खंडेलवाल द्वारा
24 अक्टूबर 2025
पूरा देश 14 नवंबर का बेसब्री से इंतेज़ार कर रहा है। बिहार में लालू यादव का जंगलराज लौटेगा या नीतीश बाबू का चटपटा करामाती ठेला अपनी जगह टिका रहेगा? बिहार के चुनावी नतीजों से देश की राजनीति प्रभावित हो सकती है।
इस वक्त तेजस्वी यादव महागठबंधन के कप्तान बने हुए हैं, खूब सपने दिखा रहे हैं, लॉलीपॉप बांट रहे हैं। नीतीश कुमार अपनी उपलब्धियों की गाथा सुना रहे हैं। प्रशांत किशोर अपने को किंग मेकर की भूमिका में देख रहे हैं। उधर राहुल गांधी जूनियर पार्टनर के रूप में महा गठबंधन को सत्ता में देखने के मंसूबे बना रहे हैं।
ये बात तो सही है कि नीतीश राज में बिहार में विकास की रफ्तार यूपी जैसी नहीं रही है, अभी भी औद्योगिक समृद्धि के दरवाजे नहीं खुले हैं, लेकिन आंकड़ों का तुलनात्मक अध्ययन करने से स्पष्ट है कि दिशा और गति संतोषजनक है। लालू यादव, रावड़ी देवी, तेजस्वी यादव, ने कुल 18 वर्षों तक सत्ता सुख भोगा, खूब सुर्खियां बटोरीं, परिवार वाद को खूब सींचा।
बीस साल पहले का बिहार एक ऐसा प्रदेश था, जिसका नाम “जंगलराज” से जुड़ गया था। अपराध, भ्रष्टाचार और ठहरी हुई अर्थव्यवस्था की मार ने इसे निराशा के अंधकार में धकेल दिया था। पर अब, नवंबर 2025 के विधानसभा चुनावों से ठीक पहले, बिहार अपनी इस कहानी को पूरी तरह पलटने के मोड़ पर है।
2005 में बिहार का सकल राज्य घरेलू उत्पाद ₹75,608 करोड़ था और आधे से ज्यादा लोग गरीबी की रेखा से नीचे जी रहे थे। उस वक्त सड़कों, बिजली और शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाएं न के बराबर थीं। प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत का लगभग एक-तिहाई थी और साक्षरता दर भी बहुत कम, खासकर महिला साक्षरता।
लेकिन तब से अब तक नीतीश कुमार के नेतृत्व में बिहार ने अभूतपूर्व बदलाव की राह पकड़ी है। आज बिहार का GSDP लगभग ₹11 लाख करोड़ तक पहुँचने वाला है, प्रति व्यक्ति आय में भारी वृद्धि हुई है, और गरीबी दर में काफी कमी आई है। साक्षरता दर बढ़कर 74.3% हो गई है, महिला साक्षरता दोगुनी से अधिक हो गई है। बुनियादी ढांचे में सुधार हुआ है, ग्रामीण सड़कों और बिजली का विस्तार हुआ है, और जीवन स्तर में उल्लेखनीय सुधार दिख रहा है।
यह सब अचानक नहीं हुआ। 2005 में नीतीश कुमार ने कानून-व्यवस्था सुधार को प्राथमिकता दी और लालू-राबड़ी के जंगलराज युग का अंत किया। अपहरण और हिंसक अपराध कम हुए, जिससे निवेश और विकास को बढ़ावा मिला। सरकार ने योजनाओं के जरिए खासकर लड़कियों की शिक्षा पर ध्यान दिया और ग्रामीण इलाकों को जोड़ने वाली सड़कों का नेटवर्क बनाया। कोविड-19 के बाद मजदूरों की वापसी और विनिर्माण में प्रोत्साहन ने आर्थिक रफ्तार को और ऊंचाई दी।
फिर भी, बिहार कई सामाजिक और आर्थिक चुनौतियों से जूझ रहा है। राज्य की कम आय, बेरोजगारी, और जाति-धर्म के जटिल समीकरण इसे निरंतर विकास की राह में बाधित करते हैं। 2025 के विधानसभा चुनाव इस लिहाज से निर्णायक हैं कि क्या बिहार अपनी प्रगति को जारी रखेगा या फिर पुराने संकटों के गर्त में लौट जाएगा।
नीतीश कुमार और एनडीए ने अपनी सरकार में सतत विकास का रिकॉर्ड पेश किया है, जबकि विपक्षी दल आरजेडी सामाजिक न्याय का वादा लेकर सामने है पर उसका जंगलराज का दौर भी लोगों के जेहन में है। नए दल भी खास तौर पर प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी, विकल्प की पेशकश कर रहे हैं, जिससे चुनाव और भी दिलचस्प बन गया है। बिहार में यू पी के जैसे ध्रुवीकरण की रेखाएं स्पष्ट नहीं हैं। नीतीश कुमार की पार्टी को मुस्लिम वोट्स भी मिलते रहे हैं, जबकि भाजपा धार्मिक मुद्दों को दरकिनार करके सिर्फ विकास के लक्ष्यों पर फोकस कर रही है। सत्ताधारी जद यू अपने को सेकुलर पार्टी कहती है।
शुरुआत में लगा था प्रशांत किशोर बिहार की राजनीति में भूचाल लाएंगे, एक नए तरह की वोटर मैनेजमेंट, अपील और युवाओं को आकर्षित करने वाली मुहिम के इंजन बनेंगे। लेकिन अब लग रहा है कि ज्यादा दाल नहीं गल रही है, यानी अब वो पुराने, घिसे पिटे समीकरणों के सहारे ही जोर आजमाइश करेंगे।
बिहार का एवरेज वोटर विश्वास करने लगा है कि सही नेतृत्व और अच्छे प्रशासन से निराशा को विकास में बदला जा सकता है। इस बार मतदाता के सामने एक साफ विकल्प है—क्या वे विकास के रास्ते पर कायम रहेंगे या फिर अतीत की भूलों को दोहराएंगे। हर वोट इस चुनाव की दिशा तय करेगा। संकेत मिल रहे हैं कि वोट कटवा पार्टीज को कोई विशेष तबुज्जोह नहीं मिलेगी। अधिकांश वोटर देश की मुख्यधारा से ही जुड़ना चाह रहा है।




