कर्नाटक में धर्मांधता, पाखंड विरोधी लेखक एम एम कलबुर्गी की हत्या के बाद कई धुंधली चीजों पर रोशनी गिरी है और वे फिर से चमक उठी हैं. अक्सर निराश लेखक बड़बड़ाते पाए जाते हैं कि हमें कौन पढ़ता है, लिखे का क्या असर होता है, समाज पर जिनका अवैध वर्चस्व है उनके कान पर जूं तक नहीं रेंगती! उन्हें जरा आंखें खोलकर देखना चाहिए कि दो साल के भीतर भारत और पड़ोसी देशों में कम से कम दस लेखक, ब्लॉगर, एक्टिविस्ट बंद दिमाग के लोगों के हाथों मौत के घाट उतारे जा चुके हैं. बहुतों का हमलों और धमकियों के कारण जीना मुहाल हो गया है, कईयों को देश छोड़ना पड़ा है. जवाब यह है कि अगर आप अपने हिस्से का सच लिखते हैं, उस पर अड़े रहते हैं तो जान से जा सकते हैं. विरोधी विचार का जवाब न तलाश पाने की बौखलाहट में धर्म की ओट लेकर गोली मारने की प्रवृत्ति बढ़ने के साथ ही लिखना, बोलना, जागरूक बनाना खतरनाक काम होता जा रहा है.
पहले समझा जाता था कि सरकारी साहित्यिक अकादमियां और सांस्कृतिक संस्थाएं क्लर्क चलाते हैं जो कि आदमी ही होते हैं. अब दिखाई दे रहा है कि वे तो रोबोट हैं जो कलबुर्गी को साहित्य अकादमी पुरस्कार दे सकते थे लेकिन उनकी हत्या पर एक शोक प्रस्ताव तक जारी नहीं कर सकते क्योंकि ऐसा करने की कमांड उन्हें अभी नहीं मिली है. जिस तथाकथित सर्वोच्च पुरस्कार के लिए हिन्दी (बाकी भाषाओं का पूर्ण अंदाजा नहीं है) में इतनी कनकव्वेबाजी और जूतमपैजार होती है उसे अंततः एक मंत्री अपनी जेब के सलाहकारों के जरिए तय करता है. संस्था की विश्वसनीयता का भ्रम बनाए रखने के लिए कभी-कभार कुछ अच्छे लेखकों के नाम भी छांट लिए जाते हैं. रोबोट वह पुरस्कार थमा देते हैं फिर लेखक से कोई सरोकार नहीं रखते. भले ही उसे उन्हीं विचारों पर टिके रहने के लिए मार डाला जाए जिनके लिए विरूदावली गान के साथ यह तमगा दिया गया था.
अगर लेखक कलबुर्गी हो जो मध्यवर्ग की सड़ियल प्रेम कहानियां नहीं लिखता, जिसने लिंगायत धार्मिक आंदोलन की अंधविश्वास, जातिप्रथा, मूर्तिपूजा, कर्मकांड का विरोध करने वाली वचन शास्त्र परंपरा (कबीरदास से काफी पुरानी) पर मौलिक शोध किया हो, जो धर्म को व्यक्तिगत मोक्ष और देवत्व के जाल से बाहर लाकर सामाजिक बदलाव का हथियार बनाना चाहता हो तो रोशनी की एक लंबी लकीर सत्ता का असली चेहरा भी दिखा देती है. जातीय-धार्मिक ध्रुवीकरण के नए फाॅर्मूले खोजने वाले, विफलता से डरे हुए ये राजनेता कौन-सा ‘आधुनिक भारत’ बनाने निकले हैं. ये राजनेता जिनकी उंगलियां अंगूठियों से लदी हुई हैं, जो हर चुनाव से पहले मठों, मजारों की परिक्रमा करते हैं, बलि देते हैं, गुप्त तांत्रिक अनुष्ठान कराते हैं. वोट बिदक जाने के डर से खाप पंचायतों समेत तमाम कुरीतियों और अपराधों के खिलाफ मुंह सिले रहते हैं. भला उन्हें कलबुर्गी, दाभोलकर, पानसारे जैसे मनुष्यों की हत्याओं से परेशानी क्यों होगी! ये उलटबांसी काफी हद तक उन्हीं की देन है कि समाज में पूंजी और तकनीक के प्रभाव के समानान्तर ही कर्मकांड, अंधविश्वास और पोंगापंथ फलते-फूलते दिखाई दे रहे हैं, विवेक बेहोश हुआ जा रहा है.
मौजूदा अच्छे दिनों का परिदृश्य तो और भी भयानक है जिसमें भारतीयता को उसके विचार वैविध्य से मिलने वाली ऊर्जा से वंचित कर कुंठित, हिंसक और मनमाने हिंदू रंग में रंगने की कोशिश की जा रही है, इस मूर्खतापूर्ण आत्मविश्वास के साथ जैसे चार्वाक, लोकायत, सांख्य, बौद्ध, जैन, कबीर, दलितों, आदिवासियों के दर्शन, आचार-विचार और धार्मिकताओं का कभी अस्तित्व ही नहीं रहा. पुराणों की टीकाओं, स्मृतियों के पैरोकारों को सत्ताधारी होने के गुमान के साथ अब काॅरपोरेट का पैसा भी मिल गया है. वे नासमझ और अपनी हीनता के कारण गुस्से से भरे लोगों को उकसाकर हिंसा का पाटा चलाकर मैदान बराबर कर देना चाहते हैं.
एक तरफ यह आलम है तो दूसरी ओर हिन्दी में कलबुर्गी की हत्या के विरोध में साहित्य अकादमी सम्मान लौटाने वाले लेखक उदय प्रकाश से हिसाब-किताब बराबर करने की भी पैंतरेबाजी चल रही है. जो इस क्षुद्रता में लगे हैं, उदय को सुधरने का मौका भी नहीं देना चाहते या फिर उन्हें व्यक्तिगत कुंठाओं को उलीचने की स्वतंत्रता अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से भी अधिक प्यारी है. यही झंझावाती समय हिन्दी और दूसरी भाषाओं में सच्चे लेखकों के निर्माण का भी है. बहरहाल एक लेखक की जिंदगी तो कलबुर्गी जैसी ही होनी चाहिए, आसान पहुंच वाले चारागाहों में फैले भेड़ों की तरह झुंड में मैं-मैं करते हुए जीना भी कोई जीना है.