गृहमंत्री राजनाथ सिंह के बेटे पंकज सिंह और इसलिए राजनाथ सिंह से भी जुड़े विवाद को चाहें तो सीधे-साधे आम आदमी की तरह भी देखा जा सकता है. राजनाथ सिंह से ज्यादा सहानुभूति न रखनेवाले इस ‘अफवाह’ को सच मान सकते हैं कि पंकज ने कुछ गलत किया था और इसलिए प्रधानमंत्री मोदी ने उन्हें उनके पिता के ही सामने लताड़ लगाई. राजनाथ और भाजपा से दिल का और मीडिया से कुछ बेदिली का रिश्ता रखनेवाले सोच सकते हैं कि यह सब मीडिया का किया-धरा है जिसे कोई और काम-धाम नहीं है.लेकिन इस विवाद को देखने के इनसे कुछ कम सीधे तरीके भी हैं.
पहला तो यह ही कि यह विवाद तकरीबन उस दौरान ही पैदा हुआ जब पार्टी में दो सक्रिय वयोवृद्ध वरिष्ठ सदस्यों के सन्यास आश्रम में जबरन प्रवेश की प्रक्रिया को अंतिम रूप दिया जा रहा था. भाजपा के तीनों शीर्ष नेताओं –अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी – को पार्टी की दो शीर्ष संस्थाओं – संसदीय बोर्ड और चुनाव समिति – से हटाने का फैसला 27 अगस्त को सार्वजनिक हुआ और 28 अगस्त को एक राष्ट्रीय अखबार के पन्नों पर पंकज सिंह के कथित ‘गलत व्यवहार’ और उस पर पिता-पुत्र को प्रधानमंत्री की हिदायत की खबर छप गई. हालांकि चर्चाओं का बाजार पहले से ही गर्म था मगर अखबार में ‘अफवाह’ के आने का मतलब उससे कुछ ज्यादा बड़ा हो गया. इसकी धार खत्म करने के लिए पीएमओ और पार्टी अध्यक्ष तक को मैदान में आना पड़ गया. जाहिर है राजनाथ सिंह को तो आना ही था.
पिछले कुछ दिनों से जितनी भी चर्चाएं बाजार में हैं उनके केंद्र में नरेंद्र मोदी की हर चीज पर नजर और नियंत्रण रखने वाली छवि भी है
विवाद को देखने का दूसरा इससे भी कुछ कम सीधा तरीका यह है कि केंद्र सरकार में कथित तौर पर चल रहे सत्ता-संघर्ष के चश्मे से इसे देखा जाए. मोदी के बाद केंद्र सरकार में कौन, यह एक ऐसा रहस्य है जिस पर पिछले दिनों काफी पन्ने काले किए जा चुके हैं (इस लेख के प्रेस में जाते वक्त खबर आई है कि पीएमओ ने एक नोट भेजा है कि प्रधानमंत्री की जापान यात्रा के दौरान राजनाथ सिंह सरकार के मुखिया होंगे. जैसा उनकी पिछली यात्रा के दौरान हुआ था. हालांकि पिछली बार के बारे में किसी को इससे पहले तक पता नहीं था). पारंपरिक बुद्धि तो यही कहती है कि गृहमंत्री ही सरकार में नंबर -2 होना चाहिए. यह बात सरकार बनने के पहले महीने तक कुछ साफ भी थी. क्योंकि तब तक राजनाथ सिंह पार्टी अध्यक्ष बने हुए थे और अरुण जेतली की लोकसभा चुनाव में हार भी ताजा थी. जेतली को मिला दो बड़े मंत्रालयों का प्रभार भी तब बस कुछ दिनों की ही बात लग रहा था. लेकिन कुछ ही दिनों में उनके जबर्दस्त आर्थिक और कानूनी ज्ञान और योजना आयोग को खत्म कर उसके कुछ अधिकार वित्त मंत्रालय को दिए जाने की घोषणा ने अरुण जेतली के महत्व को लगातार बढ़ते जानेवाला बना दिया. ऊपर से जेतली की रक्षामंत्री वाली स्थिति भी कुछ लोगों को अब उतनी अस्थायी नहीं लग रही है. साथ ही उनके दूसरे और मुख्य मंत्रालय, वित्त मंत्रालय के ऊपर इस घोर आर्थिक अराजकता वाले समय में समय-समय पर कुछ न कुछ करते रहने की जिम्मेदारी भी है. इसके चलते चर्चाओं में बने रहना जेतली की नियति है. जेतली को जो एक और बात मोदी के लिए महत्वपूर्ण बना देती है वह है उनका दिल्ली के उस विशिष्ट तबके से होना जिससे खुद के बाहर होने की बात खुद नरेंद्र मोदी 15 अगस्त को लाल किले से कह चुके हैं.
सरकार बनने के कुछ समय बाद राजनाथ सिंह पार्टी के अध्यक्ष नहीं रहे. उनका मंत्रालय भी अपेक्षाकृत उतनी चर्चाओं में नहीं था. राज्यपालों के मसले पर तमाम धक्का-मुक्की ने भी अपना असर डाला और धीरे-धीरे उनकी स्थिति पहले जैसी नहीं रही. ऊपर से प्रधानमंत्री ने भी स्थिति को स्पष्ट नहीं किया, जोकि उनकी अनुपस्थिति में कैबिनेट की अध्यक्षता कौन करेगा इस पर स्थिति साफ करके, किया जा सकता था (हालांकि अब ऐसा हो गया है). अब अगर कोई यह कहे कि पंकज-राजनाथ विवाद या इसकी ‘अफवाह’ इसी नंबर-2 के सत्ता संघर्ष की उपज है तो उसको ऐसा कहने से कैसे रोका जा सकता है!
विवाद से जुड़ा तीसरा और शायद सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि कुछ लोग इसे मोदी की संपूर्ण नियंत्रण रखने वाली छवि के संदर्भ में भी देख रहे हैं. पिछले कुछ दिनों से जितनी भी चर्चाएं बाजार में हैं उनके केंद्र में मोदी की हर चीज पर नजर और नियंत्रण रखनेवाली छवि भी है. एक अफवाह के मुताबिक प्रधानमंत्री ने अपने एक मंत्री को हवाई अड्डे से फोन कर उन्हें दूसरे कपड़े पहनने का आदेश दे डाला. दूसरी के मुताबिक उन्होंने अपने एक अन्य मंत्री को किसी बड़े उद्योगपति के साथ रात्रिभोजन के दौरान फोनकर इसके लिए फटकार लगाई. एक अन्य जानकार की मानें तो उन्हें भाजपा के एक वरिष्ठ नेता ने यह बताया कि उनकी पार्टी के नेताओं के मंत्रियों के लिए आधी बांह का कुर्ता पहनना वर्जित है क्योंकि मोदी ऐसा कुर्ता पहनते हैं. और फिर यह पंकज-राजनाथ विवादवाली ‘अफवाह’ तो है ही.
गुजरात में उनके कार्यकाल के वक्त की और भाजपा में प्रधानमंत्री बनने के बाद की अनगिनत अखबारी रपटों को इन अफवाहों के साथ रखकर देखें तो मोदी की यह ‘हरेक पर नजर और नियंत्रण’ वाली छवि कइयों को सच लग सकती है. इस छवि में इजाफा करने का काम हाल ही में अपने मंत्रियों-सांसदों की क्लास सी लेने वाली नरेंद्र मोदी की तस्वीर भी कर देती है और मंत्रियों और नेताओं को मीडिया से दूर रहने की उनकी और पार्टी की हिदायत भी.
इन अफवाहों में कितनी सच्चाई है और कितनी कल्पना की उड़ान, यह तो इनसे पास-दूर से जुड़े लोग ही जानें, लेकिन इनके उड़ने का फायदा बाहरी और अंदरूनी दोनों तरह के मोदी विरोधी खेमों को तो मिल ही सकता है. बाहरी खेमे को ये अफवाहें चुनाव के दौरान उन्हें तानाशाह प्रचारित कर फायदा उठाने के मौके देती हैं तो दूसरे को इसके बाद की स्थिति का फायदा उठा सकने के.
हां, इसे देखने का एक और महत्वपूर्ण नजरिया यह भी है कि सरकार और उसकी तरफ से मीडिया और जनता को जानकारियां मिलना पिछले कुछ समय से न के बराबर हो गया है. जो जानकारियां मिलती भी हैं वे एकतरफा और सूखी सी होती हैं. इसके कुछ फायदे भी हैं जैसे कि सरकार को कोई बात जनता तक पहुंचानी हो तो उसका सुर एक होता है और वह वक्त से पहले, अधपकी अवस्था में बाहर भी नहीं निकलती है. लेकिन यदि मोदी सरकार, जैसाकि भाजपा के नेता-प्रवक्ता दावा करते हैं, पूरे तन-मन-धन से जन-सेवा के उपायों में लगी है, तो यही संपूर्ण चुप्पी वाली व्यवस्था तमाम भ्रामक मान्यताओं को भी जन्म दे सकती है.
एक राज्य की सरकार में इस व्यवस्था के कुछ फायदे हो सकते हैं.. लेकिन हर वक्त और हर जगह वाले मीडिया और ऐसी ही जनता की नजरों मे रहने वाली केंद्र सरकार के लिए ऐसा करते चले जाना मुमकिन और मुनासिब नहीं है. दिल्ली में खबरें न देने का मतलब खबरें न छपना नहीं है.