चुनौती भरे चुनाव

चुनाव आयोग ने दो विधानसभाओं- जम्मू-कश्मीर और हरियाणा के लिए चुनाव की तारीख़ों की घोषणा कर दी है। ये चुनाव राजनीतिक और सुरक्षा, दोनों ही स्तर पर चुनौती भरे हैं। जम्मू-कश्मीर का चुनाव सुरक्षा की दृष्टि से काफ़ी महत्त्वपूर्ण है। 10 साल बाद हो रहा यह चुनाव राज्य की जनता के लिए राहत लेकर आएगा, जो पिछले छ: साल से बग़ैर किसी चुनी सरकार के तमाम परेशानियाँ झेल रही है। इस चुनाव के नतीजों से यह भी पता चलेगा कि अनुच्छेद-370 ख़त्म करने और जम्मू-कश्मीर का पूर्ण राज्य का दर्जा छीनने को राज्य की जनता ने कैसे लिया है? उधर हरियाणा के चुनाव सत्तारूढ़ भाजपा के लिए चुनौती भरे हैं; क्योंकि लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने बेहतर प्रदर्शन से पाँच सीटें जीतकर उसके ख़ेमे में हलचल मचा दी थी। भाजपा के सामने अब अपनी सरकार को बचाने की मुश्किल चुनौती है।

देश में महाराष्ट्र सहित कुछ और राज्यों में इसी साल चुनाव होने हैं। लेकिन चुनाव आयोग ने फ़िलहाल दो ही राज्यों के लिए चुनाव घोषित किये हैं। विपक्ष ने इस पर विरोध भी जताया। उसका तर्क है कि प्रधानमंत्री मोदी तो रोज़ एक राष्ट्र-एक चुनाव का राग अलापते रहते हैं और हक़ीक़त में चार राज्यों के चुनाव तक एक साथ नहीं करवा पा रहे हैं। जम्मू-कश्मीर में चुनाव की घोषणा स्वागत योग्य है; क्योंकि वहाँ लोग पिछले छ: साल से दिक़्क़तें झेल रहे हैं। उनका यह आरोप है कि राष्ट्रपति (राज्यपाल) शासन में भ्रष्टाचार बढ़ गया है और अपनी दिक़्क़तें सुलझाने या बताने के लिए उनके पास कोई मंच या प्रतिनिधि नहीं है। कश्मीर ही नहीं, जम्मू में भी लोग इस बात से नाख़ुश हैं कि उनका पूर्ण राज्य का दर्जा ख़त्म कर दिया गया है।

जम्मू-कश्मीर में लोगों में अनुच्छेद-370 ख़त्म होने से जो नाराज़गी बनी थी, वह अभी ख़त्म नहीं हुई है। मोदी सरकार को देश ही नहीं, दुनिया के सामने भी यह साबित करना है कि उनका जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 ख़त्म करने का फ़ैसला महज़ उनकी पार्टी के एजेंडे का हिस्सा भर नहीं था और इस फ़ैसले से देश, राज्य और वहाँ के अवाम को फ़ायदा हुआ है। नहीं भूलना चाहिए की जम्मू-कश्मीर में अभी भी सुरक्षाबलों की अब तक की सबसे बड़ी संख्या 2017 के बाद से तैनात है। आतंकवाद की बात करें, तो जम्मू-कश्मीर अभी भी दोराहे पर खड़ा है। केंद्र की लाख कोशिशों और दावों के विपरीत आतंकवादी घटनाएँ वहाँ जारी हैं।

अकेले इस साल के आठ महीनों में जम्मू-कश्मीर में 25 से ज़्यादा आतंकी घटनाएँ हो चुकी हैं, जिनमें 30 से ज़्यादा जवानों शहादत और आम लोगों की मौत हो चुकी है। बेशक केंद्र सरकार का दावा है कि अनुच्छेद-370 ख़त्म करने के बाद जम्मू-कश्मीर में शान्ति बहाल हुई है; लेकिन यह पूरी तरह सच नहीं है और आतंकी घटनाएँ अब जम्मू क्षेत्र में भी होने लगी हैं। ऐसे में मोदी सरकार के लिए जम्मू-कश्मीर में शान्तिपूर्ण चुनाव करवाना एक बड़ी चुनौती रहेगी। यह ज़रूर हो सकता है कि घाटी की जनता भाजपा के विरोध-स्वरूप बड़ी संख्या में वोट डालने के लिए घरों से निकले।

याद रहे यूपीए सरकार की 10 साल की कोशिशों से जम्मू-कश्मीर के 2014 के विधानसभा चुनाव में काफ़ी सकारात्मक असर देखने को मिला था; भले चुनाव के समय मोदी केंद्र की सत्ता में थे। घाटी में पत्थरबाज़ी की घटनाएँ ज़रूर हो रही थीं। लेकिन रणनीतिक तौर पर यूपीए सरकार घाटी की अवाम को बाक़ी के देश से जोड़ने में सफल हो रही थी। वहाँ विकास ने भी ज़ोर पकड़ा था। उस चुनाव में पहले दौर में 71.28 फ़ीसदी, दूसरे दौर में 71 फ़ीसदी, तीसरे दौर में 58.89 फ़ीसदी, चौथे दौर में 49 फ़ीसदी और पाँचवें दौर में 76 फ़ीसदी मतदान हुआ था। घाटी में मतदान जम्मू के मुक़ाबले बेशक कुछ कम था; लेकिन इतने ज़्यादा वोट तब भी पड़े, जब हुर्रियत कॉन्फ्रेंस और आतंकी संगठनों ने मतदान के वहिष्कार की अपील की हुई थी। निश्चित ही कश्मीर की जनता ने इतने दशकों में लोकतंत्र और भारतीय व्यवस्था पर भरोसा जताया है।

इसमें कोई दो-राय नहीं कि जम्मू-कश्मीर में लागू की गयी मोदी सरकार की नीतियों के पक्ष में जनता का समर्थन न के बराबर है। ऐसा इसलिए भी हो सकता है कि उसने 05 अगस्त, 2019 को राज्य की जनता और राज्य के राजनीतिक नेतृत्व को भरोसे में लिए बिना अनुच्छेद-370 और घाटी का पूर्ण राज्य का दर्जा ख़त्म कर दिया। इसे घाटी की जनता ने नई दिल्ली (केंद्र) की नकारात्मक नीति के रूप में देखा। और 2004 के बाद घाटी की जनता को देश से जोड़ने की जिस रणनीति पर काम किया गया था, उसे भी गहरा झटका लगा। इससे पहले 2014 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने घाटी में सख़्त रुख़ रखने वाली मुफ़्ती मोहम्मद सईद की पार्टी पीडीपी के साथ मिलकर सरकार बनाने का फ़ैसला करके बहुत बेहतर संदेश दिया था, जिसका घाटी की जनता में सकारात्मक सन्देश गया था।

नहीं भूलना चाहिए कि भाजपा के किसी राष्ट्रीय नेता की कश्मीर घाटी में यदि सबसे ज़्यादा स्वीकार्यता थी, तो वह अटल बिहारी वाजपेयी थे। उन्होंने अपने कार्यकाल में श्रीनगर से पाकिस्तान की तरफ़ दोस्ती का हाथ बढ़ाने की पहल भी की थी। अब सच्चाई यह है कि उनके बाद भाजपा के नेता के रूप में केंद्र की सत्ता में आये नरेंद्र मोदी की घाटी में स्वीकार्यता न के बराबर है। जम्मू के हिन्दू-बहुल क्षेत्रों में बेशक वह लोकप्रिय हैं। अनुच्छेद-370 ख़त्म करने को लेकर घाटी के लोग सोचते हैं कि वाजपेयी होते, तो ऐसा नहीं होता। भाजपा के इन फ़ैसलों का सबसे बड़ा नुक़सान उसके साथ सरकार चला चुकी पीडीपी को झेलना पड़ा है, जिसे घाटी की जनता ने हाल के लोकसभा चुनाव में समर्थन नहीं दिया। लिहाज़ा उसका एक भी उम्मीदवार चुनाव में नहीं जीता। फ़िलहाल राज्य में चुनावी गतिविधियाँ शुरू हो गयी हैं। वहाँ 2014 की कुल 87 सीटों के मुक़ाबले इस बार 90 सीटों पर चुनाव होगा। अब सरकार बनाने के लिए 46 सीटें जीतनी ज़रूरी हैं। कांग्रेस और फ़ारूक़ अब्दुल्ला की नेशनल कॉन्फ्रेंस में चुनावी गठबंधन हो चुका है। तीन चरणों में- 18 सितंबर, 26 सितंबर और 01 अक्टूबर को मतदान प्रस्तावित है; जबकि 08 अक्टूबर को नतीजे आएँगे। भाजपा घाटी में खाता खोलना चाहती है। उसके कुछ समर्थक दल घाटी में हैं। उम्मीदवारों की घोषणा शुरू हो चुकी है। देखना दिलचस्प होगा कि पीडीपी और पूर्व कांग्रेस नेता गुलाम नबी आज़ाद का क्या रोल इन चुनावों में रहता रहता है?

हरियाणा की बात करें, तो वहाँ सत्तारूढ़ भाजपा के लिए अपनी सरकार को बचाये रखने की मुश्किल चुनौती है। कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव में जैसा प्रदर्शन किया था, उसके बाद लगता है कि राज्य में उसकी स्थिति काफ़ी मज़बूत हुई है। आम आदमी पार्टी भी वहाँ अपना खाता खोलने की कोशिश में है, जिसके प्रमुख और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल हरियाणा के ही रहने वाले हैं। देखना होगा केजरीवाल के जेल में रहते पार्टी कितनी मज़बूती से चुनाव में उतर पाती है। भाजपा की हरियाणा में घबराहट इस बात से महसूस की जा सकती है कि उसने चुनाव आयोग से छुट्टियों को देखते हुए मतदान की तारीख़ आगे बढ़ाने की माँग की थी, जिसके बाद चुनाव आयोग ने 27 अगस्त को बैठक तो की; लेकिन नयी तारीख़ को लेकर कोई फ़ैसला नहीं दिया था। फिर दोबारा चुनाव आयोग ने 31 अगस्त को नयी तारीख़ की घोषणा कर दी। विपक्षी कांग्रेस ने पहले ही कहा था कि भाजपा की मतदान की तारीख़ आगे बढ़ाने की माँग से ज़ाहिर हो गया है कि राज्य में उसकी बुरी हार होने वाली है।

अब हरियाणा में 01 अक्टूबर की जगह 05 अक्टूबर को मतदान होगा, जिसके नतीजे 08 अक्टूबर को आएँगे। राज्य में भाजपा ख़ेमे में दो कारणों से चिन्ता है। एक तो यह कि पिछले विधानसभा चुनाव में उसे अपने बूते बहुमत नहीं मिला था और उसने जजपा की मदद से सरकार बनायी थी, जो अब उसका साथ छोड़ चुकी है। लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा आलाकमान ने मनोहर लाल खट्टर को लोकसभा चुनाव लड़ाने के लिए मुख्यमंत्री पद से आनन-फ़ानन हटा दिया था, जिसके बाद मुख्यमंत्री बने नायब सिंह सैनी कुछ ख़ास प्रभाव डालने में सफल नहीं दिखे हैं। हाल ही में हिमाचल से भाजपा की बड़बोली सांसद कंगना रनौत ने किसानों को लेकर जो टिप्पणी की, उसने भाजपा को और नुक़सान पहुँचाया है। राजनीतिक रूप से यह इतनी घातक टिप्पणी थी कि भाजपा को कंगना को फटकार लगानी पड़ी।

जाट भी भाजपा से सख़्त नाराज़ दिखते हैं। कांग्रेस की चुनावी कमान अघोषित रूप से पूर्व मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा ने सँभाली हुई है, जिनकी राज्य में काफ़ी लोकप्रियता है। यह माना जा रहा है कि यदि कांग्रेस सत्ता में आयी, तो हुड्डा ही मुख्यमंत्री होंगे। हालाँकि कांग्रेस की वरिष्ठ नेता सांसद कुमारी शैलजा भी मुख्यमंत्री बनने की चाहत रखती हैं। देखना होगा कि क्या कांग्रेस मुख्यमंत्री का चेहरा आगे करके चुनाव में उतरेगी? लोकसभा चुनाव में अच्छा प्रदर्शन नहीं करने वाली आम आदमी पार्टी दावा कर रही है कि वह भी बेहतर प्रदर्शन करेगी। जाटों में पैठ रखने वाली जजपा और अन्य छोटे दलों के सामने अस्तित्व का संकट है। हालाँकि दुष्यंत चौटाला की जजपा ने चंद्रशेखर आज़ाद की आज़ाद समाज पार्टी से गठबंधन किया है। ज़मीनी स्थिति देखें, तो मुख्य मुक़ाबला कांग्रेस-भाजपा के बीच है और अन्य दल बहुत कम सीटों पर सिमट सकते हैं।