संगीत के साथ जैसे उन्हें जीवन वापस मिल गया था. गाना दोबारा शुरू करते हुए उन्हें यह डर था कि पता नहीं इतने समय बाद वो गा भी पाएंगी या नहीं और लोगों पर उनका जादू वैसे ही चलेगा या नहीं. लेकिन जब उन्होंने गाया तो दोबारा उसी तरह की बेपनाह मकबूलियत पाई. ख़ासतौर पर इस दौर में गाई उनकी ग़ज़लों में तो एक अलग ही तासीर मिलती है. वो सारा दर्द जो उन्होंने गायिकी से दूर रहकर बीमारी में भोगा, इन ग़ज़लों में उजाले की तरह चमकता है. ऐसी तड़प उनकी पहले दौर की गायिकी में नहीं थी. हालांकि उसमें भी वो कशिश मौजूद है जो हमेशा बेगम अख़्तर की गायिकी का हुस्न बनी रही. हैरत की बात ये है कि गायिकी की वजह से ज़्यादातर कलाकार खाने-पीने में जिस तरह का परहेज़ करते हैं वो भी उन्होंने कभी नहीं किया. वो अपनी आवाज़ को ख़ुदा की देन मानती थीं. इसी के चलते रिकॉर्डिंग के दिन भी अचार से लेकर आईसक्रीम तक सब चाव से खाती थीं और सिगरेट भी पीती थीं. उनकी शेरफहमी कमाल की थी. यही वजह है कि रागदारी की रियाज़त में भी उन्होंने शेर के हुस्न को बरकरार रखा. जब वो गा रही होतीं तो बैकग्राउण्ड में साज़िन्दों को साज़ लगभग गुम रखने की ताकीद थी ताकि शेर पूरा उभर कर आए. ग़ज़ल के अलावा उपशास्त्रीय संगीत की दूसरी विधाओं जैसे ठुमरी, दादरा और ख़याल गायिकी में भी उनका अंदाज़ एकदम मौलिक था. गायिकी में पंजाब और पूरब अंग का जैसा अद्भुत समन्वय उन्होंने किया उसने बेगम अख़्तर को एकदम निराला बना दिया. हालांकि विशुद्ध शास्त्रीय गायन में उनकी ज़्यादा रुचि नहीं रही, लेकिन ग़ज़ल और दूसरी चीज़ें गाते हुए वो बिल्कुल शास्त्रीय संगीत जैसा माहौल रच देती थीं.
1945 में लखनऊ के बैरिस्टर अब्बासी को अपना हमसफ़र चुना. इसके बाद अख़्तरी बाई फैज़ाबादी बेगम अख़्तर बन गईं और गायिकी से उनका रिश्ता कुछ साल के लिए टूट गया
1951 में कोलकाता में हुए संगीत सम्मेलन में भी उन्होंने शिरकत की, जिसमें शास्त्रीय संगीत के बड़े-बड़े पुरोधा हिस्सा ले रहे थे. यहां भी वो बेहद कामयाब रहीं. आमजन के अलावा कई पंडितों-उस्तादों ने भी उनकी जी खोलकर तारीफ़ की. भारत रत्न मरहूम बिस्मिल्ला खां ने एक दफा बेगम अख़्तर की गायिकी के बारे में बात करते हुए कहा था- ‘बेगम अख़्तर के गले में एक अजीब कशिश थी. जिसे अकार की तान कहते हैं, उसमें अ करने पर उनका गला कुछ फट जाता था और ये उनकी ख़ूबी थी. मगर शास्त्रीय संगीत में यह दोष माना जाता है. एक बार हमने कहा कि बाई कुछ कहो. ज़रा कुछ सुनाओ. वे बोलीं-अमां क्या कहें, का सुनाएं. हमने कहा कुछ भी. बेगम गाने लगीं- निराला बनरा दीवाना बना दे. एक दफे, दो दफे कहने के बाद जब दीवाना बना दे में उनका गला खिंचा तो हमने कहा अहा ! यही तो सितम है तेरी आवाज़ का. वो गला दुगुन-तिगुन के समय लहरा के मोटा हो जाता था. वही तो कमाल था बेगम अख़्तर में.’
दोबारा गाना शुरू करने के बाद जल्द ही बेगम की ज़िंदगी पटरी पर आ गई थी. उनके पास लगातार गाने के प्रस्ताव आ रहे थे. लेकिन इसी बीच 1951 में ही उनकी मां मुश्तरी की मौत के बाद वो तीन-चार महीने फिर संगीत से दूर रहीं. सदमे में थीं. उनका ज़्यादातर वक्त लखनऊ के पसंदबाग़ स्थित अपनी मां की कब्र पर गुज़रा. उनकी ज़िंदगी में मां की भूमिका ही ऐसी थी, जिसकी पूर्ति संभव नहीं थी. बहरहाल तबीयत कुछ संभली तो उन्होंने फिर से गाना शुरू किया. 1952 में बेगम अख़्तर ने ऑल इंडिया रेडियो के अखिल भारतीय संगीत समारोह में शिरकत की और महफिल लूट ली. इसके बाद फिर से बेगम अख़्तर की शोहरत आसमान छूने लगी. रिकॉर्डिंग पर रिकॉर्डिंग होने लगीं. वो पूरे मुल्क में गाने के लिए बुलाई जाने लगीं. फिल्मों के ऑफर भी दोबारा आने लगे. मगर बेगम ने अभिनय पर हामी नहीं भरी. पार्श्वगायन भी नाचरंग (1953), दानापानी (1953) और एहसान (1954) जैसी कुछ ही फ़िल्मों के लिए किया. हालांकि जलसाघर (1958) में ज़रूर वो गायन के साथ-साथ स्क्रीन पर भी दिखीं, क्योंकि ये अंतरराष्ट्रीय फलक पर पहचाने गए फिल्मकार सत्यजीत रे की फिल्म थी, जिनके आग्रह को बेगम ठुकरा नहीं पाईं. अब उन्हें विदेशों से भी न्यौते मिलने लगे थे. ख़ुद भारत सरकार उनसे सांस्कृतिक प्रतिनिधि मंडल का सदस्य बनने का आग्रह कर चुकी थी. 1961 में भारत सरकार के सांस्कृतिक प्रतिनिधिमंडल में शामिल होकर वो पाकिस्तान गईं. वहां उन्होंने ग़ज़लों के साथ-साथ ठुमरी और दादरा का भी जादू चलाया. इस आयोजन में पहली बार बेगम को ये अंदाज़ा हुआ कि हिंदुस्तान की सरहद पार भी लोग दीवानावार उनके संगीत को सुनते हैं. 1963 की अफ़गानिस्तान और 1967 की रूस यात्रा में भी वो इसी तरह सब पर ग़ालिब रहीं. इस बीच एक के बाद एक उन्होंने कई विदेश यात्राएं कीं.
ख़ुद एक तजुर्बेकार गायिका के रूप में स्थापित होने के बाद बेगम ने अपना तजुरबा नई पीढ़ी को देने का मन भी बनाया. लड़कियां गाना सीखें, इस बात के लिए वो हमेशा पेश रहीं. उनकी मां ने उन्हें गाना सिखाने के लिए जो जद्दोजहद की थी, वो उसे भूली नहीं थीं. मां के इंतक़ाल के बाद उन्होंने विधिवत लड़कियों को तालीम देना शुरू किया. उस वक्त तक सिखानेवाले उस्ताद पुरुष ही होते थे, जो अपने शिष्यों के गण्डा बांधकर सिखाना शुरू करते थे. संगीत के क्षेत्र में गण्डा बंधन की परम्परा का बड़ा महत्व है. 1952 में बेगम अख़्तर पहली महिला उस्ताद बनीं, जिन्होंने अपनी शिष्याओं का गण्डा बंधन किया. बेगम ने सबसे पहले शांति हीरानंद और अंजलि चटर्जी को गण्डा बांधकर सिखाना शुरू किया. उसके बाद दूसरी गायिकाओं ने भी अपनी शिष्याओं का गण्डा बंधन शुरू कर दिया. बेगम का सिखाने का तरीका भी नए ढंग का था. अकेले कमरे में सीखनेवाले को बैठाकर रियाज़ करवाने की वो क़ायल नहीं थीं. वे शिष्याओं को अपनी महफिल में साथ ले जातीं थीं और अपने साथ-साथ गाने को कहती थीं, और इसके बाद अगर ख़ास ज़रूरत पड़ी, तो अलग से भी सिखाती थीं. अख़्तर की शिष्याओं में शांति हीरानंद, अंजलि चटर्जी, रीता गांगुली, ममतादास, शिप्रा बोस आदि हैं. महाराज हुसैन निशात और सग़ीर खां आदि के रूप में उनके कुछ शिष्य भी रहे. बेगम ख़ुद इस्लाम में यकीन रखती थीं, लेकिन मजहबी भेदभाव से कोसों दूर थीं. उनकी शिष्याओं में ग़ैर-मुस्लिम लड़कियां ही अधिक रहीं.
शोहरत से इतर 1950 से 1974 का दौर उनकी गायिकी की शिनाख़्त के लिहाज से सबसे मज़बूत दौर था और काम के लिहाज से व्यस्ततम. देश-विदेश में अब वो हिंदुस्तानी उपशास्त्रीय गायन का सबसे बड़ा नाम थीं. 1968 में भारत सरकार ने संगीत में उनके योगदान के लिए उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया. 1972 में उन्हें केन्द्रीय संगीत नाटक अकादमी अवॉर्ड और 1973 में उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी अवॉर्ड मिला. देश के दूसरे बड़े संगीत संस्थानों ने भी उन्हें सम्मानित किया. उनके शहर लखनऊ के मशहूर भातखण्डे संगीत संस्थान ने उन्हें प्रोफेसर का पद दिया. कामयाबी की इस मसरूफ़ियत के बीच उनकी तबीयत भी उन्हें अपनी अहमियत की चेतावनी देता रहा. 1967 में उन्हें दिल का पहला दौरा पड़ा. ठीक होने के तुरंत बाद वे फिर गाने लगीं. जिंदगी के आख़िरी साल 1974 में दोबारा उन्हें दौरा पड़ा. तबीयत संभली, तो फिर गायिकी शुरू. असल में गायिकी से दूर रहना उनके बस का ही न था. अक्टूबर 1974 में उन्होंने आकाशवाणी बंबई के सम्मेलन में शिरकत की और अपने इंतक़ाल के एक हफ्ते पहले आकाशवाणी के लिए अपनी आख़िरी ग़ज़ल ‘सुना करो मेरी जां…’ रिकॉर्ड की. ये उन्हीं कैफ़ी आज़मी का कलाम था, जिन्होंने बेगम अख़्तर की गायिकी से मुतासिर होकर ही दोबारा ग़ज़लें कहना शुरू किया था.
गायन के क्षेत्र में जैसा नाम बेगम ने कमाया, वैसा लता मंगेशकर के अलावा किसी गायिका के हिस्से में नहीं आया. बेगम ख़ुद लता और बाद की तमाम गायिकाओं की प्रेरणा रहीं
30 अक्टूबर 1974 को अहमदाबाद के एक कार्यक्रम में गाते हुए एक बार फिर उन्हें दिल का दौरा पड़ा और इसी रात उनका इंतक़ाल हो गया. 1975 में भारत सरकार ने बेगम अख़्तर को मरणोपरांत पद्मभूषण से सम्मानित किया. उनकी मौत की ख़बर सुनकर दुनियाभर में उनके प्रशंसकों की हालत बुरी थी. कहा जाता है कि लखनऊ में तो उनका एक चाहनेवाला ये ख़बर सुनकर पागल हो गया था और लखनऊ की सड़कों पर हाए अख़्तरी-हाय अख़्तरी की आवाज़ लगाता उसी तरह भटकता था जिस तरह मजनूं दश्त में. बेगम की इच्छा के मुताबिक उन्हें लखनऊ के ही पसंदबाग़ स्थित अपनी मां की कब्र के पड़ोस में दफ़नाया गया. बेगम की मौत के बाद लंबे समय तक ये जगह लगभग उपेक्षित रही. आसपास के लोगों तक को इसके बारे में जानकारी नहीं थी. फिर अभी तीन साल पहले लखनऊ की जानी-पहचानी सामाजिक संस्था ‘सनतकदा’ ने बेगम की शिष्या शांति हीरानंद के सहयोग से उनकी मज़ार का जीर्णोद्धार और सौंदर्यीकरण करवाया. साथ ही इस बात के लिए भी प्रयास किया कि इस जगह के बारे में ज़्यादा से ज़्यादा लोग जानें. फेसबुक पर भी बेगम अख़्तर की मज़ार का एक पेज बनाया गया. संस्था के ही प्रयास से हर साल बेगम के जन्मदिन पर यहां संगीत की एक नशिस्त भी आयोजित होती है, जिसमंे शुभा मुद्गल और शांति हीरानंद आदि बेगम को श्रद्धांजलि दे चुकी हैं.
तकरीबन चालीस साल की अपनी गायिकी में बेगम अख़्तर ने जिस चीज को गा दिया वो अमर हो गई. बहज़ाद लखनवी कहा करते थे कि वो हश्र तक सिर्फ इसी वजह से याद रखे जाएंगे क्योंकि बेगम अख़्तर ने उनको गा दिया. बेगम अख़्तर ने बहज़ाद की कई ग़ज़लें गाईं जिनमें ‘दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे…’ सबसे कामयाब हुई. सिर्फ बहज़ाद ही नहीं उस दौर के तमामतर शाइरों की ख़्वाहिश ये थी कि बेगम अख़्तर उनका कलाम गा दें. 1970 में जब शकील बदायूंनी बीमार पड़े और मृत्युशैय्या पर उन्होंने अपनी आिख़री ग़ज़ल ‘मेरे हमनफ़स मेरे हमनवा’ कही, तो उनकी भी आख़िरी ख्वाहिश यही थी कि बेगम अख़्तर उनकी इस ग़ज़ल के साथ इंसाफ़ कर दें. बेगम अख़्तर ने शकील की आख़िरी ख्वाहिश का एहतराम करते हुए इस ग़ज़ल को यूं गाया कि ये ग़ज़ल हमेशा के लिए बेगम अख़्तर की पहचान बन गई. बेगम ने शकील की कई ग़ज़लें गाईं, जिनमें ‘ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया, ज़िंदगी का दर्द लेकर इंक़लाब आया तो क्या…’ वगैरह बहुत कामयाब हुईं. कैफी से उनके रिश्ते की बात पहले हो चुकी है. फ़ैज़ एवं मजरूह के कलाम को भी उन्होंने गाकर मकबूलियत दी. कुछ तो दुनिया की इनायात के साथ सुदर्शन फाकिर को भी बेगम अख़्तर ने जाविदां कर दिया. अपने समकालीनों के अलावा बेगम ने पुराने शाइरों को भी शिद्दत से गाया. मीर, ग़ालिब, ज़ौक और मोमिन को पहली बार आवाम के बीच उनकी गायिकी ही ले गई. ‘वो जो हममें तुममें क़रार था’, ‘उल्टी हो गईं सब तदबीरें’ और ‘ज़िक्र उस परीवश’ की कशिश कौन भूल सकता है. ग़ज़लों के अलावा ‘कैसी धूम मचाई’, ‘कोयलिया मत कर पुकार’, ‘हमरी अटरिया पे आओ संवरिया’, ‘ज़रा धीरे से बोलो कोई सुन लेगा’, ‘चला हो परदेसी नैना लगाए’ जैसे असंख्य ठुमरी-दादरे भी बेगम अख़्तर की तरन्नुम पर इतराते हैं. इसके अलावा मज़हबी कलाम भी उन्होंने बहुत गाया. अवध के मोहर्रम से उनका रूहानी रिश्ता था.
गायन के क्षेत्र में जैसा सम्मान बेगम अख़्तर ने कमाया वैसा लता मंगेशकर के अलावा मुल्क की किसी गायिका के हिस्से मे नहीं आया. बेगम अख़्तर ख़ुद लता मंगेशकर और उनके बाद की तमाम गायिकाओं की प्रेरणा रहीं हैं. दोनों से एक रूहानी रिश्ता रखनेवाले मिश्र बताते हैं- ‘बेगम अख़्तर और लता मंगेशकर के बीच जो संबंध है, उसके संयोजक मदन मोहन साहब हैं. लता मंगेशकर ने उनके लिए बहुत सी कालजयी ग़ज़लें गाईं हैं. मदन मोहन जब भी किसी नई ग़ज़ल की धुन तैयार करते थे, तो सबसे पहले उसे बेगम अख़्तर को सुनाते थे और बेगम उसमें ज़रूरी तरमीम करतीं थीं. इसके बाद लताजी इन धुनों को जैसे गाती थीं, मदन मोहन उसे भी बेगम को सुनाते थे और बेगम लता की गायिकी से जुड़े सुझाव भी मदन मोहन को देती थीं. कई दफ़ा तो उन्होंने मदन मोहन से ये तक कहा कि तुम लता की आवाज़ को ठीक तरह इस्तेमाल नहीं कर पाए. इस तरह लता मंगेशकर, मदन मोहन और बेगम अख़्तर तीनों का एक दूसरे से ग़ज़ल का रिश्ता था’. मिश्र कहते हैं कि लता मंगेशकर ने उन्हें बताया कि अपना एक गाना मुझे ख़ास पसंद नहीं है, लेकिन बेगम अख़्तर को ये बहुत पसंद था. गाना था ‘मेरा गांव मेरा देश’ (1971) फिल्म का- ‘मार दिया जाए या छोड़ दिया जाए…’. लता मंगेशकर को हैरत होती है, संजीदा गायनवाली बेगम साहिबा को ये गाना कैसे पसंद आया?
अपनी आवाज़ और शख़्सियत से अपने मुरीदों को हैरत में डालना बेगम अख़्तर का सबसे पसंदीदा शग़ल था. महान फ़िल्म संगीतकार नौशाद बेगम अख़्तर के बारे में कहते थे- ‘उनकी आवाज़ सुननेवाले को चुंबक की तरह खींचती है’. इस चुंबक की ताकत सदियों तक बरकरार रहेगी. इस ताकत को अगर दो मिसरों में बयान करना हो, तो मोमिन के इस शेर से बेहतर कुछ नहीं-
उस ग़ैरत-ए-नाहीद की हर तान है दीपक
शोला सा लपक जाए है आवाज़ तो देखो!
(लेखक शोधार्थी एवं किस्सागो हैं)