारवाह और कांग्रेस के उम्मीदवार फ़रहाद सूरी मैदान में हैं। तीसरी बिजवासन विधानसभा सीट पर आम आदमी पार्टी को चुनौती मिल सकती है, जहाँ से कैलाश गहलोत, जो कि दिल्ली सरकार में परिवहन मंत्री रहे हैं और पिछले दिनों वो दलबदल करके भाजपा में कूद गये थे, भाजपा उम्मीदवार के रूप में मैदान में हैं। वहीं आम आदमी पार्टी की तरफ़ से सुरेंद्र भारद्वाज और कांग्रेस की तरफ़ से देवेंद्र सहरावत इस सीट से मैदान में हैं।

चौथी चुनौतीपूर्ण सीट पटपड़गंज विधानसभा की है, जहाँ से पिछले दो चुनाव दिल्ली के पूर्व उपमुख्यमंत्री, पूर्व वित्त मंत्री और अन्य कई विभागों को सँभाल चुके मनीष सिसोदिया जीत दर्ज कर चुके हैं। लेकिन इस बार आम आदमी पार्टी ने बेबाक राय रखने वाले आएएस, आईपीएस जैसे प्रतिष्ठित पदों की कोचिंग देने वाले अध्यापक अवध ओझा मैदान में है, जो कि सोशल मीडिया पर ख़ासे चर्चित हैं। उनके विरोध में भाजपा ने रविंद्र सिंह नेगी और कांग्रेस ने चौधरी अनिल कुमार को मैदान में उतारा है। आम आदमी पार्टी के लिए पाँचवीं सबसे चुनौतीपूर्ण सीट है कालकाजी विधानसभा, जहाँ पर दिल्ली की वर्तमान मुख्यमंत्री आतिशी मार्लेना मैदान में हैं। आतिशी बिलकुल बेदाग़ छवि की नेता हैं; लेकिन उन्हें चुनौती देने के लिए भाजपा ने इस विधानसभा सीट से रमेशी बिधूड़ी को मैदान में उतारा है, तो कांग्रेस ने अलका लांबा को इस सीट से टिकट दिया है।

केजरीवाल को कई पार्टियों का समर्थन

दिल्ली चुनाव आते-आते इंडिया गठबंधन टूट गया है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी ने, समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष व उत्तर प्रदेश की सैफई सीट से सांसद अखिलेश यादव ने, शिवसेना (यूटीबी) ने और रालोप प्रमुख हनुमान बेनीवाल ने दिल्ली की जनता से अरविंद केजरीवाल के पक्ष में वोट करने की अपील की है। इसी बीच कांग्रेस ने इंडिया गठबंधन तोड़ने की घोषणा करते हुए कह दिया है कि यह गठबंधन सिर्फ़ लोकसभा चुनाव के लिए था। दिल्ली चुनाव पर इंडिया गठबंधन टूटने का भी असर हर हाल में पड़ेगा।

चुनाव के बीच ईडी कस रही शिकंजा

इस चुनाव में सबसे अहम मोड़ अब यह आ गया है कि आम आदमी पार्टी के नेताओं पर मुक़दमा चलाने की अनुमति एक बार फिर केंद्रीय गृह मंत्रालय ने ईडी यानी प्रवर्तन निदेशालय को दे दी है। ज़ाहिर है कि केंद्र सरकार के इशारे पर नाच रही सुप्रीम कोर्ट से जमानत पा चुके पूर्व मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी प्रमुख अरविंद केजरीवाल समेत मनीष सिसोदिया, सत्येंद्र जैन और संजय सिंह के ख़िलाफ़ दिल्ली शराब नीति मामले से जुड़े मनी लॉन्ड्रिंग मामले में पीएमएलए के तहत मुक़दमा चला सकती है। ईडी को मुक़दमा चलाने की मंज़ूरी तो पहले से ही मिली हुई है; लेकिन केंद्रीय गृह मंत्रालय ने चुनाव के दौरान इस प्रकार की मंज़ूरी देकर आम आदमी पार्टी को घेरने के लिए मुक़दमा चलाने को ईडी को निर्देश दिया है, जब केजरीवाल और उनकी पार्टी के बड़े नेता पूरे ज़ोर-शोर से प्रचार-प्रसार में लगे हैं। तमाम सही-ग़लत मुद्दों पर आम आदमी पार्टी को घेरने वाली भाजपा और कांग्रेस को अब इस गरमागरम मुद्दे को भुनाने का अवसर मिल सकता है। यह पहली बार हुआ है कि लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष और कांग्रेस सांसद राहुल गाँधी ने भाजपा से ज़्यादा आम आदमी पार्टी पर हमले शुरू कर दिये हैं।

हालाँकि अरविंद केजरीवाल अब तक तमाम राजनीतिक और क़ानूनी घेरेबंदी से निकलने में कामयाब रहे हैं; लेकिन अगर उन्हें ईडी ने दोबारा शिकंजे में लिया, तो क्या वह बच पाएँगे? क्योंकि उन्होंने बेशक क़ानूनी और राजनीतिक मजबूरियों के चलते दिल्ली के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आतिशी को बैठाकर अपने राजनीतिक विरोधियों, ख़ासतौर पर भाजपा और कांग्रेस को हमले करने से रोका और उन्हें नयी रणनीति बनाने के लिए मजबूर कर दिया; लेकिन अब ईडी की आगे की कार्रवाई के चलते उनका दोबारा घेराव आसान हो गया है। क्योंकि ईडी की इस कार्रवाई का विधानसभा चुनाव पर असर तो पड़ेगा ही, आम आदमी पार्टी पर भी असर पड़ सकता है। सवाल यह है कि अगर अरविंद केजरीवाल फिर से चुनाव जीत जाते हैं और उनकी पार्टी दोबारा सत्ता में आ जाती है, तो क्या वह दोबारा दिल्ली के मुख्यमंत्री बन पाएँगे? क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें जमानत देते समय विधानसभा न जाने और किसी भी सरकारी दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर न करने की हिदायत दी थी। ऐसे में अगर उनकी पार्टी की सरकार बनती भी है और केजरीवाल भी जीत जाते हैं, तो उन्हें सुप्रीम कोर्ट की इजाज़त लेनी पड़ेगी। और अगर इस बीच ईडी ने उनके गले में फंदा कस दिया, तो उनके लिए यह एक नयी मुसीबत होगी।