दलित उत्पीड़न का वर्तमान

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फोटोः विजय पांडेय

जिस समाज में हम रहते हैं वह उत्सवप्रेमी है, कानूनप्रेमी नहीं. हम पूरे ताम-झाम से आम्बेडकर जयंती, संविधान दिवस तो मना लेते हैं लेकिन आम नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों पर रोज हो रहे हमलों को लेकर उदासीन बने रहते हैं. ऐसा नहीं है कि सभी ‘आम नागरिकों’ को एक तराजू पर तौला जा सकता हो. इसे कई श्रेणियों में बांट कर देखना ही उचित है. जिस समूह के अधिकारों की जरा भी परवाह यह समाज नहीं करता, वह दलित समुदाय है. असल में, दलित समुदाय के संदर्भ में संवैधानिक अधिकारों का प्रश्न बाद में आता है, प्राथमिक सवाल उनके जीवन और उनके अस्तित्व का है.

आजादी मिलने के बाद से दलित समुदाय अपने अस्तित्व की सुरक्षा के लिए संघर्षरत है. अस्मिता का मुद्दा उनके लिए महत्वपूर्ण है जिनका वर्गांतरण हो चुका है या हो रहा है. ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम है. कभी माना गया था कि जो दलित कस्बाई या शहरी हो गए हैं, जीवन की बुनियादी सुविधाएं जुटा चुके हैं, थोड़ी बहुत शिक्षा हासिल कर ली है, वे हिंसक जातिवादी हमलों की परिधि से बाहर आ चुके हैं. अब यह मान्यता बेतरह खंडित हो चुकी है. ऐसे साक्ष्यों का हमारे सामने अंबार लगा हुआ है जो चीख-चीख कर बता रहे हैं कि जातिवादी मानसिकता किसी भी श्रेणी के दलित को नहीं बख्शती. गांव से लेकर कस्बे तक, धुर देहात से लेकर महानगरों तक दलित हर जगह असुरक्षित हैं. वे हमेशा संकट के साये में जीते हैं. उनका घर-बार कभी भी लूटा जा सकता है. उनके पक्के मकानों से लेकर झुग्गियां तक कभी भी आग के हवाले की जा सकती हैं. दलित स्त्रियों के साथ कहीं भी और कभी भी बलात्कार हो सकता है. दुधमुंहे दलित बच्चों पर कभी भी पेट्रोल डालकर माचिस की तीली दिखाई जा सकती है. अपने दर्द का बयान करने वाले नवोदित दलित लेखकों को कभी भी घेरा जा सकता है. उनकी अंगुलियां काटी जा सकती जा सकती हैं या काटने की धमकी दी जा सकती है. आज जातिवादी हिंसा अपने उफान पर दिखाई दे रही है.

अब भी कुछ लोग यह कहते मिल जाएंगे कि जातिवाद गुजरे दिनों की हकीकत है. अब समाज बहुत आगे चला आया है. अब जाति की परवाह कौन करता है? ऐसे लोगों से सिर्फ इतना कहना चाहिए कि वे अखबारी रपटों पर एक नजर डाल लें. एक बार वैवाहिक विज्ञापनों पर सरसरी निगाह फेर लें. जाति व्यवस्था की विकट उपस्थिति जाहिर हो जाएगी. अंतरजातीय विवाह करने वालों के साथ जातिवादी समाज कितनी क्रूरता से पेश आता है, इसकी तमाम मिसालें आसपास मिल जाएंगी. पिछले डेढ़ दशक पर ही हम अपना ध्यान केंद्रित करें और जाति आधारित हिंसा की कुछ चुनिंदा घटनाओं को याद करें तो इस समाज की भयावह सच्चाई का कुछ अंदाज लग जाएगा. देश की राजधानी की नाक के ठीक नीचे महज कुछ किलोमीटर की दूरी पर आर्थिक रूप से विकसित हरियाणा राज्य में जातिवादी हमलों का एक सिलसिला चल रहा है. अक्टूबर 2002 में झज्जर जिले के दुलीना पुलिस चौकी इलाके में 5 दलित युवकों को गाय मारने के शक की बिना पर पीट-पीट कर मार डाला गया. इसी राज्य के सोनीपत जिले की तहसील गोहाना में अगस्त 2005 में पूरी वाल्मीकि बस्ती लूट कर जला दी गई. सोनीपत के पड़ोसी जिले करनाल के महमूदपुर में फरवरी 2006 में जाटव मोहल्ले पर हमला हुआ. इसमें मोहल्ले के करीब दो दर्जन लोग घायल हुए. बच्चों, बूढ़ों और महिलाओं को भी नहीं बख्शा गया. करनाल जिले के ही सालवन गांव में मार्च 2007 में लगभग 300 दलित घरों पर हमला हुआ. लूटने के बाद हमलावरों ने तमाम घरों में आग लगा दी. अप्रैल 2010 में हिसार जिले के मिर्चपुर गांव में वाल्मीकि बस्ती पर हमला हुआ. हमलावरों ने दो दर्जन घरों को आग लगा दी, कई घरों में लूटपाट की और हमले के वक्त सुबह नौ बजे बस्ती में जो भी मिला, उन्हें बुरी तरह मारा पीटा. ताराचंद वाल्मीकि की बारहवीं दर्जे में पढ़ने वाली होनहार बेटी सुमन (18 वर्ष) पोलियोग्रस्त होने के कारण भाग न सकी. पिता भी उसी के साथ रुके रहे. हमलावरों ने बाप-बेटी दोनों को जला दिया. दलितों को जिंदा जलाने का यह क्रम अभी हाल में पुनः संपन्न किया गया.

20 अक्टूबर, 2015 को फरीदाबाद जिले के सुनपेड गांव में दो दलित बच्चों- दिव्या (10 माह) और वैभव (2 वर्ष) को पेट्रोल डालकर जला दिया गया. इन बच्चों की मां रेखा (22 वर्ष) भी आंशिक रूप से जल गईं. उनका इलाज चल रहा है. पिता जितेंद्र (26 वर्ष) तक हमलावर पहुंच नहीं सके. हरियाणा के ठीक बगल में राजस्थान का हाल भी दलित उत्पीड़न के मामले में बिगड़ता नजर आ रहा है. इसी साल मई महीने में जाटलैंड कहे जाने वाले नागौर जिले के डांगावास गांव में तकरीबन 300 दबंगों ने योजना बनाकर दलित मेघवाल परिवार पर हमला किया. उन्होंने गृहस्वामी रतनाराम (65) को बेहद क्रूरता से मार डाला. पहले उनके ऊपर ट्रैक्टर चलाया गया फिर आंखों में अंगारे डाल दिए गए. उनके साथ ही परिवार के पांचाराम (55) और निकट के रिश्तेदार पोखरराम को भी मौत के घाट उतार दिया गया. हमले के शिकार चौथे व्यक्ति गणपतराम (35) की मेड़ता के अस्पताल में मृत्यु हो गई. अजमेर अस्पताल में पांचवें व्यक्ति गणेशराम (21) की मौत हुई. घर की महिलाओं के साथ बदसलूकी की गई. पप्पूड़ी देवी (32), बीदामी (60), सोनकी देवी (55), जसोदा (30), भंवरी (27) और शोभादेवी (25) के हाथ-पांव तोड़ दिए गए. उनके गुप्तांगों में लकड़ी डाली गई. इसके अलावा खेमाराम, मुन्नाराम, अर्जुनराम और किसनाराम को भी अपंग बनाने की कोशिश हुई. लोहे की रॉड से इनके हाथ-पांव तोड़े गए. ट्रैक्टर सहित घर का सारा सामान लूट लिया गया. 4 मोटर साइकिलें, ट्राली और अन्य वस्तुएं जला दी गईं. मेड़ता अस्पताल में भर्ती होने आए घायलों पर भी हमला हुआ. इस भीषण हत्याकांड के पीछे जमीन का मसला था.

किसी एक दलित व्यक्ति का झगड़ा अगर गैर दलित से होता है तो निशाने पर समूची दलित बस्ती ले ली जाती है. विवाद में शामिल दलित अपने पूरे जाति समुदाय का प्रतिनिधि मान लिया जाता है. बदला एक से न लेकर समूचे मोहल्ले से लिया जाता है

पिछली शताब्दी के सातवें दशक में गांव के दलित बस्ताराम मेघवाल ने 23 बीघे जमीन गांव के ही एक जाट परिवार को रेहन पर दी थी. बस्ताराम के वारिस रतनाराम ने जब यह जमीन वापस मांगी तो उन्हें दुत्कार दिया गया. बाध्य होकर उन्होंने अदालत की शरण ली. 1997 में दीवानी न्यायालय से पहली बार नोटिस जारी हुआ. फिर हाल ही में अदालत का फैसला रतनाराम के पक्ष में आया. यह दबंगों को नागवार गुजरा. उन्होंने दुस्साहसी दलित परिवार को सबक सिखाने के लिए ऐसी नृशंसता की. प्राप्त जानकारी के अनुसार इस गांव में दलितों की लगभग एक हजार बीघे जमीन दबंगों के कब्जे में है. दहशत का माहौल बनाने के लिए इस हत्याकांड को अंजाम दिया गया. मकसद था कि एक परिवार का हश्र देखकर गांव के शेष दलित अपनी जमीन वापस मांगने की जुर्रत नहीं करेंगे. पूरे घटनाक्रम में पुलिस की भूमिका अत्यंत संदिग्ध रही. वह साफ तौर से हमलावरों के पक्ष में खड़ी दिखी. हमले के दिन खबर मिलने के बावजूद थाने से 20 मिनट का रास्ता तय करने में उसने करीब दो घंटे लगाए. पहुंची तब जब हमलावर अपना काम करके जा चुके थे. अस्पताल में जब दलितों पर हमला हुआ तो पुलिस वहीं मौजूद थी, मगर मूकदर्शक बनी रही. पुलिस का यही रवैया दलित उत्पीड़न के हर मामले में दिखता है. गोहाना कांड में लूटपाट और आगजनी में हमलावरों को ढाई-तीन घंटे लगे. गोहाना से सोनीपत, पानीपत और रोहतक लगभग समान दूरी पर हैं. दमकल की गाड़ी को गोहाना तक पहुंचने में आधे से एक घंटे लगते हैं. मगर तीनों दमकल केंद्रों से गाड़ियां तब पहुंची जब लूटपाट हो चुकी थी और सारे मकान जल चुके थे. पुलिस को इस हमले के बारे में पहले से सूचना भी थी. मिर्चपुर कांड के दौरान पुलिस घटनास्थल पर ही तैनात थी. तब भी उसने कोई कार्यवाही नहीं की. सालवन में भी यही दोहराया गया. लगभग 300 झोपड़ियां और मकान लूटे गए, जलाए गए और प्रशासन देखता रहा.

दलित दमन की घटनाओं में एक और बात गौर करने लायक है. किसी एक दलित व्यक्ति का झगड़ा अगर गैर दलित से होता है तो निशाने पर पूरा दलित समुदाय, समूची दलित बस्ती ले ली जाती है. विवाद में शामिल दलित अपने पूरे जाति समुदाय का प्रतिनिधि मान लिया जाता है. बदला एक से न लेकर समूचे मोहल्ले को सबक सिखाया जाता है. जाति आधारित हिंसा के मामलों में पुलिस प्रशासन की भूमिका इतनी बार जाहिर हो चुकी है कि दलित आसान शिकार मान लिए गए हैं. पुलिस एफआईआर लिखने में आनाकानी करती है. रिपोर्ट लिखी भी तो तथ्यों और सूचनाओं को दबंगों के हित में यथासंभव तोड़-मरोड़ दिया जाता है. इससे आगे न्याय पाने का रास्ता अवरूद्ध रहता है. दलित उत्पीड़न के मामलों में दोषसिद्धि की दर चिंताजनक रूप से निम्न है.

एक और बात विचारणीय है. उत्पीड़न के तमाम मामलों का विश्लेषण करें और उत्पीड़कों की वास्तविक जाति की शिनाख्त करें तो पाएंगे कि इस समाज की प्रायः सभी जातियां दलितों के विरूद्ध हैं. शास्त्रीय शब्दावली में माना जाता रहा है कि दलितों के उत्पीड़क त्रैवर्णिक (ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य) हैं. इधर की घटनाएं साबित करती हैं कि जो जाति समुदाय चौथे वर्ण में आते हैं, वे भी दलितों पर हिंसा करने में पीछे नहीं हैं. ओडिशा के बालंगीर जिले के लाठोर कस्बे में जनवरी 2012 में दलित बस्ती पर हमला हुआ. लूटने के बाद बस्ती में आग लगा दी गई. गैस सिलेंडर में विस्फोट करके छत उड़ा दी गईं. लगभग 40 घर तबाह हो गए. यह दलित बस्ती सुना जाति की है. हमलावर मेहर जाति के लोग थे जो ओबीसी श्रेणी में आते हैं. झगड़ा बहुत मामूली बात पर शुरू हुआ. एक दलित लड़का मेहर जाति की दुकान पर शर्ट खरीदने गया. वहां दुकानदार से उसकी बक झक हो गई. उसी का बदला लेने के लिए इतना बड़ा हमला किया गया. इस हमले की भनक दलित बस्ती को लग गई थी, इसलिए इसमें हताहत तो कोई नहीं हुआ मगर आर्थिक तबाही ऐसी हुई कि वर्तमान स्थिति तक आते-आते दलितों को एक दशक से कम नहीं लगेगा. कुछ ऐसा ही खौफनाक मंजर तमिलनाडु के धर्मपुरी जिले में नजर आया. यहां नवंबर 2012 में नायकनकोट्टाइ के तीन गांवों पर एक साथ हमला किया गया. परैयार दलितों के लगभग 500 घर लूटे गए और करीब साढ़े तीन सौ मकानों को आग के हवाले कर दिया गया. यहां भी हमला तकनीकी रूप से अति पिछड़ी जाति (मोस्ट बैकवर्ड कास्ट-एमबीसी) वन्नियार ने किया. मसला अंतरजातीय विवाह का था. दलित युवक इलावरासन और वन्नियार युवती दिव्या ने आपसी सहमति से शादी कर ली. यह बात वन्नियारों को सह्य नहीं थी. उन्होंने दलितों को सबक सिखाने के लिए ऐसी साजिश रची कि वे अगले दो दशकों तक शायद ही अपनी आर्थिक हालत ठीक कर सकें.

दलितों के उत्पीड़न की मीडिया में चर्चित ये कुछ-एक बानगियां थीं. छोटे-छोटे जातिवादी हमलों और वैयक्तिक हिंसा के मामले अखबारों के पन्ने पर रोज देखे जा सकते हैं. अगर हम सचमुच डॉ. आम्बेडकर और उनके रचे संविधान के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना चाहते हैं तो इस अनवरत क्रूरता को तत्काल रोकने के उपाय ढूंढने होंगे.

(लेखक वरिष्ठ आलोचक और चिंतक हैं)