बिहार के कुछ ब्राह्मण नेताओं से बात कीजिए और उनकी बातों पर गौर कीजिए. बहुत दिलचस्प जवाब मिलते हैं उनसे. मिसाल के तौर पर जगन्नाथ मिश्र से पूछें कि फिलहाल तो किसी सवर्ण या ब्राह्मण के हाथ सत्ता की बागडोर आने की गुंजाइश नहीं दीखती, इसके जवाब में वे कह उठते हैं- अरे! क्यों नहीं. राजनीति में कभी भी कुछ भी हो सकता है. मिश्र तमिलनाडु का उदाहरण देते हुए कहते हैं, ‘देखिए, वहां दलित राजनीति होती है लेकिन दलितों की नेता तो जयललिता ही हैं न! फिर बिहार में ऐसी स्थिति क्यों नहीं हो सकती है? जयललिता ब्राह्मण हैं लेकिन दलितों की नेता हैं. एक और बड़े ब्राहमण नेता हैं जयनारायण त्रिवेदी. वे ब्राह्मण समाज के प्रमुख हैं और जदयू के उपाध्यक्ष भी रहे हैं. फिलहाल वे केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी के कोषाध्यक्ष हैं. इससे आगे बढ़कर वे अतीत में झांकते हैं और फिर कहते हैं, ‘देखिए ब्राह्मणों ने हमेशा से चाणक्य की भूमिका निभाई है और भविष्य में भी वे इस भूमिका में सक्रिय रहेंगे. चाणक्य के बगैर सत्ता चल ही नहीं सकती.
एक नेता प्रेमचंद मिश्र हैं. कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष रहे हैं. वे बताते हैं कि असल में बिहार के ब्राह्मणों ने कांग्रेस का साथ छोड़ दिया इसलिए उनकी दुर्गति हो रही है. वे बुनियादी तौर पर ब्राह्मणों के विरोधी रहे लालू प्रसाद के साथ कांग्रेस से किनारा करके जाते रहे. प्रेमचंद मिश्र कहते हैं जिस दिन ब्राह्मण फिर से कांग्रेस के साथ आ जाएंगे, उसी दिन से उनका भाग्य बदल जाएगा.
कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष प्रेमचंद मिश्र का मानना है कि जिस दिन ब्राह्मण पार्टी के साथ हो जाएंगे उस दिन हमारे भाग्य बदलने लग जाएंगे
आप अलग-अलग ब्राह्मण नेताओं से बात कीजिए, आपको सभी मंगल ग्रह से बात करते हुए नजर आएंगे. मानों वे राजनीति के मैदान से दूर आभासी संसार रचने में जुटे हों. वे चाणक्य से लेकर अब तक बिहार की राजनीति में ब्राह्मणों की राजनीतिक भूमिका बता देंगे. वे हकीकत से अनजान बने रहना चाहते हैं. बिहार को वे बार-बार चाणक्य की कर्मभूमि बताते हैं. चंद्रगुप्त को बनाने में चाणक्य की भूमिका को रेखांकित करते हैं लेकिन सच तो यह है कि उसी बिहार में जीतन राम मांझी प्रकरण के बाद नीतीश कुमार के नेतृत्व में जो सरकार बनी है, उस मंत्रिमंडल में एक भी ब्राह्मण शामिल नहीं है. संभव है कि यह आजादी के बाद का पहला मंत्रिमंडल है जिसमें एक भी ब्राह्मण नहीं है. इस मंत्रिमंडल को देखते हुए यह बात पानी की तरह साफ हो चुकी है कि बिहार की राजनीति में कभी ब्राह्मणों का वर्चस्व रहा होगा लेकिन अब उन्हें तवज्जो देने न देने से कोई फर्क नहीं पड़नेवाला. राज्य की राजनीति के लिए अब ‘वे सबसे निष्क्रिय व अनुपयोगी समूह में तब्दील हो चुके हैं.
दिलचस्प यह है कि जाति की राजनीति के खोल में समा चुकी या समाने को बेचैन बिहार की राजनीति में ब्राह्मणों को एक सिरे से बाहर कर देने का मसला महत्वपूर्ण नहीं है. हां, सवर्णों के नाम पर राजनीतिक गलियारे मंे रोज-ब-रोज बात जरूर हो रही है. नीतीश कुमार पहले तो सवर्णों के लिए सवर्ण आयोग बनाकर अपनी राजनीति साधने में लगे हुए थे लेकिन मांझी सवर्णों के लिए अलग से आरक्षण का पासा फेंक चुके हैं. इस बिगड़े समीकरण में अगड़ी जातियों को एक सवर्ण समूह में बदलने के बाद ब्राह्मणों का नुकसान सबसे ज्यादा हुआ है.
गौरतलब है कि बिहार में सवर्ण जातियों में आबादी के आधार पर सबसे बड़ी जाति ब्राह्मणों की है लेकिन जिस बिहार में चाणक्य को एक प्रतीक मानकर बार-बार ब्राह्मणों को श्रेष्ठ रणनीतिकार बताया जाता रहा है और जिस बिहार में कई ब्राह्मण नेताओं ने बतौर मुख्यमंत्री और मंत्री रहकर लंबे समय तक राज किया है आज वहां ओबीसी राजनीति के उभार के बाद अतिपिछड़ों व दलित-महादलितों की राजनीति के उभार के दौर में ऐसा क्या हो गया कि सवर्ण समूह की तो हैसियत बढ़ी लेकिन ब्राह्मण इतने उपेक्षित या अनुपयोगी होते गये? राजनीतिक विश्लेषक प्रेम कुमार मणि बताते हैं कि सवर्णों के समूह में ब्राह्मणों को हाशिये पर धकेल दिया जाना बहुत स्वाभाविक है. यह वह समूह है, जो कुख्यात लोगों को पैदा नहीं कर सकता. दबंगों को पैदा नहीं कर सकता फिर राजनीतिक पार्टियों के लिए क्यों उपयोगी बना रहेगा? मणि कहते हैं- ‘बिहार की राजनीति में ब्राह्मण एक ही बार सबसे महत्वपूर्ण रहे हैं. यह एक मिथ गढ़ लिया गया है कि कांग्रेस के समय में ब्राहमणों की चलती थी. वह कहते हैं कि 30 के दशक में जायेंगे तो कायस्थों का वर्चस्व कांग्रेस में था. उसके बाद भूमिहारों व राजपूतों का आया. बाद में इंदिरा गांधी ने जब नये राजनीतिक समीकरण बनाये तो उसमें ब्राहमणों को अलग किया और ब्राह्मणों के साथ पिछड़े, दलितों व मुसलमानों को मिलाकर सत्ता की सियासत के लिए एक नया समीकरण बनाया जो हिट हुआ. इसे लेकर सवर्णों की ही दूसरी जातियों में ब्राह्मणों से ईर्ष्या बढ़ी. मणि कहते हैं कि बिहार में जेपी (जयप्रकाश नारायण) आंदोलन के समय ब्राह्मणों को दरकिनार कर दिया गया था. जेपी आंदोलन के समय इस तरह का एक नारा चला था- लाला, ग्वाला और अकबर के साला वाली जाति की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है. मणि संभावना टटोलले हुए कहते हैं कि बिहार में अब आगे दूसरे रूप में ब्राह्मणों का राजनीतिक महत्व बढ़ने की गुंजाइश दिखाई देती है क्योंकि जीतन राम मांझी ने दलित राजनीति के नये अध्याय की शुरुआत कर दी और दलित जब राजनीति में अपना आयाम तलाशेगा तो अतिपिछड़ों के साथ ब्राह्मणों का ही समीकरण बनाना उसके लिए सबसे बेहतर होगा. ब्राह्मणों को दलितों के नेतृत्व का साथ देना होगा और इससे ब्राह्मण समूह को कोई परेशानी भी नहीं होगी. ऐसा पहले भी होता रहा है.
राजनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन ने बातचीत में कहा, ‘ब्राह्मणों को ऐतिहासिक सम्मोह छोड़ना होगा. वे अब भी अतीत में जी रहे हैं इसलिए उनकी यह गति तो होनी थी. रही बात भूमिहार और राजपूतों को तवज्जो मिलने की तो उसकी एक वजह यह है कि इन दोनों अगड़ी जातियों का एक हिस्सा समाजवादी और वामपंथी आंदोलन में सक्रिय भूमिका में रहा इसलिए उनकी प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है. सुमन कहते हैं कि एक और बात पर आप गौर करें कि 1980 से 90 के बीच ब्राह्मणों का वर्चस्व बिहार की राजनीति में रहा और रामलखन सिंह यादव जैसे दिग्गज कांग्रेसी नेताओं को दरकिनार कर विंदेश्वरी दुबे और भागवत झा ‘आजाद’ को मंत्री और मुख्यमंत्री बनाया गया था. यह प्रकृति और राजनीति का नियम है कि शीर्ष पर पहुंचने के बाद ढलान की बारी आती है. कुछ वर्षों बाद ओबीसी राजनीति का भी पराभव काल शुरू होगा जिसकी दस्तक सुनायी देने लगी है.
बिहार में कुछ जो चर्चित ब्राह्मण नेता हुए, उसमें कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके प्रजापति मिश्र, ललित नारायण मिश्र, विनोदानंद झा, जगन्नाथ मिश्र, विंदेश्वरी दुबे, केदार पांडेय, भागवत झा ‘आजाद’ आदि का नाम लिया जाता है. इसमें कुछ मुख्यमंत्री के पद तक पहुंचे. ये सभी कांग्रेसी रहे. समाजवादी नेताओं में रामानंद तिवारी एक बड़े नाम हुए लेकिन उनकी पहचान ब्राह्मण नेता की नहीं रही. बाद में उनके बेटे शिवानंद तिवारी भी राजनीति में आये और चर्चित रहे लेकिन उनकी पहचान भी ब्राहमण नेता की नहीं रही. समाजवादी राजनीति में ब्राह्मण नेताओं की उपस्थिति कभी ‘ब्राह्मण’ की नहीं रही. जेपी आंदोलन में भी ब्राह्मणों की भूमिका वैसी नहीं रही. जो खुर्राट ब्राह्मण नेता हुए, कांग्रेसी पृष्ठभूमि के रहे और वे धीरे-धीरे अपने ही कुनबे में सिमटते गये. भागवत झा ‘आजाद’ की राजनीतिक फसल उनके बेटे कीर्ति झा ‘आजाद’ के सांसद बनने तक सिमट गयी. ललित नारायण मिश्र के परिवार से उनके बेटे विजय मिश्र जदयू से विधान परिषद के सदस्य हैं, विजय मिश्र के भी बेटे ऋषि मिश्र जदयू के कोटे से ही विधायक हैं लेकिन नीतीश कुमार की पार्टी में उनकी हैसियत भी बस एक विधान पार्षद या विधायक भर की है. इसी परिवार से ताल्लुक रखनेवाले जगन्नाथ मिश्र के परिवार की कहानी कुछ अलग है. जगन्नाथ मिश्र खुद कई बार मुख्यमंत्री रहे, बाद में जब कांग्रेसी राजनीति के दिन लद गये तो अपनी राजनीति बचाये रखने के लिए नीतीश के संगी-साथी बने, फिर अपने बेटे नीतीश मिश्र की सियासत को चमकाने में ऊर्जा लगाते रहे. नीतीश मिश्र मंत्री भी बने. अब जगन्नाथ मिश्र और उनके बेटे जीतन राम मांझी खेमे में हैं. जदयू खेमे में एक संजय झा का नाम बीच-बीच में आता रहा और कहा जाता रहा कि वे नीतीश कुमार के रणनीतिकारों में से हैं. लेकिन अब संजय झा भी हाशिये पर भेजे गये नेता से मालूल पड़ रहे हैं.
जगन्नाथ मिश्र कई बार मुख्यमंत्री रहे लेकिन दिन लदे तो नीतीश कुमार के साथ लग गए आैर अपने बेटे नीतीश मिश्र की सियासत चमकाने में ऊर्जा लगाते रहे
जदयू खेमे की बात छोड़ अगर राजद की बात करें तो वहां रघुनाथ झा ब्राह्मण नेता के तौर पर रहे लेकिन उनकी भी हैसियत कभी ऐसे ब्राहमण नेता की नहीं बन सकी, जिसकी राज्यव्यापी अपील हो. अब तो वे पूरी तरह पराभव की ओर अग्रसर हैं. भाजपा में प्रदेश अध्यक्ष मंगल पांडेय ब्राह्मण समुदाय से जरूर हैं लेकिन अपनी पार्टी में भी उनका वैसा प्रभाव नहीं, जैसा कि दूसरों का है. कहा जाता है कि वे आपसी गुटबाजी में इस्तेमाल करने के लिए बनाये गये अध्यक्ष हैं. भाजपा के एक वरिष्ठ नेता अश्विनी चौबे हैं जो भागलपुर से विधायक थे. वे राज्य में मंत्री भी थे, फिलहाल ब्राह्मण बहुल संसदीय क्षेत्र बक्सर से सांसद हैं. वैसे यह भी सच है कि बिहार से वर्तमान समय में दो सांसद ब्राह्मण हैं और दोनों भाजपा के ही हैं. प्रदेश अध्यक्ष भी ब्राह्मण हैं, इसलिए भाजपा भी राजनीतिक तौर पर ब्राह्मणों को अपने खेमे का मतदाता मानकर निश्चितंता की मुद्रा में ही है.
ब्राहमण समाज से ताल्लुक रखनेवाले बीएन तिवारी उर्फ भाईजी भोजपुरिया कहते हैं कि ब्राह्मणों की अगर आज राजनीतिक पूछ घटी है तो उसके लिए खुद ब्राह्मण नेता ही जिम्मेवार हैं. कभी किसी ब्राह्मण नेता ने भूमिहारों, राजपूतों या दूसरी जातियों की तरह गोलबंद करने की कोशिश नहीं की, जिसके चलते ब्राह्मण हमेशा बिखरे रहे और कभी इस खेमे में तो कभी उस खेमे में जाते रहे और आज वे इस स्थिति में पहुंच गए हैं.
स्वतंत्र पत्रकार अमित कहते हैं कि 90-95 तक ब्राहमणों का वर्चस्व रहा लेकिन उसके बाद वे उपयोग किये जाते रहे और उसके बाद तो उन्हें कठपुतली की तरह नचाया जाता रहा और वे नाचते भी रहे. भाजपा में भी यदि मंगल पांडेय अगर प्रदेश अध्यक्ष बने हैं तो ऐसा उनकी कोई राज्य स्तरीय अपील के कारण संभव नहीं हुआ. अपना मकसद साधने के लिए उन्हें मोहरे की तरह इस्तेमाल में लाया गया. अमित कहते हैं कि बिहार में ब्राह्मण राजनीति की नियति बस इतनी ही है कि सभी नेताओं को अपने-अपने क्षेत्र में समेटकर रखा जाता रहा है और एक-दूसरे को आपस में ही लड़ाकर कभी किसी को तो कभी किसी को आगे किया जाता रहा है. अमित कहते हैं कि आप खुद ही देख लीजिए कि बक्सर में लालमुनी चौबे भाजपा के बड़े नेता थे. वे लगातार ब्राह्मण बहुल बक्सर से चुनाव लड़ते रहे, जीतते रहे. वे बहुत पहले ही विधायक दल के नेता भी बने थे. लेकिन एक बार कम वोट से लोकसभा चुनाव क्या हारे तो उन्हें दरकिनार करने के लिए ब्राह्मण नेता अश्विनी चौबे को वहां ले जाया गया और उनकी राजनीति खत्म की गई. अमित कहते हैं कि ब्राह्मणों का इस्तेमाल सभी दल इसी तरह करते रहे हैं. लालू प्रसाद ने भी राधानंदन झा को अपने साथ बनाये रखा और उन्हें चाणक्य और पता नहीं क्या-क्या कहा गया लेकिन राधानंदन को एक समय के बाद उपेक्षित किया गया.
जदयू के एक वरिष्ठ और नीतीश कुमार के करीबी नेता कहते हैं कि नीतीश के मंत्रिमंडल में अभी कोई ब्राह्मण नहीं है तो अचरज की क्या बात. इससे पहले भी नीतीश कुमार ऐसा करते रहे हैं. 2009 में भी लोकसभा चुनाव में उन्होंने एक भी ब्राह्मण को टिकट नहीं दिया था. ऐसा क्यों? नीतीश कुमार क्यों सवर्णों में भूमिहारों के प्रति और लालू प्रसाद यादव राजपूतों के प्रति दीवाने दिखते हैं जबकि नीतीश के मतदाताओं में ब्राह्माणों ने भी उनका उतना साथ दिया है जितना भूमिहार मतदाताओं ने. इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है. जदयू के वरिष्ठ नेता रहे और लालू-नीतीश दोनों के साथ रह चुके वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी ने इस संवाददाता से बाचतीत में कहा कि इसमें अचरज की कोई बात नहीं है. लोकतंत्र में सियासत के समीकरण तो बदलते रहते हैं.
बिहार की सियासत का जातीय समीकरण यह कहता है कि सवर्णों में ब्राह्मणों की आबादी करीब चार प्रतिशत है. ब्राह्मणों से थोड़ी कम आबादी भूमिहारों की है. लगभग तीन प्रतिशत राजपूत हैं और एक प्रतिशत के करीब कायस्थ. फिर ब्राह्मण समुदाय के बीच आज एक ऐसा बड़ा नेता नहीं है जो राजनीति में उनकी इस दुर्गति का जवाब दे! जवाब फिर वही मिलता है-बिहार में इस समय समाजवादियों की राजनीति का युग है. जेपी आंदोलन से निकले नेताओं का युग है. जेपी आंदोलन के दौरान ब्राह्मणों के वर्चस्व को खत्म करने का व्यापक अभियान चलाया गया, जिसका असर मानों अब हो रहा है. अब इतिश्री रेवाखंडे हो चुका है तो संभव है कि एक बार फिर से बिहार में नये किस्म से राजनीति की शुरुआत हो तो शायद ब्राह्मणों की भूमिका बढ़े लेकिन फिलहाल यह भी दिल बहलानेवाले एक खयाल की तरह ही लग रही है…