जब इस लेख को लिखा जा रहा है, तब हाल और हालात ऐसे हैं कि झारखंड की राजधानी भय और आतंक के माहौल में है. अनहोनी की आशंका से उपजा एक अनजाना सा डर राजधानीवासियों को अपने आगोश में लिए हुए है. राजधानी पुलिस छावनी में बदल चुकी है. राजधानी के एक-दो इलाके पुलिस के किसी बड़े कैंप में तब्दील हो चुके हैं. हर गली में पुलिस फोर्स है. कुछ मोहल्लों में तलाशी अभियान जारी है. घर-घर की तलाशी ली जा रही है. कुछ मोहल्लों के लोग अपने घर छोड़ दूसरे के घरों में, रिश्तेदारों के यहां या रांची से बाहर शरण ले चुके हैं. इन सब के पीछे कारण ये है कि एक मंदिर में मांस का टुकड़ा पाया गया था, जिसने वहां की फिजा में उपद्रव का जहर घोल दिया.
रांची में पहले से एक एसएसपी, एक ग्रामीण एसपी, एक सिटी एसपी के रूप में तेज-तर्रार और चुस्त आईपीएस अफसरों की तैनाती है. उसके अतिरिक्त अभी दो एएसपी और छह डीएसपी तैनात कर दिए गए हैं. आरएएफ की भी दो टुकड़ियां बिहार के नवादा से रांची में आकर कमान संभाले हुए है. सीआरपीएफ की तीन कंपनियां, एसएसबी की एक कंपनी, एसटीएफ की दो कंपनी, रांची के अलावा दूसरे जिलों के करीब 200 से अधिक पुलिसवाले चप्पे-चप्पे पर तैनात हैं. कई इलाके ऐसे हैं, जहां अतिरिक्त पुलिस बल लगाए गए हैं लेकिन पुलिस की तैनाती भय को कम करने के बावजूद बढ़ा ही रही है. यह भी संभव है कि जब आप इन पंक्तियों से गुजर रहे होंगे, तब तक रांची में सब कुछ सामान्य हो चुका होगा लेकिन ये अनजाना भय तब भी बना रहेगा. क्योंकि यह बात बकरीद से शुरू हुई, जिसकी आग रांची के आसपास व सुदूरवर्ती जिलों तक पहुंच गई.
अभी सामने दुर्गा पूजा और मुहर्रम जैसे त्योहार हैं. रांची में दोनों ही बड़े स्तर पर मनाए जाने की परंपरा रही है. दुर्गा पूजा में करोड़ों खर्च कर विशाल पंडाल बनते हैं, लाखों लोग शहर में आते हैं और मुहर्रम का भी विशाल जुलूस निकलता है. यही बात रांची वालों को चिंतित किए हुए है कि उन बड़े त्योहारों पर इस घटना की परछाईं तक न पड़े. लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही उठ रहा है कि आखिर क्यों एक छोटी सी घटना से शुरू हुई बात वहीं रुक जाने के बजाय तेजी से बढ़ती गई.
इस घटना की शुरुआत बकरीद की रात से हुई. उस रात राजधानी के डोरंडा इलाके में एक मंदिर में मांस फेंके जाने की बात सामने आई. यह बात तेजी से फैली. बवाल शुरू हुआ. सोशल मीडिया का साथ मिला. बात रांची से निकलकर तेजी से आसपास के इलाकों में फैल गई. अगले दिन पूरा रांची फसाद के मुहाने पर पहुंच गया. विश्व हिंदू परिषद (विहिप) और बजरंग दल जैसी संस्थाओं ने बंद का आह्वान कर दिया. मुख्यमंत्री रघुबर दास जमशेदपुर में थे, वहां से रांची आ गए. लोगों को समझाने की कोशिश की.
हालांकि मुख्यमंत्री के जमशेदपुर से आने से पहले ही रांची में उपद्रव हो चुका था. दिन के एक पहर तक प्रशासन तमाशबीन ही बना रहा. सवाल यह उठा कि प्रशासन मुख्यमंत्री की तरह अलर्ट क्यों नहीं हो सका, वह मुस्तैदी क्यों नहीं दिखाई गई, जबकि प्रशासन को पता था कि रात से ही मामला गरमा गया है. अगले दिन विहिप और बजरंग दल जैसे संगठन ने बंद का आह्वान किया. इन सबके बीच एक सवाल यह भी है कि अचानक विहिप जैसी संस्थाएं झारखंड में इतनी ताकतवर कैसे हो गईं, जिन्होंने बंद का आह्वान कर लिया. झारखंड में विहिप हमेशा बुरे दौर में रही है. ज्यादा नहीं कुछ वर्षों पहले तक राज्य में भाजपा की सरकार रहने के बावजूद संघ के दूसरे आनुषांगिक संगठनों का तो विकास होता रहा लेकिन विहिप बुरे हाल में ही रहा. संगठन की हालत ऐसी रही कि उसे एक अदद संगठन मंत्री तक नहीं मिल पा रहा था. ऐसा संगठन अचानक ही इतनी ऊर्जा से कैसे भर गया है?
रांची में बंद के दिन सुबह सिर्फ राजधानी के प्रभावित डोरंडा इलाके में ही पुलिसवाले ड्यूटी पर लगाए गए, जबकि अशांति पूरे शहर में फैली थी. कई इलाके तो ऐसे रहें, जहां जमकर उपद्रव होता रहा और पूरी व्यवस्था सिर्फ ट्रैफिक पुलिसवालों के जिम्मे छोड़ दी गई. ऐसा भी नहीं कि राजधानी में पुलिस बल की कमी थी. राजधानी के आसपास ही आर्म्ड पुलिस व जगुआर पुलिस की चार बटालियन हैं. एक बटालियन में 200-300 जवान होते हैं. अगर इन्हें लगाया गया होता तो विहिप जैसी संस्थाओं के पास लोगों की इतनी संख्या नहीं थी कि वे रांची को अशांत कर देते लेकिन प्रशासन सही समय पर कदम नहीं उठा सका, नतीजा रांची शहर ने भुगता.
बड़ा सवाल यह कि एक ही तरह की घटनाएं एक साथ चार जगहों पर कैसे हुईं? और इसके बाद भी एक बार मामला शांत हो जाते ही पुलिस प्रशासन इतना भी मुस्तैद क्यों नहीं रह सका कि दो दिन बाद फिर से आधी रात को अशांति की कोशिशें तेज हो गईं? बकरीद वाली घटना के ठीक तीन दिनों बाद रात करीब बारह बजे डोरंडा के उसी इलाके में, जहां पहले घटना घटी थी, फिर उत्पात हुआ. रात बारह बजे के करीब आठ-दस लोग मोटरसाइकिल से वहां पहुंचे और कई राउंड गोलियां चलीं, घरों को जलाया गया. आधी रात को एक जमात के लोगों ने घर छोड़कर दूसरे के घरों में शरण ली, पास में पुलिस बल मौजूद थे लेकिन उन्होंने कुछ नहीं किया गया.
दोबारा घटी इस घटना से रांची में फिर से डर का माहौल है. रांची के सामाजिक कार्यकर्ता हुसैन कच्छी कहते हैं, ‘यह बाहरी तत्वों की खुराफात है, जो माहौल को बिगाड़ना चाहते हैं.’ इसी तरह की बात रांची के संस्कृतिकर्मी दिनेश सिंह भी कहते हैं. बकौल दिनेश, ‘यह साफ लग रहा है कि कुछ लोग हैं, जो रांची और झारखंड को अशांत करना चाहते हैं. लेकिन सवाल यह है कि वे क्यों ऐसा करना चाहते हैं. उनका मकसद क्या है?’
उपद्रव की शुरुआत राजधानी रांची के डोरंडा से होते हुए दूसरे शहरों में पहुंचती रही और वहां भी उपद्रव होता रहा. रांची से सटे लोहरदगा जिले के कुड़ू के एक गांव लावागाई में शनिवार को ऐसी ही घटना घटी, वहां भी बवाल हुआ और फिर अगले दिन रविवार को लोहरदगा बंद का आह्वान किया गया. पलामू के सतबरवा इलाके में एक ठाकुरबाड़ी और फिर चतरा के प्रतापपुर जैसे कुख्यात व चर्चित नक्सली इलाके के एक गांव हुमागंज के देवी मंदिर से भी ऐसी ही खबर आई. इन इलाके में भी बंद हुए. बंद शांतिपूर्ण ही रहे लेकिन उपद्रव की ये घटना जंगल की आग की तरह राज्यभर में फैलती रही.
पुलिस प्रवक्ता एडीजी एसएन प्रधान कहते हैं, ‘हम अभी इस विषय पर कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं हैं. जांच चल रही है. कुछ लोगों को गिरफ्तार किया गया है. जब तक कुछ ठोस सामने नहीं आता, कुछ कहा नहीं जा सकता.’ मुख्यमंत्री रघुबर दास का भी बयान आया, ‘यह कुछ मनचलों और शरारती तत्वों का काम है.’ इस पूरे मामले में असल सवाल पीछे छूट रहे हैं कि आखिर यह घटना क्यों घटी? और इतनी सख्ती और मुस्तैदी के बावजूद इसका दायरा बढ़ता क्यों रहा? रांची में तो धारा 144 लगाकर ही काम चल गया लेकिन जमशेदपुर में कर्फ्यू लगाना पड़ा.
घटना को किसने अंजाम दिया, यह पता नहीं चल पा रहा. कुछेक लोग दबी जबान में कह रहे हैं कि रघुबर दास को बदनाम करने और उन्हें पदच्युत करने के लिए उनके लोग भी ऐसा खेल कर सकते हैं. वहीं कुछ लोगों का कहना है कि रांची की इस घटना का असर बिहार चुनाव पर पड़ेगा, हिंदुओं की गोलबंदी होगी, इसलिए यह सोची समझी साजिश भी हो सकती है. हालांकि ऐसा कहने के पीछे कोई आधार अभी तक सामने नहीं आ सका है. पटना और रांची के बीच गहरा रिश्ता है. रोजाना हजारों लोगों का आना-जाना होता है. सिर्फ रांची ही नहीं, झारखंड के चार प्रमुख शहर रांची, जमशेदपुर, धनबाद और बोकारो से बिहार का गहरा रिश्ता है. रांची में घटना घटने के बाद चतरा और पलामू में भी इसकी लपटें पहुंची थीं.
पुलिस प्रवक्ता एसएन प्रधान कहते हैं, ‘अब तक कोई ठोस सबूत नहीं मिले हैं, जिस आधार पर इसे राजनीतिक घटना कहा जा सके.’ प्रधान की बात सही है. संभव है इसका कोई सीधा कनेक्शन बिहार चुनाव से न हो लेकिन ये सच है कि इस घटना की आग न सही, आंच तो पटना तक पहुंचेगी.