चौधरी बीरेंद्र सिंह इस तरह के सभी प्रश्नों से इत्तेफाक रखते हैं. और अपनी ही सरकार से लड़ाई लड़ने की बात करते हैं. पहले जहां इस तरह की लड़ाई अपनी बात सुनाने और कथित न्याय पाने की थी वहीं समय गुजरने के साथ यह हुड्डा विरोध और उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाए जाने में तब्दील हो गई है. हुड्डा को लेकर नाराजगी किस कदर समय के साथ बढ़ती गई उसकी झलक उस समय भी नजर आई जब लोकसभा चुनावों के मद्देनजर हुड्डा प्रदेश भर में यात्राएं कर रहे थे. उस दौरान ऐसे तमाम क्षेत्र थे जहां हुड्डा के पहुंचने पर पार्टी कार्यकर्ता ही विकास नहीं तो वोट नहीं जैसे नारे लगा रहे थे.
हुड्डा का विरोध कर रहे नेता उन्हें घेरने के पीछे किसी तरह की राजनीति से इनकार करते हैं. ईश्वर सिंह कहते हैं, ‘प्रदेश में दलितों के उत्पीड़न का मामला उठाना कहां से गलत है. इसमें क्या राजनीति है?’ चौधरी बीरेंद्र सिंह भी कुछ ऐसी ही बात करते हैं. वे कहते हैं, ‘अगर नेता अपने लोगों पर हो रहे अत्याचार, विकास में अपने क्षेत्र के साथ हो रहे भेदभाव का मामला उठाते हैं तो ये कहां से गलत है. ये जनप्रतिनिधि हैं. कल के दिन जब ये वोट मांगने जाएंगे तो जनता नहीं पूछेगी कि विधायक और सांसद रहते तुमने हमारे लिए क्या किया जबकि तुम्हारी अपनी सरकार राज्य में थी.’
चाहे रॉबर्ट वाड्रा का मामला हो या फिर राज्य में उद्योगपतियों को औने-पौने दामों में जमीन देने का मामला, हुड्डा पर भ्रष्टाचार के आरोप भी खूब लगे हैं. हुड्डा जिस सरकार के मुखिया हैं उस सरकार से जुड़े लोगों पर भी पिछले कुछ समय में भ्रष्टाचार के जमकर आरोप लगे हैं. कुछ समय पहले ही ऐसी कई सीड़ीज़ आईं जिनमें कैमरे के सामने कांग्रेस के विधायक और नेता तथा उनके परिवार वाले घूस की एवज में लैंड यूज बदलवाने और अन्य काम कराने की बात करते दिखाई दिए. हुड्डा सरकार में मुख्य संसदीय सचिव और बवानीखेड़ा से विधायक तथा हुड्डा के करीबी रामकिशन फौजी का स्टिंग ऑपरेशन सामने आया जिसमें वे लैंड यूज बदलवाने के बदले पांच करोड़ों रुपये की रिश्वत मांग रहे थे. रामकिशन के अलावा प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री राव नरेंद्र सिंह, मुख्य संसदीय सचिव विनोद भयाना, रतिया के विधायक जरनैल सिंह और बरवाला के विधायक रामनिवास घोड़ेला के भी लैंड यूज और अन्य मामलों में कथित रूप से करोड़ों रुपये रिश्वत मांगने वाले टेप सामने आए.
पार्टी की बुरी स्थिति किस तरह से इसके नेतृत्व की लाई हुई है उसका एक उदाहरण यह भी है कि जो भी नेता उसे छोड़कर भाजपा में शामिल हुए और लोकसभा का चुनाव लड़े वे सभी जीत गए. उदाहरण के तौर पर राव इंद्रजीत सिंह ने 2014 का लोकसभा चुनाव भाजपा के टिकट पर गुड़गांव से लड़ा और विजयी रहे. इसी तरह भिवानी की महेंद्रगढ़ सीट से धर्मवीर सिंह ने कांग्रेस छोड़कर भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ा और जीत हासिल की. धर्मवीर चुनाव से एक महीने पहले तक हुड्डा सरकार में मुख्य संसदीय सचिव हुआ करते थे. सोनीपत से रमेश कौशिक ने भी भाजपा के टिकट पर जीत दर्ज की.
पार्टी के नेता बताते हैं कि भाजपा के पास तो हरियाणा में चुनाव लड़ने के लिए नेता तक नहीं थे. उसने कांग्रेस के असंतुष्ट नेताओं को अपने साथ किया और लोकसभा चुनावों में जीत दर्ज की. कुछ इसी तरह का प्रयोग भाजपा आने वाले विधानसभा चुनावों में भी कर सकती है. हाल ही में भाजपा के पूर्व अध्यक्ष राजनाथ सिंह और वर्तमान अध्यक्ष अमित शाह से चौधरी बीरेंद्र सिंह की मुलाकात के बाद यह चर्चा तेजी से चली है कि बीरेंद्र सिंह भी भाजपा का दामन थाम सकते हैं. भाजपा के सूत्र बताते हैं कि प्रदेश के कई वरिष्ठ कांग्रेसी नेता पार्टी के संपर्क में हैं. इन नेताओं के साथ ही प्रदेश के दर्जन भर से अधिक विधायक भी पार्टी नेतृत्व के संपर्क में है.
प्रदेश की राजनीति के जानकार बताते हैं कि भजनलाल के जाने के बाद गैर जाट तो पार्टी से दूर हो ही चुका था. लोकसभा चुनावों ने यह साबित कर दिया कि जाट मतदाता भी अब पार्टी से दूरी बना रहा है. जबकी हुड्डा को सीएम बनाने में उनके जाट होने का विशेष योगदान रहा था. आज वह फिर से लोकदल की और मुड़ा है. दैनिक जागरण के पंजाब-हरियाणा संस्करण की संपादक मीनाक्षी कहती हैं, ‘जाटों का एक बडा वर्ग चौटाला के जेल जाने से दुखी है. उसके मन में पार्टी के लिए सहानुभूति का भाव तेजी से उमड़ा है. उसका उदाहरण आपको लोकसभा चुनावों में दिखा. विधानसभा में भी स्थिति कुछ ऐसी ही रहने की संभावना है. जाट मतदाता हुड्डा से इस बात को लेकर खफा है कि कैसे एक जाट ने दूसरे जाट को जेल भिजवा दिया.’
ऐसा नहीं है कि प्रदेश के नेताओं ने शीर्ष नेतृत्व को अपनी मांगों और हुड्डा को लेकर अपनी नाराजगी से परिचित नहीं कराया. लेकिन हर बार की स्थिति ऐसी ही रही कि शीर्ष नेतृत्व ने उसे एक कान से सुनकर दूसरे से बाहर कर दिया. हुड्डा को लेकर पार्टी हाईकमान के सामने अपनी आपत्ति दर्ज कराने की औपचारिक शुरुआत करीब दो साल पहले हुई थी. पार्टी के एक नेता कहते हैं, ‘जब प्रदेश में हुड्डा को लेकर विरोध तेज होता गया तो प्रदेश के तमाम बड़े नेताओं को राहुल गांधी ने मिलने के लिए बुलाया. सभी ने अपनी नाराजगी उनके सामने रखी. उनसे कहा कि हुड्डा प्रदेश में पार्टी को बर्बाद कर रहे हैं. अगर ऐसे ही चला तो हमलोग आगामी लोकसभा हार जाएंगे. नेताओं ने तथ्यों और तर्कों के आधार पर अपनी बात रखी. राहुल जी ने भरोसा दिलाया था कि वे हुड्डा से इस बारे में बात करेंगे और जल्द ही चीजें ठीक हो जाएंगी. लेकिन कुछ ठीक नहीं हुआ. हां इतना हुआ कि हुड्डा और हठी हो गए.’
गिरता प्रदर्शन
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इस मुलाकात के बाद प्रदेश के नेताओं की करीब आधा दर्जन से अधिक मुलाकातें राहुल गांधी से हुईं जिनमें इन नेताओं ने हुड्डा की कार्यशैली, विकास को लेकर भेदभाव समेत तमाम मसलों को उठाया. बीरेंद्र सिंह कहते हैं, ‘हम कई बार राहुल गांधी से मिले. उनके सामने अपनी बात रखी लेकिन चीजें जस की तस बनी रहीं. प्रदेश कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘किसके पास आप अपनी बात रखने जाएंगे. हाईकमान को लगता है कि हुड्डा सब कुछ अच्छा कर रहे हैं. वे उनकी आंखों का तारा बने हुए हैं. ऐसे में जो आवाज उठा रहा है वह हाईकमान की आंख की किरकिरी ही बनेगा.’
पार्टी नेताओं में इस बात को लेकर हताशा चरम पर है कि उनकी सुनवाई नहीं हो रही. प्रदेश सरकार के एक मंत्री कहते हैं, ‘हाईकमान धृतराष्ट्र बन चुका है. उसे हुड्डा में कुछ भी गलत दिखाई नहीं दे रहा. पार्टी ताश के पत्तों की तरह राज्य में भरभराकर गिर रही है लेकिन हुड्डा की गड़बड़ियों को नेतृत्व नजरअंदाज कर रहा है. हाईकमान द्वारा पार्टी को बर्बाद करने का ये ज्वलंत उदाहरण है.’ मीनाक्षी कहती हैं, ‘हुड्डा के हाईकमान से मधुर संबंध हैं. यही कारण है कि उनके विरोधियों की बातें शीर्ष नेतृत्व पर असर नहीं करतीं.
हुड्डा की राजनीतिक ताकत गांधी परिवार के प्रति उनकी भक्ति से निकलती है. इसकी शुरूआत करीब दो दशक पहले हुई थी. सन 1996 में सोनिया गांधी को अध्यक्ष बनाने के लिए कांग्रेस के भीतर जिस आक्रामक मुहिम की शुरुआत हुई उसके रणनीतिकारों में हुड्डा भी शामिल थे. कांग्रेस के एक नेता कहते हैं, ‘राव साहब को हटाने के लिए 24 सांसदों वाले ग्रुप में हुड्डा भी शामिल थे. यहीं से हुड्डा का गांधी परिवार से करीबी रिश्ता बनता चला गया.’
जानकार बताते हैं कि हुड्डा के प्रति गांधी परिवार का प्रेम उनके ‘कमाऊ पूत’ होने से भी जुड़ा है. हरियाणा सरकार में एक वरिष्ठ मंत्री कहते हैं, ‘पार्टी को अन्य कांग्रेस शासित राज्यों की तुलना में सबसे अधिक पैसा हुड्डा जी ही पहुंचाते रहे हैं.’ पार्टी की झोली में पैसे डालने के साथ ही सोनिया गांधी के दामाद रॉर्बर्ट वाड्रा की अपने कार्यकाल में खिदमत करने के कारण भी हुड्डा गांधी परिवार की चहेते बने हुए हैं.
हुड्डा पर हाईकमान की कृपा के तार उनके पुत्र दीपेंद्र हुड्डा की राहुल गांधी से नजदीकी से भी जुड़ते हैं. दीपेंद्र राहुल टीम के सदस्य हैं और उनके करीबी लोगों में गिने जाते हैं. राहुल गांधी ने दीपेंद्र को पार्टी के सोशल मीडिया विभाग की न सिर्फ जिम्मेंवारी सौंपी है बल्कि उन्हें अपनी क्विक रिस्पांस टीम में भी शामिल किया है. हुड्डा के एक विरोधी कहते हैं कि हुड्डा की कुर्सी बचाने में उनके बेटे दीपेंद्र की एक बड़ी भूमिका है. उनके मुताबिक अपने सांसद पुत्र दीपेंद्र को मुख्यमंत्री ने एक ही काम दे रखा है. वह है राहुल को उनके आलोचकों के प्रभाव में आने से रोकना. इस तरह से प्रदेश के नेता जब भी राहुल के पास हुड्डा की शिकायत करने पहुचते हैं तो मुख्यमंत्री को पहले ही पता चल जाता है. हालांकि हरियाणा में लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की जबर्दस्त हार हुई है लेकिन इनके बाद दीपेंद्र की स्थिति राहुल की टीम में और मजबूत हो गई है. कारण है कि राहुल की युवा टीम में से केवल ज्योतिरादित्य सिंधिया और दीपेंद्र ही मोदी की इस लहर से पार पाने में सफल रहे हैं.
हुड्डा के गांधी परिवार के करीबी होने और वहां तक अपनी बात पहुंचाकर अपने विरोधियों के पर कतरने की उनकी ताकत उस समय भी दिखी जब जून 2013 में केंद्रीय कैबिनेट में फेरबदल होने वाला था. भ्रष्टाचार का आरोप लगने की वजह से पवन बंसल द्वारा मंत्रिपद छोड़ने के बाद उस समय रेल मंत्री के लिए राज्य सभा सदस्य बीरेंद्र सिंह का नाम तय किया गया था. बीरेंद्र को सरकार की तरफ से औपचारिक तौर पर इसकी सूचना भी दे दी गई थी. लेकिन शपथ ग्रहण समारोह के एक दिन पहले बीरेंद्र के पास खबर आई कि उन्हें फिलहाल रेल मंत्री नहीं बनाया जा रहा है. बीरेंद्र को मंत्री बनने से रोकने में हुड्डा के हाथ की चर्चा दिल्ली से लेकर हरियाणा तक रही.
इसके दो महीने बाद ही बीरेंद्र को दूसरी शिकस्त तब झेलनी पड़ी जब जींद में उन्होंने राजीव गांधी की जयंती पर एक रैली तय की. उन्होंने रैली में सोनिया गांधी को भी बुलाया था. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के रैली में आने का खूब प्रचार किया गया, लेकिन पिछली बार की ही तरह आखिरी वक्त में हुड्डा फिर कामयाब रहे. अंतिम समय पर सोनिया ने रैली में आने में असमर्थता जाहिर कर दी.
टेनिस खेलने के शौकीन हुड्डा ने हरियाणा में वफादारी की एक अपनी ही संस्कृति विकसित की है. इसके तहत पिछले नौ सालों में हुड्डा की वफादारी करने वाले ज्यादातर अधिकारियों को रिटायर होने के अगले दिन ही सरकार ने किसी महत्वपूर्ण पद से नवाज दिया.
आज हुड्डा पर भले तमाम तरह के आरोप लग रहे हैं, उन्हें हटाए जाने की मांग की जा रही है लेकिन शीर्ष नेतृत्व ने हुड्डा को हटाने से इंकार कर दिया है. हरियाणा के प्रभारी शकील अहमद कहते हैं, ‘पार्टी नेतृत्व ने यह तय किया है कि हरियाणा में विधानसभा चुनाव से पहले नेतृत्व परिवर्तन नहीं होगा.’ पार्टी का तर्क है कि चुनाव चूंकि इतने करीब आ चुके हैं कि इस समय मुख्यमंत्री बदलने से फायदे की जगह नुकसान ही होगा.
पार्टी नेतृत्व के इस फैसले पर जहां हुड्डा विरोधी कैंप में मायूसी है और नेता हाईकमान के इस निर्णय को विनाश काले विपरीत बुद्धि बता रहे हैं. कुमारी शैलजा कहती हैं, ‘पद छोड़ना तो दूर की बात है मुख्यमंत्री ने तो हार की जिम्मेदारी तक नहीं ली. ऐसा लग रहा है मानो हारने की सारी जिम्मेदारी केंद्र की थी. राज्य सरकार की कोई गलती ही नहीं थी.’ वहीं बीरेंद्र सिंह जैसे नेताओं को अभी भी उम्मीद है कि पार्टी शायद अपने फैसले पर पुनर्विचार करेगी. बीतचीत में वे कहते हैं, ‘ये सही है कि हाईकमान ने सीएम बदलने की मांग को खारिज कर दिया है लेकिन आप जानते नहीं ये कांग्रेस है यहां आधी रात को मुख्यमंत्री बदल दिए जाते हैं.’ बीरेंद्र यह तय कर चुके हैं कि अगर हुड्डा के नेतृत्व में आगामी विधानसभा चुनाव लड़ा जाता है वे विधानसभा चुनाव नहीं लड़ेंगे. एआईसीसी की सदस्य और बीरेंद्र सिंह की पत्नी प्रेमलता कहती हैं, ‘सिर्फ टीवी और अखबारों में नंबर वन हरियाणा का विज्ञापन देकर प्रदेश नंबर वन नहीं हो सकता. प्रदेश में न तो समान विकास हुआ और न कार्यकर्ताओं की सुनवाई. एक जिले से कांग्रेस को मजबूत नहीं किया जा सकता. इसका प्रमाण बीते लोकसभा चुनाव में वोटर दे चुके हैं. लोगों को क्षेत्रवाद, विकास, रोजगार में भेदभाव करने वाला सीएम नहीं चाहिए. ऐसे व्यक्ति के नेतृव में चुनाव नहीं लड़ा जा सकता.’
जानकार बताते हैं कि हरियाणा में भी कांग्रेस हाईकमान कुछ वैसे ही रणनीति अपनाता नजर आ रहा है जैसी वह अब तक अन्य राज्यों में अपनाता आया है. कमल जैन कहते हैं, ‘पहले वो परिवार की चापलूसी करने वाले को मुख्यमंत्री बनाकर राज्य पर थोपते हैं. आने वाले समय में अगर उस व्यक्ति के खिलाफ किसी ने कोई आवाज न उठाई तो हो सकता है वो उसे बदल भी दें. लेकिन अगर राज्य के नेताओं ने सही आधार पर उसका विरोध किया तो वो उसे किसी भी कीमत पर नहीं बदलेंगे. हाईकमान मुख्यमंत्री के विरोध को अपने विरोध के रूप में लेता है. यही हाल महाराष्ट्र में भी है. उत्तराखंड में था. कमजोर न दिखने या दबाव में न आने वाला दिखाने के चक्कर में ये किया जाता है.’
अपने सांसद पुत्र दीपेंद्र को मुख्यमंत्री ने एक ही काम दे रखा है. वह है राहुल को उनके आलोचकों के प्रभाव में आने से रोकना
हुड्डा कई मंचों से अपने ऊपर लगने वाले आरोपों को खारिज कर चुके हैं. हाल ही में एक सभा को संबोधित करते हुए उनका कहना था ‘ मैं सार्वजनिक विकास कराने का जिम्मेवार हूं. किसी का व्यक्तिगत विकास करने का नहीं. कुछ नेताओं का व्यक्तिगत विकास नहीं हुआ होगा, इसलिए वे बड़बड़ा रहे हैं. मेरी जिम्मेवारी हरियाणा को आगे बढ़ाने की है. मैं तब तक अपने पद पर रहूंगा जब तक नेतृत्व का विश्वास मुझ पर है.’
उनका अपने पक्ष में कहना अलग बात है लेकिन कुछ चीजें ऐसी भी हैं जो मुख्यमंत्री हुड्डा के पक्ष में जाती हैं. आज पार्टी में बचे हुड्डा के राजनीतिक विरोधियों में से कोई भी ऐसा नहीं है जो पूरे प्रदेश में प्रभाव रखता हो. हुड्डा के पक्ष में यह बात भी जाती है कि जिस हरियाणा में हर पांच साल पर सरकार बदल जाने का चलन रहा है वहां हरियाणा की राजनीति के पितामह देवीलाल को लोकसभा चुनावों में तीन बार पटखनी देने वाले हुड्डा ने 2009 में कांग्रेस की दोबारा सरकार बनवाने में सफलता पाई. 1972 के बाद यह पहली बार था जब हरियाणा में कोई पार्टी लगातार दूसरी बार सत्ता में लौटी थी.