न जाने कितनी बार चंपारण जाना हुआ है. दोनों चंपारण. यानी पूर्वी चंपारण और पश्चिमी चंपारण. हमेशा से आकर्षित करता रहा है चंपारण. संघर्ष और सृजन, दोनों एक साथ करने की जो अद्भुत क्षमता है चंपारण में, वही आकर्षण का कारण है. पहली बार फूलकली देवी का काम सुनकर यहां गया था. फूलकली, एक अनपढ़ महिला. मुसहर समाज से आने वाली. तिरंगे के जरिए जमींदारों के कब्जे से गरीबों और वंचितों की जमीन वापस लेने का अद्भुत अभियान चलाया था उन्होंने. ओह, कैसा होता था दृश्य, तिरंगे के साथ चंपारण के उन अपढ़ मजदूरों का सत्याग्रह कैसा होता था कि जमींदार हथियार-असलहा रहने के बावजूद कुछ नहीं कर पाते थे.
2010 के विधानसभा चुनाव के वक्त एक दूसरे किस्म का आंदोलन देखने गया था. एक इलाके में लोगों ने अपनी ओर से फॉर्म बनवा लिया था. अब जो भी प्रत्याशी वोट मांगने आता, उसे लोग वही पकड़वा देते कि इसे पढ़िए और इस पर अपनी सहमति जताते हुए हस्ताक्षर कीजिए. उस फॉर्म में इलाके की कुछ बड़ी समस्याओं का सिलसिलेवार जिक्र था. जो प्रत्याशी थे, उनसे वादा लिया जाता था कि वे अगर विधायक बन जाते हैं और इन मसलों को नहीं उठा पाते हैं तो फिर बीच कार्यकाल में ही विधायकी से इस्तीफा दे देंगे. प्रत्याशियों ने इसे सहज स्वीकार लिया था. भोजपुरी के मशहूर गीतकार विनय बिहारी भी चुनाव मैदान में थे. संयोग ऐसा बना कि निर्दलीय होने के बावजूद वे विधायक चुन लिए गए. विधायक चुने जाने के बाद पटना रहने लगे. इधर वक्त गुजरता गया. उन्होंने जिन बिंदुओं को विधानसभा में उठाने का वादा किया था, जिनके लिए फॉर्म भरा था, उनमें से किसी मसले को विधानसभा में नहीं उठाया. जब वे वापस अपने इलाके में जाने लगे तो लोगों ने उनके ‘स्वागत’ के लिए सैकड़ों तख्तियां बना रखी थीं. लोग कुछ नहीं करते थे, बस विनय बिहारी के पहुंचते तख्ती दिखा देते थे. उस पर लिखा होता था, ‘आपने जो वादे किए थे, उस पर अमल नहीं किया. अब तो नैतिक तौर पर इस्तीफा दे ही दीजिए.’ विनय बिहारी ने शुरू में इसे गंभीरता से नहीं लिया लेकिन धीरे-धीरे उन्हें समझ में आ गया कि वे अपने ही इलाके के साधारण से दिखने वाले लोगों को समझ नहीं पाए और उनका अपने ही इलाके में जाना लोगों ने मुहाल कर दिया.
लोकतंत्र के लिए इस आंदोलन को देखने के पहले थारूओं के इलाके में जाना हुआ था. थारू आदिवासियों की बसाहट वाले इस इलाके को थरूहट कहा जाता है. बिहार के हिस्से में जो थरूहट है उसमें लगभग ढाई लाख थारू आदिवासी रहते हैं. वे गन्ने की खेती करते हैं. गन्ने को चीनी मिलों तक पहुंचाना होता था. चीनी मिल वालों को सिर्फ गन्ना चाहिए होता था, वे गन्ना कैसे पहुंचाएंगे इससे कोई मतलब नहीं था. थारूओं ने कई बार सरकारी अधिकारियों के चक्कर काटे कि उनके इलाके में सड़क बना दी जाए लेकिन उनकी फरियाद किसी ने नहीं सुनी. एक रात थारूओं ने फैसला किया और सुबह-सुबह काम पर लग गए और 24 घंटे में 12 किलोमीटर लंबी सड़क बन गई. थारूओं के इस काम को देखना चकित करने वाला था.
‘अंग्रेजों ने 42 प्रकार के अलग से कर लगाए. ‘बपहा-पुतहा’ जैसे कर लगे. यानी किसी के पिता की माैत हो जाती है और उसकी जगह बेटा घर का मालिक बनता है तो उसके लिए भी अलग से अंग्रेजों को कर देना पड़ता था’
चंपारण की और भी खासियतें हैं. अभी बिहार में शराबबंदी के ऐलान के पहले ही चंपारण के ही कई हिस्सों में महिलाओं ने खुद से आंदोलन चलाकर शराबबंदी करवा दी थी. ऐसे कई उदाहरण चंपारण में देखने को मिलते हैं. बार-बार लगता है कि सत्याग्रह, आंदोलन का यह तरीका कहीं 100 साल पहले गांधी के नेतृत्व में हुए चंपारण सत्याग्रह का असर तो नहीं. संघर्ष और सृजन की धार को एक साथ, एकसमान मजबूत बनाए रखना कहीं गांधी की कर्मभूमि होने का असर तो नहीं, क्योंकि गांधी भी तो 100 साल पहले चंपारण में वही कर रहे थे. आए थे निलहों की लड़ाई लड़ने, अंग्रेजों के शोषण से मुक्ति दिलाने और बिना हिंसा का सहारा लिए अंग्रेजों से भी लड़ने लगे. स्कूल खुलवाने लगे थे, लोगों को स्वास्थ्य के प्रति जागरूक करने लगे थे, साफ-सफाई की ट्रेनिंग देने लगे थे. सत्याग्रह पर अध्ययन करने वाले भैरवलाल दास कहते हैं, ‘बिहार को लोग लाख बुरा कहें फिर भी गांधी का असर पूरे बिहार पर है.’
गांधी द्वारा चंपारण के जरिए बिहार की राजनीति की बुनियाद तैयार करने की बात आती है तो कई किस्से याद आने लगते हैं. पेशे से प्राध्यापक और चनपटिया के रहने वाले प्रो. प्रकाश बताते हैं, ‘भितिहरवा, बड़हरवा लखनसेन और मधुबन में गांधी ने खुद स्कूल खोले. कस्तूरबा ने खुद यहां पढ़ाया. गांधी ने एक बड़ी टीम बाहर से बुलाई. स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में एक अभियान चलाया. चंपारण में वृंदावन नाम का एक इलाका है, वहां आप गए हैं. गांधी की प्रेरणा से वहां ढाई दर्जन बुनियादी विद्यालय खोले गए थे. क्या मॉडल था उन स्कूलों का. पढ़ाई भी और रोजगार के लिए हुनर भी. प्रजापति मिश्र जैसे कांग्रेसी नेताओं ने तब बुनियादी विद्यालय के लिए 100 बीघा से ज्यादा जमीन उपलब्ध कराई थी. सबने जमीन दी थी. आज जिस तरह से स्किल डेवलपमेंट आदि पर सरकार जोर दे रही है वह तो चंपारण में बुनियादी स्कूल के जरिए आजादी के पहले ही शुरू हो गया था. काश, वह चल रहा होता लेकिन वे सब तो अब सामान्य स्कूल बन गए.’
आगे की बात प्रो. प्रकाश के साथी समाजसेवी पंकज बताते हैं. पंकज चंपारण के अतीत और फिर वर्तमान को बिल्कुल दूसरे तरीके से बताते हैं. वे कहते हैं, ‘बुनियादी विद्यालय पर बात कर रहे हैं तो जानिए कि वृंदावन में 29 बुनियादी विद्यालय खुले. उस जमाने में एक इलाके में इतने सारे स्कूल भारत में कहीं-कहीं ही होंगे. सिर्फ वहीं स्कूल नहीं खुले. पश्चिमी चंपारण में कुल 43 बुनियादी स्कूल खुले, पूर्वी चंपारण में 10 स्कूल खुले. सारे बुनियादी स्कूल लोगों के सहयोग से खुले. सबके लिए लोगों ने अपनी जमीन दान दी. एक-एक विद्यालय के पास एक एकड़ से लेकर 12 एकड़ तक जमीन है. इतनी जमीन स्कूलों के पास नहीं होती लेकिन अब सारे जमीन पर कब्जा है माफियाओं का और सरकार ने सारे बुनियादी विद्यालयों को सामान्य विद्यालय बना दिया है.’
पंकज आगे बताते हैं, ‘यहां एक जगह कुमारबाग भी है. गांधी सत्याग्रह समाप्त करने के बाद जब चंपारण से चले गए और वर्षों बाद चंपारण आने वाले थे तो उनके आगमन के पूर्व चंपारण में कई स्कूल खोले गए थे. यह दिखाने के लिए कि गांधी शिक्षा की बुनियाद चंपारण में रख गए थे तो चंपारण अपना फर्ज निभा रहा है. उनके बताए मार्ग पर बढ़ रहा है. कुमारबाग एक ऐसा स्कूल है जिसे देखकर अब भी समझा जा सकता है कि वहां क्या माॅडल था. पढ़ाई के साथ रोजगार के लिए प्रशिक्षण तो था ही, साथ ही राजनीति की पाठशाला भी चलती थी वहां.’
सत्याग्रह के समय को याद करते हुए वे कहते हैं, ‘सिर्फ तीन घंटे का खेला था गांधी का चंपारण सत्याग्रह, बाकि समय तो वे चंपारण में आत्मबल भर रहे थे. वे तीन घंटे वही थे, जिस दिन गांधी मोतिहारी आए, उन्हें गिरफ्तार करने की योजना बनी और फिर अंग्रेज चाहकर भी न तो उन्हें गिरफ्तार कर सके, ना जिलाबदर कर सके. गांधी के समर्थन में ऐसा जनसैलाब उमड़ा कि अंग्रेज कुछ भी न कर सके.’
वे कहते हैं, ‘यह बेतियाराज का इलाका है. बेतिया के राजा दिवालिया होने के कगार पर थे. अंग्रेजों को लगान देने का भी पैसा उनके पास नहीं था. मालगुजारी के रूप में 35 हजार पाउंड कर्ज हो गया था बेतियाराज पर. अंग्रेजी सरकार ने कार्रवाई शुरू की. गिब्सन मैनेजर बनकर आया बेतियाराज के मामले को समझने. उसने बेतियाराज को कर्ज दिलवा दिया और कहा कि कर्ज से आप अंग्रेजी सरकार की मालगुजारी भी दे दीजिए और अपना जीवन भी मजे से चलाइए लेकिन कर्ज के बदले आप अपनी जमीन पट्टे पर दे दीजिए, हम लोग नील की खेती करवाएंगेे. बेतियाराज ने वैसा ही किया. कर्ज लिया, चार लाख एकड़ जमीन पट्टे पर दे दी.’
पंकज के अनुसार, इसके बाद उस जमीन पर नील की खेती शुरू हुई. दोनों चंपारण, जो तब एक ही हुआ करते थे, में 68 कोठियां बनीं, जिन्हें निलहा कोठी कहा जाने लगा. सभी कोठियों के हिस्से में अथाह जमीनें आईं. पंचकठिया प्रथा शुरू हुई. किसानों को एक बीघे में पांच कट्ठे पर नील की खेती के लिए बाध्य किया जाने लगा. अंग्रेजों ने 42 प्रकार के अलग से कर लगाए. ‘घोड़हवा’ से ‘घवहवा’ जैसे कर. यानी किसी अंग्रेज को घोड़ा खरीदना हो तो उसके लिए जनता कर दे, किसी अंग्रेज को घाव हो गया हो, इलाज कराना हो तो उसके लिए भी जनता से कर लिया जाता. ‘बपहा-पुतहा’ जैसे कर लगे. यानी किसी के पिता की माैत हो जाती है और उसकी जगह बेटा घर का मालिक बनता है तो उसके लिए भी अलग से अंग्रेजों को कर देना पड़ता था. ऐसे ही कई कर तब जनता को अंग्रेजों को देने पड़ते थे.
पंकज कहते हैं, ‘सब जानते ही हैं कि पंचकठिया बाद में तीनकठिया में बदला और फिर एक समय ऐसा आया जब नील की खेती बंद करनी पड़ी. विश्वयुद्ध के बाद नील की मांग भी कम होने लगी थी, कृत्रिम नील का उत्पादन भी शुरू हो गया था और फिर चंपारण के सत्याग्रह का भी असर था कि अंग्रेजों को समझ में आ गया था कि अब नील की खेती करना चंपारण में आसान नहीं होगा, सो अंग्रेजों ने 1924 आते-आते अपनी रणनीति बदल दी थी. 1924 से 1929 के बीच अंग्रेजों ने चंपारण में नौ चीनी मिलें खोलीं. निलहे कोठियों ने चीनी मिलों को जमीन देनी शुरू की. 40 हजार एकड़ जमीन दी गई. फिर चीनी कारखाने के लिए कड़े कानून बने. जैसे यह कि जिस इलाके में चीनी का जो कारखाना होगा उस इलाके में किसानों को वहीं अपना गन्ना देना होगा. किसान सिर्फ गन्ना उत्पादन करेगा, वह अपने गन्ने से कुछ बना भी न पाएगा.’
पंकज इसे चंपारण में शोषण के दूसरे अध्याय की शुरुआत बताते हुए कहते हैं, ‘यह नील की खेती की तरह ही खतरनाक थी और आजादी के बाद शोषण के इस कारोबार का अपार विस्तार हुआ. निलहों की जो जमीन थी, उसमें से चीनी मिलों को देने के बाद सारी जमीनें कारिंदों और गुमाश्ता यानी नील कोठी में काम करने वालों को औने-पौने दामों में बेच दी गईं या फिर उन्हें दे दिया गया. असल अंग्रेज जाने लगे, दूसरे किस्म के अंग्रेजों की उत्पति शुरू हुई. गन्ने के उत्पादक किसान पुर्जी (रसीद) और सूद के फेरे में फंसने लगे. वे गन्ना तो उपजाते हैं लेकिन गन्ना बेचने जाते हैं तो उन्हें तुरंत पैसा नहीं मिलता. पुर्जी पकड़ा दी जाती है. यह पुर्जी जमींदार किस्म के लोग देते हैं. कलेक्शन सेंटर बना हुआ है. अब पुर्जी लेकर किसान इधर से उधर भटकते रहते हैं. उन्हें दौड़ाया जाता है. पुर्जी के आधार पर सूदखोरों से पैसा लेते हैं. पुर्जी गिरवी रखकर पैसे लेते हैं, बाद में पुर्जी से सूदखोर सीधे जमींदार से पैसा ले लेता है और किसानों से सूद अलग लेता है. यह शोषण का अंतहीन सिलसिला है.’
‘बिहार में गांधी की प्रेरणा से जो 494 बुनियादी विद्यालय खुले थे, उन्हें लोगों ने अपनी जमीन देकर खुलवाया था. अगर इन्हें सामान्य विद्यालय की परिधि से हटा दें तो ये स्कूल ही बिहार का कायाकल्प कर देंगे’
वे कहते हैं, ‘चंपारण की कहानी इतनी ही नहीं है.’ चंपारण में जमीन के इस खेल को 1950 के एक और किस्से से समझाते हुए पंकज कहते हैं, ‘1950 में लोहिया जी, खुर्शीद बेन और रामनंदन मिश्र जैसे तीन प्रमुख लोग एक जांच कमेटी बनाकर चंपारण में जमीन का अध्ययन करने आए. कमेटी ने नौ चीनी मिलों के जमीन का विवरण लिखा. जांच में पाया गया कि हरिनगर के चीनी मिल के पास छह हजार एकड़ जमीन है. इसी तरह से हजारों एकड़ जमीन को मिलों के चंगुल से निकाला गया, जिसकी कोई उपयोगिता नहीं. इन जमीनों को गरीबों को देने का फैसला हुआ. चंपारण में भूपतियों की अच्छी संख्या है तो रिकाॅर्ड स्तर पर भूमिहीन भी वहीं रहते हैं.’ पंकज के अनुसार, 22 दिसंबर, 2015 तक सरकारी रिकाॅर्ड के अनुसार पश्चिमी चंपारण में 8,514 और पूर्वी चंपारण में 2,419 परिवार ऐसे मिले जिनके पास रहने का घर तक नहीं है. और ऐसे परिवारों की संख्या तो अथाह है जिनके पास किसी तरह रहने की जमीन भर है.’ पंकज बताते हैं, ‘जमीन के लिए केस हुआ. मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा. सुप्रीम कोर्ट से भूपति हारे लेकिन बिहार में एक कानून है कि भूमि सुधार और राजस्व मंत्री के कोर्ट में सुप्रीम कोर्ट से हार जाने के बाद भी जाया जा सकता है. वही रास्ता भूपतियों ने अपनाया. सब एक-एक कर भूमि सुधार और राजस्व मंत्री के यहां दस्तक देने लगे. मंत्री जी के यहां केस पेंडिंग में पड़ता गया. भूपति अब भी जमीन पर कब्जा किए हुए हैं. दिसंबर 2015 में यह मामला बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार तक पहुंचा. उन्हें बताया गया कि कैसे सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट का आदेश भूपतियों के खिलाफ गया है फिर भी भूमि सुधार और राजस्व मंत्री के यहां 2008 से दर्जनों केस पड़े हुए हैं, करीब 25 हजार एकड़ जमीन का मामला है जो भूमिहीनों व गरीबों के बीच बांटा जा सकता है. नीतीश कुमार ने गंभीरता दिखाई. कहा कि हां, मार्च के बजट सत्र में ऐसा होगा.’
पंकज कहते हैं कि मार्च का बजट सत्र तो बीत गया लेकिन उस मसले पर एक बार भी बात नहीं हुई. पंकज ऐसी कई बातें बताते हैं और कहते हैं कि चंपारण में किस्से अनेक हैं. गांधी जहां चंपारण को छोड़कर गए थे, वह वहीं रुका हुआ है. शोषण का सिलसिला अब भी जारी है लेकिन सत्याग्रह के शताब्दी वर्ष पर यह सब मसला नहीं है.
पंकज जो बातें कहते हैं वे सही हैं. 2017 का समय जैसे-जैसे नजदीक आ रहा है, चंपारण छत्तर के मेले जैसा बनता जा रहा है. चंपारण को देखने दूर-दूर से लोगों का आना शुरू हो गया है. वजह है कि 15 अप्रैल, 2016 से गांधी के सत्याग्रह का 100वां साल शुरू हो गया है. लोग आ रहे हैं, मोतिहारी जा रहे हैं, बेतिया जा रहे हैं. थोड़ा भितिहरवा, बड़हरवा लखनसेन का चक्कर भी मार ले रहे हैं. भितिहरवा में गांधी का आश्रम था, स्कूल भी. बड़हरवा लखनसेन में गांधी और उनके लोगों द्वारा शुरू किया गया पहला स्कूल है. भितिहरवा-बड़हरवा के अलावा और भी दूसरी जगहों का चक्कर लगाया जा रहा है. तरह-तरह के आयोजन का रूप-स्वरूप-प्रारूप तैयार हो रहा है चंपारण में. पटना में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने गांधी के सत्याग्रह का शताब्दी वर्ष मनाने के लिए एक विशेष कमेटी बना दी है. कहा गया है कि पटना में कुछ भवनों का नाम सत्याग्रह और गांधी के नाम पर होगा. वगैरह-वगैरह.
मुजफ्फरपुर के मणिका गांव में रहने वाले समाजवादी चिंतक सच्चिदानंद सिन्हा कहते हैं, ‘गांधी जिन चीजों से परहेज करते थे, वही सब क्यों किया जा रहा है. गांधी बुत बनाने की चीज नहीं. उनके नाम पर प्रतिमाएं और भवन खड़ा करने की जरूरत नहीं. गांधी को विचारों में जिंदा रखने की जरूरत है.’
इसके बाद पटना में प्रसिद्ध गांधीवादी नेता डाॅ. रामजी सिंह से बात होती है. वे कहते हैं, ‘नीतीश ने अभी शराबबंदी की है, यह स्वागतयोग्य कदम है. यह गांधी के ही काम को आगे बढ़ाने का काम है. नीतीश कुमार अगर कुछ करना चाहते हैं तो यही कर दें कि बिहार में गांधी की प्रेरणा से जो 494 बुनियादी विद्यालय खुले थे, लोगों ने अपनी जमीन देकर इन विद्यालयों को खुलवाया था, उन्हें सरकारी साजिश और छत्रछाया से अलग कर बुनियादी विद्यालय के रूप में रहने दें. सामान्य विद्यालय की परिधि से हटा दें. वे 494 स्कूल ही बिहार का कायाकल्प कर देंगे.’
रामजी कहते हैं कि उन्होंने देश में घूम-घूमकर पाठ्यक्रमों का अध्ययन करके बुनियादी विद्यालयों के लिए पाठ्यक्रम तैयार किया था लेकिन कुछ न हो सका. सरकारी अधिकारी कहते हैं कि व्यावहारिक रूप में यह अब नहीं हो सकता है.
रामजी बाबू कहते हैं, ‘जब देश का पहला गांधी विचार विभाग भागलपुर में खोलने का निर्णय लिया गया और उसकी जिम्मेवारी मुझे सौंपी गई तब भी यही कहा गया था कि भला गांधी विचार भी कोई पढ़ाने की चीज है. लेकिन आज तो देश के कई विश्वविद्यालयों में उसकी पढ़ाई हो रही है. मैंने बुनियादी विद्यालयों के संबंध में बात करने के लिए नीतीश कुमार से कई बार समय मांगा है, वे तो मिलने का समय ही नहीं दे रहे तो क्या उम्मीद करूं. मुख्यमंत्री को कुछ करना ही है तो गांधी के सत्याग्रह के शताब्दी वर्ष पर तो समान शिक्षा प्रणाली लागू कर दें. इसके लिए उन्होंने खुद ही कमीशन का गठन किया था. कमीशन की सिफारिशें लागू कर दें, वही एक बड़ा काम होगा.’