मुंबई का वानखेड़े स्टेडियम भारत और दक्षिण अफ्रीका के बीच खेली गई पांच एकदिवसीय मैचों की सीरीज के अंतिम और निर्णायक मुकाबले के लिए तैयार था. इससे पहले खेले चार मुकाबलों में दो-दो जीत के साथ दोनों टीमें बराबरी पर थीं. इसलिए निर्णायक मुकाबले में कांटे की टक्कर होने की पूरी उम्मीद थी. दर्शकों से खचाखच भरे स्टेडियम में दक्षिण अफ्रीका ने टॉस जीतकर पहले बल्लेबाजी का फैसला किया और साधारण स्तर की भारतीय गेंदबाजी का लाभ उठाकर 438 रनों का पहाड़ सा ऐसा स्कोर खड़ा कर दिया, जिसकी कल्पना उस दिन शायद किसी ने नहीं की थी.
यहीं से इस मैच में भारत की जीत की संभावनाएं लगभग समाप्त सी हो गई थीं. भारत की पारी शुरू होती, उससे पहले ही भारतीय टीम निदेशक रवि शास्त्री ने एक नया बवाल खड़ा कर दिया. वह पिच क्यूरेटर सुधीर नाईक पर भड़क उठे और भारत की संभावित हार का ठीकरा उन पर फोड़ अपशब्द कहना शुरू कर दिया.
रवि शास्त्री का आरोप था कि भारतीय गेंदबाजों को पिच से कोई मदद नहीं मिली. पिच घरेलू टीम के पक्ष में व्यवहार नहीं कर रही थी. इस विवाद ने खासा तूल पकड़ा. सुधीर नाईक ने बोर्ड से शास्त्री की शिकायत की तो सुनील गावस्कर और कपिल देव जैसे दिग्गज शास्त्री के पक्ष में इस तर्क के साथ आ खड़े हुए कि घरेलू टीम को घरेलू परिस्थितियों का लाभ तो मिलना ही चाहिए. यहां से यह बात तय हो गई थी कि दोनों टीमों के बीच खेली जाने वाली आगामी चार टेस्ट मैचों की गांधी-मंडेला सीरीज में पिच की भूमिका सबसे अहम रहेगी. हुआ भी यही, टी-20 और एकदिवसीय सीरीज में मेहमान दक्षिण अफ्रीकी टीम से करारी शिकस्त झेलने के बाद भारतीय टेस्ट कप्तान विराट कोहली और टीम प्रबंधन को भली-भांति समझ आ गया था कि टेस्ट में विश्व नं. 1 और पिछले नौ साल से विदेशी दौरों पर अजेय दक्षिण अफ्रीकी टीम को हराना लोहे के चने चबाने जैसा है. केवल स्पिनर और स्पिन विकेट के सहारे भारतीय परिस्थितियों में खुद को ढाल चुके मजबूत दक्षिण अफ्रीकी बल्लेबाजी क्रम पर काबू नहीं पाया जा सकता. साथ ही डेल स्टेन, मोर्ने मोर्केल और वरनॉन फिलेंडर में वो क्षमता है कि वह किसी भी विकेट पर अपनी तेज रफ्तार गेंदों से विपक्षी खेमे को तहस-नहस कर सकें.
कप्तानों के सुझाव पर रणजी मैचों के दौरान टीम हित में पिच बनवाई जा रही हैं, जिसे भारतीय क्रिकेट के भविष्य के लिए सकारात्मक नहीं कहा जा सकता
यही सब दिमाग में रख कोहली जब मोहाली पहुंचे तो सबसे पहले पिच क्यूरेटर दलजीत सिंह से मुलाकात कर आशीर्वाद लिया. वानखेड़े में हुई गलती शास्त्री और कोहली दोहराना नहीं चाहते थे. साथ ही इस सीरीज में जीत-हार के दोनों के लिए ही बहुत अधिक मायने थे. लंबे समय से भारतीय कप्तानी को लेकर चल रहे शीत युद्ध के कारण इन दोनों की साख भी दांव पर लगी थी. हार का मतलब होता कोहली की कप्तानी पर सवाल और धोनी के पक्ष में माहौल. इन सभी पक्षों को ध्यान में रख स्वाभाविक था कि बैकफुट पर आई भारतीय टीम मोहाली में घरेलू परिस्थितियों का भरपूर लाभ उठाना चाहेगी और इस मैच का मैन ऑफ द मैच पिच रहेगी. यानी कि वानखेड़े से शुरू हुआ पिच विवाद आगे भी थमने वाला नहीं था लेकिन इस बार पिच के पेंच में दक्षिण अफ्रीकी उलझने वाले थे. मैच से पहले मोहाली की पिच देखने के बाद दक्षिण अफ्रीकी बल्लेबाज फाफ डू प्लेसिस यह भांप भी गए और मीडिया में बोले, ‘मैं बस यही कह सकता हूं कि यह पिच सामान्य से भी अधिक सूखी नजर आ रही है.’
हुआ भी वही जिसकी उम्मीद थी. मोहाली के विकेट पर पहले ही दिन से स्पिनरों को वह घुमाव मिलने लगा जिसकी अपेक्षा एक स्पिनिंग ट्रैक पर तीसरे दिन की जाती है. विकेट कितना सूखा था यह इस बात से समझा जा सकता है कि पहले ही दिन डीन एल्गर जैसा पार्ट टाइम स्पिनर भारतीय बल्लेबाजों को अपने घुमाव से छका रहा था. यह देख अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं था कि आगे आर. अश्विन, रविंद्र जडेजा और अमित मिश्रा की तिकड़ी क्या कमाल दिखाने वाली है. मैच तीन दिन में खत्म हो गया. पूरे मैच के दौरान स्पिनर्स ने 35 विकेट निकाले. जिसमें भारतीयों का योगदान 19 विकेट का रहा. बल्लेबाज एक-एक रन के लिए जूझते नजर आए और तेज गेंदबाज विकेट के लिए. पिच और इस भारतीय रणनीति की चौतरफा आलोचना की गई लेकिन स्थितियां बदली नहीं, बंगलुरु के चिन्नास्वामी स्टेडियम में भी लगभग समान ही विकेट था. वहीं तीसरे टेस्ट की नागपुर की पिच का मिजाज पढ़कर गावस्कर बोले, ‘यहां पहली पारी में बल्लेबाजी बहुत मुश्किल होगी और आखिरी पारी में लगभग असंभव.’ उनकी भविष्यवाणी सही साबित हुई और तीसरे दिन चाय के बाद मैच खत्म हो गया. पिच के मिजाज को समझने के लिए इतना ही काफी है कि दक्षिण अफ्रीका का मजबूत बल्लेबाजी क्रम पहली पारी में 79 रनों पर ढेर हो गया और मैच के दूसरे दिन कुल 20 विकेट गिरे.
माइकल वान, मैथ्यू हेडन, डेविड लॉयड, वसीम अकरम सहित कई पूर्व दिग्गज अंतर्राष्ट्रीय खिलाड़ी इस पिच विवाद का हिस्सा बन चुके हैं. वह ऐसी पिचों को क्रिकेट खेलने के लिहाज से अनुपयुक्त करार दे रहे हैं और घरेलू परिस्थितियों का जरूरत से अधिक लाभ उठाने के लिए भारतीय टीम द्वारा अपनाई जा रही इस रणनीति की कड़ी आलोचना कर रहे हैं. वहीं गावस्कर इस पूरे विवाद में कोहली और रवि शास्त्री का पक्ष लेते हुए एक चैनल से बात करते हुए कहते हैं, ‘घरेलू टीम के अनुकूल पिच बनाने में गलत क्या है. जब आपको आपकी पसंद की पिच नहीं मिलती तो हताशा होती है और व्यंग्यात्मक टिप्पणी की जाती है. लेकिन अपनी भाषा पर नियंत्रण होना चाहिए. जब निराशा होती है तो ऐसे शब्द कहे जाते हैं जो शास्त्री ने कहे लेकिन बाद में खेद होता है’. कपिल देव कहते हैं, ‘सीरीज का नतीजा काफी कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि पिच कैसी बनती है. अगर दक्षिण अफ्रीका के मुताबिक पिच बनती है तो भारत को मुश्किल होगी. लेकिन अगर भारतीय टीम के हिसाब से पिच बनेगी तो हम जीत सकते हैं.’
लेकिन इस बीच सवाल यह है कि आदर्श पिच कैसी हो? जिस पिच पर तीन दिन में नतीजा निकल आए और एक-एक रन को बल्लेबाज जूझें, क्या उसे खेल के लिहाज से आदर्श विकेट कहा जा सकता है? कई विशेषज्ञ इसे बेवजह का तूल करार दे रहे हैं. उनका कहना है कि दूसरे देशों में भी तीन दिन में मैच खत्म होते हैं, इसमें कौन सी नई बात है? लेकिन भारतीय पिचों के आंकड़े एक नई ही कहानी कह रहे हैं. 2013 से अब तक भारत ने अपने मैदानों पर कुल नौ टेस्ट मैच खेले हैं जिनमें से 5 तीन दिन में खत्म हुए हैं, दो मैच चार दिन में जबकि वर्तमान सीरीज का ही बंगलुरु मैच ड्रॉ रहा जिसके भी तीन दिनों में खत्म होने की संभावना थी. इस दौरान केवल एक ही मैच रहा जो कि पांच दिन तक चल सका. इन सभी में भारत को जीत मिली. तीन दिन में खत्म होने वाले मैचों का ऐसा प्रतिशत इस दौरान किसी और देश में नहीं देखा गया. जो साबित करता है कि भारत में घरेलू परिस्थितियों का लाभ लेने के लिए पिछले कुछ समय से अपने विकेटों के साथ कुछ ज्यादा ही प्रयोग किया जा रहा है.
इस समयांतराल में भारतीय पिचों में आए इस बदलाव की पटकथा के पीछे भारतीय टीम की असुरक्षा की वह भावना भी हो सकती है, जब 2012 में इंग्लैंड, भारत के दौरे पर आया था और ग्रीम स्वान-मोंटी पनेसर की जोड़ी ने भारत की घरेलू परिस्थितियों का फायदा बखूबी उठा भारत का दांव उसी पर चल उसे चारों खाने चित कर दिया था. उसके बाद से ही भारतीय पिचों का स्तर इतना गिरा दिया गया कि केवल घरेलू स्पिन गेंदबाज ही घरेलू परिस्थितियों का फायदा उठा सकें.
पूर्व भारतीय अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेटर मनिंदर सिंह कहते हैं, ‘इस तरह की पिचें विश्व में कहीं नहीं मिल सकतीं. ये तो विकेट ही नहीं बनीं. आप अपनी घरेलू परिस्थितियों का लाभ उठाना चाहते हैं तो ऐसे विकेट तो बनाएं कि मैच चौथे दिन तक जाए. ये कुछ ज्यादा हो रहा है.’ वह आगे कहते हैं, ‘आप घरेलू परिस्थितियों का फायदा उठाइए. टर्निंग ट्रैक बनाइए, इसमें कुछ गलत नहीं है. लेकिन ऐसी पिचें बनाइए जो कि संभवत: दूसरे दिन से टर्न लेना शुरू करें. कुछ तो क्रिकेट देखने को मिले. कुछ तो खेल हो. ऐसी पिच कि कोई बल्लेबाज अर्द्धशतक भी नहीं लगा सका, जबकि विश्व की चोटी की टीम खेल रही हो. यह सवाल खड़े करता है. और ऐसे विकेट से आखिर लाभ किसे हो रहा है? जीतने के बाद हमें लग रहा है कि इससे भारतीय टीम का विश्वास बढ़ रहा है तो यह गलत है. मेरे मुताबिक विश्वास बढ़ नहीं रहा होगा. ये हम अपने ही विश्वास को जबरदस्ती धक्का मार रहे हैं. हमें विश्वास ये रखना चाहिए कि हम सामान्य घरेलू परिस्थितियों में भी जीत सकते हैं. मुझे ये यकीन है कि हमारे पास इतना टैलेंट है कि दक्षिण अफ्रीका की इस टीम को हम सामान्य परिस्थितियां रखते तो भी हरा देते.’
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय पिचों पर मचे बवाल को देखने और उसकी तुलना अन्य देशों की पिच बनाने की परंपरा से करने से पहले यह देखना भी जरूरी है कि घरेलू स्तर के क्रिकेट में भी भारत में यही परिपाटी चल पड़ी है कि प्रदर्शन से ज्यादा पिच के मिजाज को महत्व दिया जा रहा है. राज्य क्रिकेट संघ अपने कप्तान के सुझाव पर रणजी मैचों के दौरान अपनी टीम के हित में ऐसी पिच बना रहे हैं जिन पर मुकाबला दो ही दिन में खत्म हो रहा है. यह एक डरावनी तस्वीर है जो भारतीय क्रिकेट के भविष्य के लिहाज से कतई सकारात्मक नहीं कही जा सकती. मनिंदर सिंह कहते हैं, ‘आप अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में घरेलू परिस्थितियों का लाभ उठाने के लिए ऐसी पिच बनाते हैं तो माना जा सकता है कि आप अंतर्राष्ट्रीय रैंकिंग में बढ़त कायम करना चाहते हैं. लेकिन यह तो रणजी ट्रॉफी में भी हो रहा है कि पांच-पांच दिन के मैच दो-दो दिन में खत्म हो रहे हैं. और जिन क्रिकेट संघ में ऐसा हो रहा है वे कह रहे हैं कि दोनों टीमों के लिए तो पिच एक ही जैसी थी. ये तर्क बिल्कुल गलत है. क्योंकि इस तरह हम न तो आगे जा रहे हैं और न पीछे जा रहे हैं, हम नीचे जा रहे हैं. इस तरह तो भविष्य में हमें कोई अंतर्राष्ट्रीय स्तर का क्रिकेटर मिलेगा ही नहीं. ऐसी ही पिच बनाते रहिए, दो स्पिनर खिलाइए और दो दिन में जीत जाइए. खिलाड़ियों की मैच प्रैक्टिस हो ही नहीं पाएगी. टैलेंट को आप कैसे खोजोगे? विकेट ही इस कदर खराब होगा कि उस पर पैर जमाना भी मुश्किल हो तो एक बल्लेबाज अपनी तकनीक को सुधारे भी तो कैसे? ये शह कहां से मिल रही है कि मेजबान टीम है, जैसी मर्जी वैसी पिच बना सकते हैं? भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) की जिम्मेदारी बनती है कि इस पर विचार करे. अंतर्राष्ट्रीय मैच में तो आपने बना दिए ऐसे विकेट पर प्रथम श्रेणी क्रिकेट में तो सही बनाइए. वरना भस्मासुर वाली स्थिति बनते देर नहीं लगेगी.’
मनिंदर की बात सही भी जान पड़ती है. अगर पिछले छह सालों के भारत के अंतर्राष्ट्रीय रिकॉर्ड पर नजर डालें तो चौंकाने वाले आंकड़े सामने आते हैं. इस अवधि में भारत ने घरेलू सरजमीं पर खेले कुल 25 मुकाबलों में से 17 जीते, तीन हारे हैं और बाकी ड्रॉ रहे हैं. वहीं भारतीय उपमहाद्वीप में खेले 9 मुकाबलों में से 5 में जीत दर्ज की, दो हारे और बाकी ड्रॉ रहे. लेकिन जब टीम उपमहाद्वीप के बाहर गई तब उसकी क्षमताओं का सही आकलन हुआ. उपमहाद्वीप के बाहर खेले गए 27 में से केवल तीन मुकाबले वह जीत सकी जबकि 17 में हार मिली और पांच ड्रॉ रहे. वहीं 2011 से उपमहाद्वीप के बाहर खेले गए 21 मैचों में से महज एक मैच में ही उसने जीत का स्वाद चखा है और 16 में हार मिली है.
विशेषज्ञों की राय है कि इसके पीछे यही कारण है कि सबसे पहले तो हम घरेलू स्तर पर ही ऐसी पिचें तैयार कर रहे हैं जो अंतर्राष्ट्रीय मानकों पर खरी नहीं उतरती, विश्व क्रिकेट के लिहाज से अल्पमत में हैं. जिसका नुकसान हमें यह उठाना पड़ता है कि खिलाड़ियों की प्रैक्टिस नहीं हो पाती. जब स्पिन फ्रेंडली विकेट पर स्पिनर मैच जिता रहे हैं तो क्यों एक रणजी टीम तेज गेंदबाज पर दांव लगाए. इसका नुकसान यह है कि न तो तेज गेंदबाजी को बढ़ावा मिल रहा है और न बल्लेबाज तेज गेंदबाजी झेलने के अभ्यस्त हो पा रहे हैं. वहीं दूसरी ओर पिछले कुछ सालों से विदेशी टीमों के भारत दौरे पर जैसे विकेट बनाए जा रहे हैं उससे हमारे खिलाड़ी जीत तो रहे हैं पर उनमें मुकाबला करने का जुझारूपन पैदा नहीं हो पा रहा है. घरेलू परिस्थितियों का अनुचित लाभ लेकर आसानी से मिली जीत संतोष तो दे सकती है लेकिन विपरीत परिस्थितियों में लड़ने का जुझारूपन नहीं दे सकती. हमें महीने भर बाद ही ऑस्ट्रेलिया का दौरा करना है, अगर यहां हम विकेट में अधिक छेड़छाड़ न कर उसे सामान्य भारतीय परिस्थितियों के मुताबिक ही रखते तो हमारे बल्लेबाजों को स्टेन, मोर्केल, फिलेंडर जैसे विश्वस्तरीय तेज गेंदबाजों की गेंदों पर अधिक खेलने का मौका मिलता, जो कि ऑस्ट्रेलियन परिस्थितियों में हमारे लिए लाभदायक होता. हमारे पास मैच प्रैक्टिस के लिए ढंग के तेज गेंदबाज हैं नहीं और विदेशी टीमों के गेंदबाज जब हमारी जमीन पर आते हैं तो हम उन्हें अपनी घरेलू परिस्थितियों में भी खेलना नहीं चाहते. इसलिए जब विदेशी दौरों पर जाते हैं और अचानक उनके तेज गेंदबाजों का सामना करते हैं तो ताश के पत्ते की तरह हमारी बल्लेबाजी बिखर जाती है.
पूर्व भारतीय बल्लेबाज और वर्तमान में दिल्ली क्रिकेट संघ के उपाध्यक्ष चेतन चौहान भी नागपुर और मोहाली की पिच को क्रिकेट के लिहाज से आदर्श नहीं मानते. लेकिन साथ ही कहते हैं, ‘दोनों ही टीम के बल्लेबाजों ने तकनीकी तौर पर दृढ़ता का परिचय नहीं दिया.’ तीन दिन में खत्म हो रहे मुकाबलों के पीछे वह पिच को तो दोष देते ही हैं, साथ ही कहते हैं, ‘इसके लिए टी-20 और एकदिवसीय भी जिम्मेदार हैं. बल्लेबाजों में न तो अब राहुल द्रविड़, वीवीएस लक्ष्मण, जैक कैलिस, शिवनारायण चंद्रपॉल की तरह विकेट पर जमे रहने का धैर्य रहा है और न ही टेस्ट मैचों के लिए आवश्यक तकनीक.’
इस बीच अपने बचाव में मोहाली टेस्ट के बाद दिया कोहली का यह तर्क कि ये नतीजा देने वाली पिचें हैं, जो टेस्ट प्रारूप में कम होते दर्शकों को दोबारा मैदान पर खींचकर लाएंगी, गले नहीं उतरता. अगर ऐसा होता तो नागपुर मैच के दौरान स्टेडियम खचाखच भरा होता. दर्शक नतीजा नहीं, क्रिकेट का रोमांच देखना चाहते हैं. तभी तो दो साल पहले भारत और दक्षिण अफ्रीका के बीच जोहानिसबर्ग में खेले गए ड्रॉ टेस्ट में भी दर्शकों का उत्साह चरम पर था क्योंकि वहां नतीजा न आकर भी नतीजा निकला था. दक्षिण अफ्रीकी दर्शकों के लिए यह जीतने सरीखा था कि पहली पारी में पिछड़ने के बाद चौथी पारी में 458 रनों के असंभव से लक्ष्य के आगे भी उनकी टीम ने घुटने नहीं टेके और मैच के ड्रॉ होने से पहले महज सात रन जीत से दूर थे, वहीं भारतीय समर्थकों के लिए यह जीत से कमतर नहीं था कि अंतिम क्षणों में उनकी टीम ने हार को ड्रॉ में बदल डाला. यहां जीत न भारत की हुई और न दक्षिण अफ्रीका की, यहां जीत क्रिकेट की हुई. कोहली समय के साथ यह सीखेंगे.
‘तीन दिन में खत्म हो रहे मुकाबलों के लिए पिच तो दोषी हैं ही, साथ ही इसके लिए टी-20 और एकदिवसीय फॉर्मेट भी जिम्मेदार हैं’
टेस्ट क्रिकेट का इतिहास गवाह रहा है कि मेजबान टीमें अपने मनमाफिक पिचें तैयार कराती रही हैं. ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, इंग्लैंड जैसे देशों में तेज और हरी विकेट मिलती हैं तो दक्षिण अफ्रीका की उछाल भरी पिचें मेहमानों की नाक में दम करती हैं. ऐसी ही मनमाफिक पिचों की परंपरा भारतीय उपमहाद्वीप के देशों की भी रही है. श्रीलंका और भारत में स्पिन ट्रैक ही बनाए जाते रहे हैं. यही कारण है कि टेस्ट क्रिकेट को इम्तिहान के नजरिये से देखा जाता है, जब बल्लेबाज को अलग-अलग विकेट के हिसाब से खुद को ढालना पड़ता है, रन बनाने के लिए जूझना पड़ता है. लेकिन मनमाफिक पिच बनाने की परंपरा जब बेकाबू हो जाए, तो वह क्रिकेट समर्थकों को दुखी करती है. इस जीत का एक पहलू यह भी है कि आने वाले समय में कुछ ऐसी ही हालत भारतीय सूरमाओं की विदेशी पिचों पर होगी, जब गेंद छाती तक आएगी और गेंद की स्विंग और सीम का अंदाजा लगाना मुश्किल हो जाएगा. लिहाजा दक्षिण अफ्रीका पर भारत की इस जीत का मजा उठाते वक्त यह ध्यान रखना होगा कि न तो यह असली जीत है, न ही असली टेस्ट क्रिकेट. शायद इसीलिए विश्व क्रिकेट के कई दिग्गज समय-समय पर यह आवाज उठाते रहे हैं कि टेस्ट मैचों के विकेट बनाने का काम आईसीसी को अपने हाथों में ले लेना चाहिए.