अकेली खड़ी कांग्रेस !

एक दिन पहले कांग्रेस ने कोटला रोड पर नये दफ़्तर को अपना ठिकाना बना लिया। यह तब हुआ है, जब कांग्रेस ने कहा है कि उसके नेतृत्व में बना इंडिया गठबंधन अब अस्तित्व में नहीं है; क्योंकि यह सिर्फ़ लोकसभा चुनाव के लिए बना था। आज से 47 साल पहले पार्टी सांसद वेंकटस्वामी ने कांग्रेस को 24 अकबर रोड वाला अपना बंग्ला दफ़्तर बनाने के लिए दे दिया था; जहाँ कल सुबह तक यह उसका दफ़्तर रहा। आपातकाल के बाद कांग्रेस 1977 में सत्ता से बाहर हो गयी थी और पार्टी में विभाजन के बाद कांग्रेस के पास अपना कोई दफ़्तर ही नहीं था। नये दफ़्तर में आने के दो साल बाद ही इंदिरा गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने 1980 के लोकसभा चुनाव में 353 सीटें जीतकर जबरदस्त वापसी की थी। अब साढ़े चार दशक के बाद कांग्रेस फिर 1978 जैसी स्थिति में खड़ी है, अकेली। इंडिया गठबंधन के साथी उससे दूर चले गये हैं और कांग्रेस नेताओं के पास अवसर है कि वे पार्टी को नये सिरे से और अपने पैरों पर खड़ा करें।

कांग्रेस अब ख़ुद को मज़बूत करने के क़वायद कर सकती है, जिसमें सबसे पहला काम वो पार्टी संगठन में बड़े स्तर पर फेरबदल करेगी। पार्टी के सबसे असरदार नेता राहुल गाँधी एक और भारत यात्रा निकाल सकते हैं। अपने शासित राज्यों की सरकारों के काम की समीक्षा करके पार्टी नेतृत्व को जहाँ लगेगा, फेरबदल किया जाएगा। एक-दो राज्यों में मुख्यमंत्री बदले जाने की ज़मीन तैयार हो रही है। दिल्ली के चुनाव से निबटने के बाद यह सारा काम होगा, क्योंकि साल के आख़िर में बिहार विधानसभा का चुनाव भी होना है। पार्टी को हाल की घटनाओं से सबक़ सीखने की ज़रूरत है, क्योंकि राष्ट्रीय पार्टी होने और पूरे देश में जनाधार होने के बावजूद उसके सहयोगियों ने उसे न सिर्फ़ हल्के में लिया है, बल्कि कई मौक़ों पर उसे जलील करने में भी क़सर नहीं छोड़ी है।

कांग्रेस को यह समझने की ज़रूरत है कि उसके ज़्यादातर सहयोगी उसी के जनाधार से निकले दल हैं। वो किसी भी क़ीमत पर कांग्रेस को मज़बूत नहीं होने देना चाहेंगे। कांग्रेस के मज़बूत होने का मतलब है- क्षेत्रीय दलों का सिकुड़ जाना। यही कारण है कि इंडिया गठबंधन में सबसे ज़्यादा आधार वाला दल होने के बावजूद उसके क्षेत्रीय सहयोगी दलों ने कांग्रेस को सीटें देने के लिए भीख माँगने जैसी स्थिति में पहुँचा दिया। देश और कमोवेश सभी राज्यों में सत्ता चला चुकी कांग्रेस के लिए यह स्थिति अपमानजनक रही है। इसमें उसका ख़ुद का भी दोष है, क्योंकि उसने राज्यों में अपने संगठन को मज़बूत करने की जगह छिटपुट सीटें लेकर चुनावी गठबंधन किये। उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में लोकसभा चुनाव में 17 सीटें लेने के लिए कांग्रेस को अखिलेश यादव ने कई हफ़्ते इंतज़ार करवाया।

देश के कई ऐसे राज्य हैं, जहाँ कांग्रेस का सांगठनिक ढाँचा शून्य हो गया है और उसके पास कार्यकर्ताओं की कमी है। इनमें उत्तर प्रदेश भी शामिल है, जहाँ उसे एक मज़बूत और चर्चित चेहरे को अध्यक्ष के रूप में आगे करके संगठन को मज़बूत करने की ज़िम्मेदारी दे देनी चाहिए। बल्कि कांग्रेस को संगठन मज़बूत करने की शुरुआत ही उत्तर प्रदेश जैसे महत्त्वपूर्ण राज्य से करनी चाहिए। इसका व्यापक संदेश जाएगा और कांग्रेस चर्चा में आएगी। ऐसा ही दूसरे राज्यों में करना होगा। संगठन में फेरबदल के नाम पर यदि कांग्रेस कुछ चेहरों को इधर-उधर करती है, तो उसका कोई लाभ नहीं होगा।

कांग्रेस को विरोधी दलों से वो सभी राज्य वापस लेने की ज़मीन भी तैयार करनी होगी, जहाँ उसकी सत्ता रही है। पिछले साल के लोकसभा चुनाव के वक़्त जब इंडिया गठबंधन बना था, तब किसी ने नहीं कहा था कि यह सिर्फ़ लोकसभा चुनाव के लिए बनाया गया है। गठबंधन भले सत्ता में नहीं आया था; लेकिन भाजपा की 63 सीटें कम करके उसे 240 सीटों पर ले आया था। गठबंधन की अपनी सीटें भी 234 हो गयी थीं, जिससे लोकसभा में एक मज़बूत विपक्ष का रास्ता साफ़ हो गया था। इसके बाद हुए हरियाणा, जम्मू कश्मीर, महाराष्ट्र और झारखण्ड विधानसभाओं के चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन कुछ ख़ास नहीं रहा। बेशक झारखण्ड में उसने जेएमएम के साथ सरकार बनायी; लेकिन हरियाणा में उसे अप्रत्याशित हार मिली और महाराष्ट्र में तो पूरे इंडिया गठबंधन का ही बिस्तर गोल हो गया। जम्मू-कश्मीर में भी कांग्रेस का प्रदर्शन बेहद ख़राब रहा।

उत्तर प्रदेश की नौ सीटों के उपचुनाव में कांग्रेस के अखिलेश यादव के साथ नहीं जाने से समाजवादी पार्टी को नुक़सान झेलना पड़ा और उसे लोकसभा चुनाव जैसी सफलता उन उपचुनावों में नहीं मिल पायी। साल 2009 में जब कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में 21 लोकसभा सीटें जीत ली थीं, तब लगा था कि पार्टी राज्य में अपने पाँव जमा लेगी; लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। तब कांग्रेस के पास देश के सबसे बड़े राज्य में ख़ुद को एक बार फिर स्थापित करने का अवसर आया था; लेकिन उसने इसकी कोई पहल नहीं की। अब कांग्रेस को अपने अकेले होने का पहला इम्तिहान दिल्ली विधानसभा और उसके बाद महाराष्ट्र के स्थानीय निकायों के चुनाव में देना है।

कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में दो साल पूरे कर चुके मल्लिकार्जुन खड़गे 82 साल के हो चुके हैं और उनके स्वास्थ्य को देखते हुए उनकी जगह नया अध्यक्ष भी शायद कांग्रेस आने वाले महीनों में चुनेगी। पार्टी के भीतर काफ़ी नेताओं का मानना है कि प्रियंका गाँधी को यह ज़िम्मा सौंप दिया जाता है, तो पार्टी संगठन में नयी ऊर्जा आ जाएगी। इसमें कोई दो-राय नहीं कि प्रियंका गाँधी करिश्मा रखने वाली नेता हैं; लेकिन चूँकि राहुल गाँधी लोकसभा में विपक्ष के नेता हैं, गाँधी परिवार शायद ऐसा न करना चाहे। हालाँकि यह तय है कि प्रियंका गाँधी अध्यक्ष बनीं, तो वह इसे एक चुनौती के रूप में लेंगी और शायद वह सब कुछ कर पाएँ, जिसकी पार्टी को सख़्त ज़रूरत है। गाँधी परिवार को देश की राजनीति में एक अद्भुत बढ़त यह है कि इस परिवार के लोग हर जाति, धर्म और समुदायों में स्वीकार्य रहते हैं।

प्रियंका के अलावा राजस्थान के मुख्यमंत्री रहे अशोक गहलोत, जो 73 साल के हैं; भी कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में बेहतर करने के क्षमता रखते हैं। पिछड़े वर्ग से हैं और कांग्रेस की पुरानी संस्कृति से लेकर नयी पीढ़ी तक को समझते हैं। कई मौक़ों पर गाँधी परिवार और कांग्रेस के संकट मोचक रहे हैं। उनके पास संगठन से लेकर सरकार चलाने तक का ख़ूब अनुभव है और देश की राजनीति से बख़ूबी परिचित हैं। राजस्थान में ही उनके साथी सचिन पायलट को भी क्षमतावान नेता माना जाता है और पार्टी ने युवा नेता को अवसर देने की सोची, तो उनका नाम सबसे ऊपर होगा। यह भी हो सकता है कि पार्टी किसी को अध्यक्ष बनाकर तीन-चार कार्यकारी अध्यक्ष बना दे, जिनमें प्रियंका गाँधी और सचिन पायलट जैसे चेहरे हों। प्रियंका चूँकि केरल से सांसद हैं, उनके आने से संगठन को दक्षिण का प्रतिनिधित्व देने का अवसर भी मिल जाएगा।

हाल के दिनों में पश्चिम बंगाल की शक्तिशाली नेता ममता बनर्जी से लेकर अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव, उद्धव ठाकरे, यहाँ तक कि शरद पवार जैसे कांग्रेस के पुराने सहयोगी ने भी कांग्रेस से विमुखता दिखायी है। यह सभी दिल्ली के चुनाव में कांग्रेस की जगह आम आदमी पार्टी को समर्थन का ऐलान कर चुके हैं, जिससे कांग्रेस अकेली पड़ गयी है। शिवसेना नेता संजय राउत कह रहे हैं कि कांग्रेस को इंडिया गठबंधन को सँभालना चाहिए था। कांग्रेस ख़ुद ही इसमें इच्छुक नहीं दिख रही। इसका कारण यही हो सकता है कि पार्टी अब ख़ुद को सांगठनिक रूप से खड़ा करना चाहती हो। उसके बाद वह राज्यों के हिसाब से गठबंधन कर सकती है और अपने पुराने संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) को फिर ज़िन्दा कर सकती है; क्योंकि तामिलनाडु में डीएमके जैसे सहयोगी आज भी कांग्रेस के ही साथ खड़े हैं। कुछ और राज्यों में भी ऐसा ही है।

इस स्थिति में दिल्ली का नया दफ़्तर कांग्रेस के लिए एक संकल्प हो सकता है- अपने पैरों पर खड़ा होने का संकल्प। इसका नाम इंदिरा गाँधी के नाम पर इंदिरा भवन रखा गया है, जिन्होंने 1980 में इसी तरह के संकल्प के बूते सत्ता में ज़ोरदार वापसी की थी। कहते हैं कि कांग्रेस ने नये दफ़्तर का मुख वास्तु के लिहाज़ से कोटला मार्ग की तरफ़ कर दिया है, जबकि यह भवन अपने प्रवेश द्वार के कारण आरएसएस चिंतक दीनदयाल उपाध्याय के नाम पर बने मार्ग पर पड़ता था। अब कांग्रेस के इस दफ़्तर का प्रवेश द्वार कोटला मार्ग की तरफ़ करने से इसका पता भी 9-ए, कोटला मार्ग हो गया है। कांग्रेस नये दफ़्तर में आकर शुभ फल देखना चाहती है। नया दफ़्तर उसे यह अवसर दे रहा है। कांग्रेस अकेली हुई है; लेकिन कभी-कभी अकेला होना ख़ुद के सामर्थ्य को जगा देने की राह खोल देता है।