स्वच्छता से बाल-मृत्यु दर घटी, कुपोषण से नहीं

शौचालय का नाम सुनते या उसके पास से गुज़रते हुए पहली तस्वीर ज़ेहन में यही उकरती है कि यह महज़ एक ऐसी जगह है, जिसका इस्तेमाल दीर्घ शंका के लिए किया जाता है। दरअसल शौचालय और वो भी स्वच्छ शौचालय तक पहुँच कई बीमारियों से बचाव का एक सशक्त ज़रिया भी माना जाता है। लोगों की ख़ासकर बच्चों की जान बचाने में मददगार भी हो सकते हैं।

प्रसिद्ध विज्ञान पत्रिका नेचर ने हाल ही में अपने एक अध्ययन में कहा है कि भारत सरकार के स्वच्छ भारत मिशन के तहत घरों में बनाये गये शौचालयों के निर्माण व राष्ट्रीय स्वच्छता कार्यक्रम के तहत बेहतर साफ़-सफ़ाई सेवाओं ने वर्ष 2014-2020 के दरमियान देश में नवजात और पाँच साल से कम आयु के बच्चों की सालाना मृत्यु दर को कम करने में अहम योगदान दिया है। इस पत्रिका में दावा किया गया है कि इससे हर साल 60,000 से 70,000 नवजातों की ज़िन्दगियाँ बची हैं।

ग़ौरतलब है कि स्वच्छ भारत मिशन को 02 अक्टूबर, 2014 में लॉन्च किया गया था। इस राष्ट्रीय अभियान का मुख्य उद्देश्य सभी घरों में शौचालय की सुविधा प्रदान करके देश को खुले में शौच से मुक्त करना है। इसके साथ ही सामुदायिक और सार्वजनिक स्थलों पर शौचालय का निर्माण करके गंदे शौचालयों को फ्लश वाले शौचालयों में बदलना है। देश की गलियों, सड़कों और बुनियादी ढाँचे की सफ़ाई करना भी इसका हिस्सा है। केंद्रीय मंत्री हरदीप पुरी के एक बयान के मुताबिक जुलाई, 2024 तक बीते नौ वर्षों में ग्रामीण और शहरी भारत में लगभग 12 करोड़ शौचालय बनाये गये थे।  हालाँकि अभी देश के हर व्यक्ति की शौचालय तक पहुँच संभव नहीं हो सकी है।

टायॅलेट कंस्ट्रशन अंडर द स्वच्छ भारत मिशन और इंफेट मोरटिलटी नामक रिपोर्ट को इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीटयूट, यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया और ओहयो स्टेट यूनिवर्सिटी ने तैयार की है। इस शोध पत्र के लेखकों ने वर्ष 2011 से 2020 तक 35 राज्यों और 640 ज़िलों में एक वर्ष से कम आयु के शिशुओं और पाँच साल से कम आयु के बच्चों की मुत्यु दर का अध्ययन किया। इस अध्ययन में बताया इस रिपोर्ट में यह कहा गया है कि स्वच्छ भारत मिशन में शौचालयों का निर्माण बड़े स्तर पर हुआ और संभव है कि बड़ी संख्या में शौचालयों के निर्माण की वजह से मुत्यु दर में कमी आयी है। इसके अलावा शुद्ध पानी और सफ़ाई की उपलब्धता के कारण भी शिशु मुत्यु दर में की आयी है।

विश्लेषण यह भी बताता है कि स्वच्छ भारत मिशन के तहत 30 प्रतिशत से अधिक शौचालय कवरेज वाले ज़िलों में प्रति हज़ार जीवित जन्मों पर नवजात मृत्यु दर में 5.3 प्रतिशत और पाँच वर्ष से कम आयु में 6.8 प्रतिशत की कमी देखी गयी। अगर संख्या में देखें, तो यह आँकड़ा 60,000 से 70,000 का होगा। इसमें यह भी बताया गया है कि किस तरह पहले खुले में शौच की वजह से डायरिया और अन्य इस तरह की बीमारियों से बच्चे मर जाते थे, जिनमें आज काफ़ी कमी आयी है।

ग़ौरतलब है कि स्वच्छता यानी साफ़-सफ़ाई को बीती सदी से ही महत्त्वपूर्ण जन स्वास्थ्य हस्तक्षेपों में से एक माना जाता है, इसके प्रमाण 1900 के शुरुआती वर्षों में अमेरिका व पश्चिमी देशों में शिशु मृत्यु दर में जबरदस्त गिरावट वहाँ की साफ़-सफ़ाई की सेवाओं को सुधारने से दर्ज की गयी। भारत में वर्ष 2003 में प्रति हज़ार जीवित जन्मों पर नवजात मृत्यु दर 60 थी, जो 2020 में गिरकर 30 रह गयी। लेकिन यह रिपोर्ट इस ओर भी रेखांकित करती है कि उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, ओडिशा व आंध्र प्रदेश में कुछ ऐसी जगह हैं, जहाँ नवजात मृत्यु दर 45 से 60 लगातार प्रति हज़ार बनी हुई है। सरकार को इसमें सुधार लाने के विशेष प्रयास करने होंगे। इसके साथ ही इस रिपोर्ट के लेखकों ने यह भी कहा है कि हालाँकि लाभों के बावजूद जाति और धर्म आधारित भेदभावपूर्ण प्रथाओं के कारण शौचालयों को अपनाने और इस्तेमाल करने में असमानताएँ बनी हुई हैं। यह बहुत बड़ी चिंता का विषय है। स्वच्छ भारत मिशन के कई पहलू हैं। नि:संदेह नवजात व पाँच साल से कम आयु के बच्चों के स्वास्थ्य में सुधार वाला बिंदु इससे जुड़ा हुआ है। लेकिन इसके साथ-साथ जैसा कि रिपोर्ट में इनके इस्तेमाल में भेदभावपूर्ण वाले बिंदु को रेखांकित किया गया है, सरकार को इसकी पड़ताल करके उसकी ओर प्रभावी क़दम उठाने होंगे। न्यायसंगत कार्यान्वयन की दरकार है। दूसरी ओर देश में हर साल कुपोषण से पाँच साल से कम उम्र के 5,00,000 बच्चे मर जाते हैं। इससे पता चलता है कि आँगनबाड़ी के ज़रिये सरकारेेंपोषक आहार देने में असफल हैं। दुनिया के कई देशों में कुपोषण से बच्चे मर रहे हैं; लेकिन भारत में सिर्फ़ यह संख्या 20 प्रतिशत से ज़्यादा है। ऐसे में शौचालयों का बनाना कोई बड़ी उपलब्धि नहीं मानी जा सकती।