उत्तर प्रदेश ही नहीं, बल्कि देश में इन दिनों दलित राजनीति फिर चर्चा में है। दरअसल पहली बार में ही आज़ाद समाज पार्टी (कांशीराम) के मुखिया चंद्रशेखर आज़ाद का नगीना की लोकसभा सीट से चुनाव जीतना और इसके विपरीत उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री और उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ी दलित नेता मानी जाने वाली मायावती की पार्टी बसपा की इस बार एक भी लोकसभा सीट न आना इस चर्चा की सबसे बड़ी वजह है।
राजनीति के जानकार अब मानने लगे हैं कि बसपा मुखिया मायावती की राजनीति अब उतार पर है और चंद्रशेखर आज़ाद की राजनीति का उदय हो रहा है यानी एक दलित चेहरा कमज़ोर पड़ता दिखायी दे रहा है, तो दूसरा दलित चेहरा मज़बूत होता दिखायी पड़ रहा है। कभी उत्तर प्रदेश में एकछत्र राज करने वाली बसपा आज शून्य पर सिमट चुकी है। हालाँकि इससे यह नहीं कहा जा सकता कि मायावती राजनीतिक रूप से समाप्त हो गयीं। उत्तर प्रदेश में दलित नेता के रूप में हमेशा मायावती को एक क़द्दावर नेता माना जाएगा। लेकिन इसके इतर सवाल यह है कि क्या अब दलित राजनीति को फिर से उस ऊँचाई तक ले जाने का कारनामा चंद्रशेखर आज़ाद कर सकेंगे? क्योंकि तमाम राजनीतिक दलों ने जिस प्रकार से कांशीराम और मायावती की बढ़ती ताक़त रोकने की कोशिश की थी, उन्हीं दलों ने चंद्रशेखर आज़ाद का रथ रोकने की कोशिशें कीं और शायद आगे भी करेंगे।
हालाँकि मायावती की राजनीति उत्तर प्रदेश में तब उफान पर आयी, जब उन्होंने सिर्फ़ दलितों की राजनीति छोड़कर बहुजन समाज की राजनीति की और सन् 2007 में वह इसी दम पर उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री भी बनीं। इससे पहले जब तक वह ‘तिलक, तराजू और तलवार; इनके मारो जूते चार’ की राजनीति करती रहीं। तब उन्हें मुख्यमंत्री बनने के मौक़े तो मिले; लेकिन कभी भाजपा के साथ गठबंधन करके, तो कभी मुलायम सिंह के साथ गठबंधन की सरकार बनाकर। लेकिन तब भी वह पूरे पाँच साल शासन नहीं कर सकीं। अब जब वह सियासी और शारीरिक रूप से कमज़ोर होती जा रही हैं, तब उन्होंने लोकसभा चुनाव में अपने भतीजे को भी उनसे सभी अधिकार छीनकर एक प्रकार से चुनाव में प्रचार करने से रोक दिया था। यह अलग बात है कि अब उन्हें दोबारा उन्हें नेशनल को-ऑर्डिनेटर का पद और उत्ताधिकार उनकी बुआ मायावती ने वापस दे दिया है।
इसके साथ ही मायावती दोबारा सिर्फ़ दलित राजनीति पर सिमट गयी हैं। इसके अलावा उन पर दलितों में भी सिर्फ़ अपनी जाति के लोगों का ही भला करने के आरोप भी लगते रहे हैं। इसके इतर आज़ाद समाज पार्टी (आसपा) के राष्ट्रीय अध्यक्ष चंद्रशेखर आज़ाद न सिर्फ़ एक युवा दलित चेहरा हैं, बल्कि वह संघर्ष करके अपने दम पर राजनीति में आज एक सांसद का मुकाम हासिल कर सके हैं। लेकिन उनकी राजनीति का अंदाज़ सर्व-समाज को साथ लेकर चलने वाला है। चंद्रशेखर की ख़ासियत यह है कि वह किसी से भी बैर नहीं रखते, न ही किसी को कोसते हैं और न ही किसी जाति के ख़िलाफ़ बोलते हैं; बल्कि वह हर पीड़ित के साथ खड़े होते हैं, चाहे पीड़ित किसी भी जाति का हो। उनका कहना है कि वह हमेशा पीड़ितों के साथ खड़े रहेंगे। इसके कई नमूने भी उन्होंने अपने छोटे-से राजनीतिक करियर में पेश किये हैं। मसलन, जब किसान आन्दोलन कर रहे थे, तब न सिर्फ़ चंद्रशेखर आज़ाद ने उनकी आवाज़ उठायी, बल्कि उनके बीच में भी गये। इसी प्रकार से देश की अंतरराष्ट्रीय स्तर की महिला खिलाड़ियों के साथ भी वह खड़े हुए। कहीं पर किसी महिला पर अत्याचार हो, किसी पुरुष पर अत्याचार हो, तो चंद्रशेखर आज़ाद पीड़ित के साथ खड़े हो जाते हैं। यही वजह है कि पहली बार में ही नगीना से चंद्रशेखर एक बड़े अंतर से जीत हासिल करके सांसद चुने गये हैं। वो भी तब, जब उनके ख़िलाफ़ न केवल मायावती ने, बल्कि अखिलेश यादव, जयंत चौधरी और कांग्रेस ने भी जमकर चुनाव प्रचार किया था।
बहरहाल अगर उत्तर प्रदेश में दलित राजनीति की बात करें, तो उत्तर प्रदेश के दलित युवा एक क्रांतिकारी चेहरे की तलाश में थे और उन्हें चंद्रशेखर में अपना वह क्रांतिकारी नेता दिखायी देता है। यही वजह है कि अभी तक दलित वोटर जहाँ बसपा के लिए संगठित माने जाते थे, आज वे चंद्रशेखर आज़ाद के लिए संगठित होते दिख रहे हैं। एक तरफ़ इस बार जहाँ बसपा अपना खाता तक नहीं खोल सकी, वहीं चंद्रशेखर आज़ाद ने बड़ी जीत दर्ज करके दलित राजनीति में न सिर्फ़ एक नये अध्याय की शुरुआत कर दी है, बल्कि ख़ुद को राष्ट्रीय चर्चा में ला दिया है। उनकी चर्चा इस बात को लेकर भी है कि सहारनपुर से इमरान मसूद और मुज़फ़्फ़रनगर में सपा के हरेंद्र मलिक की जीत का श्रेय भी कुछ जानकार उनको ही दे रहे हैं। मुझे याद आता है कि सन् 1989 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश से पहली बार कोई दलित महिला चुनाव जीतकर संसद पहुँची थी और वह मायावती थीं। यह सीट भी सहारनपुर की थी और जब वह सन् 1996 में पहली बार प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं, तो भी उन्होंने सहारनपुर की हरौड़ा सीट से ही जीत दर्ज की थी। इसके बाद से ही उनका क़द बढ़ता गया और वह सन् 2007 में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं और वो भी अपने दम पर बिना किसी पार्टी के समर्थन के। अगर हम लोकसभा सीट की बात करें, तो सन् 1989 में 2.1 फ़ीसदी वोट हासिल करते हुए बसपा ने तीन लोकसभा सीटें जीती थीं। इसके बाद सन् 1991 में भी तीन लोकसभा सीटें जीती थीं। हालाँकि इस साल बसपा का वोट फ़ीसद गिरकर महज़ 1.8 रह गया था। लेकिन इसके बाद उनका वोट फ़ीसद ज़्यादातर लोकसभा चुनावों में बढ़ा और सन् 2009 में बढ़कर 6.2 फ़ीसदी पर भी पहुँच गया था, जब बसपा के सबसे ज़्यादा 21 सांसद लोकसभा पहुँचे थे। सन् 2014 में फिर बसपा को एक भी लोकसभा सीट नहीं मिल सकी; लेकिन सन् 2019 में फिर से बसपा ने सपा के साथ गठबंधन बनाकर 3.7 फ़ीसदी वोटों के साथ 10 सीटें हासिल कीं। लेकिन इस बार जब उत्तर प्रदेश में भाजपा ने महज़ 33 सीटों पर ही जीत हासिल की, तब भी मायावती की बसपा के हाथ ख़ाली रहे। राजनीतिक जानकार अब भी मान रहे हैं कि मायावती अपना वोट बैंक भाजपा को ट्रांसफर करना चाहती थीं; लेकिन ये उनसे नहीं हो सका और दलित वोटर आज़ाद समाज पार्टी (कांशीराम), सपा और कांग्रेस की झोली में ज़्यादातर वोट चले गये। हालाँकि फिर भी बसपा को 9.39 फ़ीसदी वोट मिले, जो कि अच्छा-ख़ासा वोट बैंक है। लेकिन उनके एक भी उम्मीदवार की जीत न होने के पीछे कहीं-न-कहीं उनकी रणनीतिक ग़लतियाँ ही रही हैं, जिनमें सबसे बड़ी ग़लती मायावती के द्वारा अपने भतीजे पर बीते लोकसभा चुनाव में शिकंजा कसने की थी।
दरअसल चंद्रशेखर ने कुछ साल पहले जब भीम आर्मी का गठन किया, तब वह भी मायावती को अपनी अग्रणी नेता मानते थे और उनको सम्मान से अपनी कई जनसभाओं, प्रेस कॉन्फ्रेंस में उन्होंने उन्हें अपना अग्रणी नेता कहा भी था; लेकिन बड़ी नेता होने के नशे और चंद्रशेखर पर चले मुक़दमों ने मायावती को चंद्रशेखर की ओर देखने तक नहीं दिया। यहाँ तक हुआ कि मायावती ने चंद्रशेखर को लेकर कोई पॉजिटिव बयान तक नहीं दिया। उस समय अपने कुछ समर्थकों के साथ चंद्रशेखर आज़ाद संघर्ष करते रहे और चुपचाप पीड़ितों की आवाज़ उठाते रहे। मार्च, 2020 में चंद्रशेखर आज़ाद ने आज़ाद समाज पार्टी की घोषणा की और बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर के मिशन को आगे ले जाने, दलितों, वंचितों, शोषितों की आवाज़ बनने का बीड़ा उठाते हुए राजनीति की शुरुआत की। उन्होंने मायावती को बड़ी नेता बताकर ख़ुद को उनके बाद का दलित नेता तक सोशल मीडिया पर कहा, और यह बात साबित कर दी कि कोई इंसान जितना झुककर चलेगा, उसका क़द उतना ही बड़ा होगा। चंद्रशेखर आज़ाद का व्यवहार भी ऐसा है कि उनकी लोकप्रियता का ग्राफ चार-पाँच साल में ही काफ़ी बढ़ गया है और वह आज न सिर्फ़ उत्तर प्रदेश में, बल्कि हरियाणा और राजस्थान में भी दलित ही नहीं, बल्कि दूसरी जातियों के युवाओं में भी चर्चित, लोकप्रिय और बिना किसी विवाद के युवाओं के लिए प्रेरणा बन रहे हैं।
बहरहाल इस बार के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में न सिर्फ़ सवर्ण सांसदों की संख्या घटी है, बल्कि दलित और पिछड़ा वर्ग के सांसदों की संख्या भी बढ़ी है। इस बार बसपा की एक भी संसदीय सीट न आने के बावजूद 18 दलित सांसद उत्तर प्रदेश से चुनकर लोकसभा पहुँचे हैं। वहीं ओबीसी वर्ग के तो सबसे ज़्यादा 34 सांसद चुनकर लोकसभा पहुँचे हैं। हालाँकि इसके अलावा 11 सांसद ब्राह्मण, सात क्षत्रिय, पाँच मुस्लिम, तीन वैश्य और दो भूमिहार भी हैं। चंद्रशेखर की किसी से दुश्मनी भी नहीं है और वह दलित सांसदों में सबसे लोकप्रिय सांसद भी हैं। ख़ुद की राजनीतिक पार्टी के मुखिया भी हैं। ऐसे में उनके लिए आगे संभावनाएँ काफ़ी नज़र आती हैं। लेकिन इसके लिए अभी उनकी परीक्षाएँ बहुत होनी हैं। क्योंकि अभी उनका असली उदय हुआ है और वो भी एक सांसद के रूप में। इसलिए अब उनको अपनी पार्टी को खड़ा और बड़ा करने में दिन-रात एक करने होंगे और पार्टी में ईमानदार, मेहनती और राजनीतिक समीकरणों को साधने वाले नेताओं को जोड़ना होगा। इसके साथ चंद्रशेखर के क़द का पता अभी 10 विधानसभा सीटों पर होने वाले उपचुनाव में भी चलेगा। चंद्रशेखर पूरे दमख़म से इस उपचुनाव में अपने उम्मीदवारों को मैदान में उतारें, तो हो सकता है कि उनकी झोली में भी कुछ सीटें आ जाएँ। इस प्रकार प्रदेश की राजनीति में भी उनकी अच्छी शुरुआत हो सकती है।
बहरहाल एक ऐसे दलित नेता की देश ख़ासकर उत्तर प्रदेश के दलित समाज को तलाश है, जो उनकी आवाज़ बन सके, तो वहीं ओबीसी समाज को भी एक ऐसे नेता की तलाश है, जो बिना भेदभाव के उनकी आवाज़ बन सके। इस समय उत्तर प्रदेश में दोनों ही वर्गों में ऐसे नेताओं का अभाव है। हालाँकि सभी वर्ग यही चाहते हैं कि उनकी आवाज़ कोई बने और उनके समाज का भला करे; लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो यह चाहते हैं कि सबको साथ लेकर चलने वाला कोई नेता हो। इसी सोच के चलते साल 2007 में पूर्ण बहुमत के साथ मायावती को उत्तर प्रदेश की जनता ने सत्ता सौंपी थी। क्योंकि किसी एक वर्ग या एक जाति का नेता पूरे प्रदेश का नेतृत्व नहीं कर सकता। उत्तर प्रदेश में सभी 36 जातियाँ रहती हैं। इसके लिए प्रदेश के ज़्यादातर लोगों की यही सोच है कि उनकी आवाज़ उठाने वाला कोई नेता हो। और ज़ाहिर है कि जो सबकी आवाज़ बनकर उभरेगा, वही सबसे बड़ा नेता बनेगा। चंद्रशेखर आज़ाद ने अभी तक किसी से कोई भेदभाव नहीं किया और वो पीड़ितों के साथ हमेशा खड़े भी दिखते हैं, फिर चाहे वो पीड़ित कोई सवर्ण हो या दलित, पिछड़ा हो या मुस्लिम। कुछ लोगों का दावा है कि चंद्रशेखर की इसी अच्छाई की वजह से उन्हें इस बार न सिर्फ़ दलितों ने, बल्कि पिछड़ों, राजपूतों और मुस्लिमों ने भी वोट दिये हैं। लेकिन राजनीति में चुनौतियाँ कम नहीं होतीं, इसलिए सवाल यही है कि क्या चंद्रशेखर उत्तर प्रदेश में एक बड़े दलित नेता के रूप में मायावती की तरह या उनसे बड़ा चेहरा बन सकेंगे? हालाँकि चंद्रशेखर के जीतने से प्रदेश में दलित राजनीति के फिर से उभरने की उम्मीद जगी है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं।)