यह पुराना सवाल है लेकिन जरूरी भी कि उत्तर प्रदेश की तर्ज पर बिहार में दलित राजनीति अपने समूह के लिए अलग मजबूत नेतृत्व या राजनीति की तलाश क्यों पूरा नहीं कर सकी जबकि इसकी संभावनाओं के बीज मौजूद हैं. वैसे इसके ऐतिहासिक, सामाजिक और आर्थिक कारण रहे हैं. ऐतिहासिक कारण यह कि दलित राजनीति आम्बेडकर के विचारों से चल सकती है और बिहार में आम्बेडकर के विचारों को आने ही नहीं दिया गया. यहां के दलितों को शुरू से ही गांधी टोपी पहनाकर रखा गया, जिसका असर दिखता है. सामाजिक कारण यह है कि बिहार बंगाल के सूबे से निकला. यहां जमींदारी प्रथा लागू हुई थी. यानी किसानों को लगान जमींदारों को देना पड़ता था. जमींदार सामंत हो गए, सामंती प्रवृत्ति वाले हो गए. अधिकांश ऊंची जातियों के रहे. दूसरी ओर उत्तर प्रदेश में रैयतदारी की परंपरा आई थी. यानी लगान सीधे सरकार को देना पड़ता था. बीच में जमींदार नहीं थे. जमींदारी प्रथा ने बिहार को वर्षों जकड़े रखा. उसका असर अब भी है. इस परंपरा में दलितों का उभार इतना आसान नहीं था.
एक और कारण शैक्षणिक और आर्थिक है. 1924 में आम्बेडकर ने अंग्रेज गवर्नर जनरल से कहा था कि आप दो काम कर दीजिए. आप हमारे समाज के लोगों यानी अछूतों को जमीन दे दीजिए और अछूत पाठशाला खुलवा दीजिए. ऐसी पाठशाला, जो दलित बस्ती में हो, शिक्षक भी उसमें दलित ही हों. यह काम उत्तर प्रदेश में हुआ. उसी दलित पाठशाला से मैं पढ़ा और बाद में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एमए किया, एलएलबी का टॉपर बना. बिहार के लोग इससे वंचित रहे. या कहें उन्हें सिर्फ गांधी टोपी के जाल में फंसाकर रखा गया. तो इसका असर लंबे समय तक रहेगा. अब ऐसे समाज पर प्रभावी वर्ग आसानी से अपना अधिकार भी जमा लेता है और प्रभावी दल ऐसे लोगों को खरीद भी लेते हैं. बिहार में वही होता है. इसलिए दलित गुलामी वाली मानसिकता से अभी निकल नहीं सके हैं. दूसरी बात यह कही जाती है कि मंडल के तो 25 साल हो गए, इतने सालों में तो ऐसा होना चाहिए था. हां सही है कि मंडल के 25 साल हो गए लेकिन मंडल का क्रेडिट भी दूसरे को दे दिया गया था जबकि इसकी बुनियाद खुद आम्बेडकर साहब ने रखी थी. पिछड़ों को आरक्षण देने की बात पहली बार उन्होंने ही की थी. संविधान की धारा 340 से 342 तक में आरक्षण का प्रावधान किया. लेकिन उसी समय जब बाबा साहब ने यह बात कही तो पिछड़ा वर्ग के ही कुछ मशहूर नेताओं ने इसका विरोध किया. गांधीवाद को फैलाने के लिए तब पिछड़ी जाति के नेताओं में ही जनेऊ बांटने की शुरुआत हो गई या कहिए कि करवा दी गई. पिछड़ी जाति के लोग क्षत्रिय बनने को बेताब हो गए. मामला इधर से उधर हो गया. बात बदल गई. उसके बाद काका कालेलकर कमीशन बना. कमीशन ने भी अनुशंसाएं कीं, लेकिन तत्कालीन कांग्रेसी सरकार ने अफरातफरी मचने का तर्क देकर उसे दबा दिया. फिर मंडल कमीशन बना. कांशीराम समेत समान विचार वाले नेताओं के लंबे संघर्ष के बाद यह लागू हो सका. लेकिन तब भी यह राजनीतिक कारणों से लागू हुआ और मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने का श्रेय भी सीधे वीपी सिंह को दे दिया गया. सच यह है कि उन्होंने भी चौधरी देवीलाल के उभार को रोकने के लिए मंडल बम चलाया था. दिक्कत यह है कि मंडल कमीशन की रिपोर्ट अभी पूरी तरह से लागू नहीं हो सकी है और पिछड़े नेता भी उसके बारे में सही से नहीं जानते, इसलिए स्थिति ऐसी है.
यह सही है कि पहचान की राजनीति में चेहरे का महत्व होता है लेकिन अब स्थितियों ने एजेंडे को महत्वपूर्ण बना दिया है. अब इस बार के बिहार चुनाव की ही बात करें. एजेंडा महत्वपूर्ण हो गया. रामविलास पासवान की बात कीजिए या जीतन राम मांझी की, वे अपने को अंदर से आम्बेडकरवादी तो मानते हैं लेकिन ऊपरी तौर पर स्वार्थों में फंस जाते हैं. छोटे स्वार्थों को तो छोड़ना होगा. इस बार तो रामविलास पासवान की जाति के लोगों ने भी उन्हें वोट नहीं दिया. मांझीजी पढ़े-लिखे आदमी हैं. इतिहास के छात्र रहे हैं. थोड़ा भी पढ़ा लिखा आदमी चिंतक हो ही जाता है इसलिए जब वे सत्ता में आए तो उन्होंने आक्रामक तरीके से दलितों के सवाल खड़े किए. आर्य-अनार्य जैसी बात भी की. उसके इन बयानों से उनके लोग सचेत हुए, जागरूक हुए. उनके पक्ष में सोचा भी लेकिन वे फिर आरएसएस की दरी बिछाने लगे. वो आरएसएस, जो सामंतों और दलित नरसंहार में शामिल लोगों का संरक्षक रहा है. जो आरक्षण पर पुनर्विचार की बात कर रहा है. और फिर दरी बिछाने वाला आदमी अधिक से अधिक उस पर पालथी मारकर बैठ सकता है तो लोगों ने उन्हें सिर्फ दरी पर बैठने लायक छोड़ा. बिहार के दोनों नेताओं के लिए मौका है कि अभी चिंतन करें और आम्बेडकरवादी बनें. अगर ऐसा नहीं होता है, दलित नेता आम्बेडकरवादी नहीं बनते हैं तो यह सोचना सिर्फ सुखद एहसास देता रहेगा कि बिहार में भी उत्तर प्रदेश की तर्ज पर दलित राजनीति अलग हो जाएगी. इसके लिए सबसे पहले बिहार के दलित नेताओं को थोड़ा स्वार्थ से ऊपर उठना होगा. बहुत सारे लोग सवाल उठाते हैं कि मंडल युग के बाद नवसामंतवाद का उदय भी राजनीति में हुआ है, जो दलितों के लिए घातक है. मुझे लगता है कि यह सही हो सकता है लेकिन बिहार को तो अभी पुराने सामंतवादियों से ही निकलना है. सामाजिक बदलाव की गति शुरू हो चुकी है. जब पुराने सामंतवादियों की जकड़न से बिहार निकल जाएगा तभी नवसामंतों से भी निकलने का रास्ता निकलेगा.
(लेखक आम्बेडकर संस्थान पटना के प्रमुख हैं)
(निराला से बातचीत पर आधारित)