बिहार की राजनीति में उभरा ज्वार अब शांत दिख रहा है. करीब दो सप्ताह तक पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी की वजह से रहस्यों के आवरण में लिपटी रही बिहार की राजनीति में फिलहाल काफी कुछ साफ हो चुका है. स्थिरता का माहौल बनने लगा है, लेकिन साथ में कई खटके भी हैं. नीतीश कुमार के फिर से मुख्यमंत्री बनने से सारी चीजें पटरी पर आने की बात कही जा रही है. हालांकि एक-दूसरे को घेर लेने, पटखनी देनेवाला बयानयुद्ध अभी भी जारी हैं. नीतीश कुमार अपने मंत्रिमंडल का गठन कर कामकाज शुरू कर चुके हैं. उन्होंने सार्वजनिक रूप से राज्य की जनता से सीएम पद छोड़ने के लिए माफी भी मांग ली है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ खुले मन से काम करने की बात भी कह चुके हैं. जाहिर है नीतीश कुमार उन अटकलों को विराम देना चाहते हैं जिसमें यह कहा जाता था कि वे सीएम रहने के दौरान कभी पीएम नरेंद्र मोदी से मिलना नहीं चाहते थे. नीतीश खुद से लड़ते हुए खुद में बड़े बदलाव के संकेत दे रहे हैं.
दूसरी तरफ मांझी अब भी रार ठाने हुए हैं. वे दुविधा के दोराहे से गुजर रहे हैं. सोशल मीडिया पर सक्रिय होकर लोगों से राय मांग रहे हैं कि क्या मैं नयी पार्टी बनाऊं? कभी जगन्नाथ मिश्र के घर पहुंचकर घंटेभर राय-मशविरा भी कर रहे हैं कि आगे क्या करना चाहिए. भाजपा के साथ जाना चाहिए या अलग से पार्टी का गठन करना चाहिए. जगन्नाथ मिश्र, जो बिहार में कई दफा मुख्यमंत्री रह चुके हैं और पिछले कई सालों से खुद को राजनीतिक तौर पर जिंदा रखने की कोशिश में थे, वे भी इस उठापटक में अचानक से सक्रिय हो गये हैं. इन तमाम व्यस्तताओं के बीच लालू प्रसाद यादव अपनी बेटी की शादी की व्यस्तता का बहाना बनाकर गायब हो गए हैं. न तो वे नीतीश कुमार के शपथ ग्रहण समारोह में आए न ही अपनी पार्टी को सरकार में शामिल होने दिया. तमाम तरह की अटकलें हवा में तैर रही हैं. सवालों के ढेर लगने शुरू हो गये हैं.
मांझी के अनपेक्षित इस्तीफे के बाद बैकफुट पर आयी भाजपा विपक्ष धर्म का निर्वाह करने में लग गई है. रोज-ब-रोज नीतीश के ऊपर हमले का क्रम चल रहा है. मोटे तौर ऊपर से बिहार के राजनीतिक हालात यही दिख रहे हैं. लेकिन अंदरखाने में हर ओर उफान की स्थिति है. जितनी धींगा-मुश्ती मांझी प्रकरण में अब तक हुई है उससे ज्यादा उठापटक की पृष्ठभूमि आगे के लिए तैयार दिख रही है. यह सवाल ज्यादातर लोगों के मन में है कि आगे क्या होगा बिहार में? इस सवाल का जवाब इतना आसान भी नहीं लेकिन जो संकेत मिल रहे हैं, उससे उत्पन्न होनेवाली घटनाओं का अंदाजा मिलता हैं. पहला मसला तो नीतीश कुमार के भविष्य को लेकर ही है क्योंकि इस पूरे प्रकरण में सबसे ज्यादा अगर किसी का कुछ दांव पर लगा था तो वे नीतीश कुमार ही थे. नीतीश कुमार फिलहाल मुख्यमंत्री बनकर उन चुनौतियों से पार पाने में ऊर्जा लगा रहे हैं. एक पखवाड़े पहले तक उनके सामने मांझी की चुनौती थी. मांझी को रहने देने में से भी उनकी पार्टी का नुकसान तय था और मांझी को हटाने के बाद जो होगा उसका परिणाम आना अभी बाकी है. अब उनके सामने छह महीने के भीतर अपने छितराए हुए कुनबे और सियासत को समेटने की चुनौती है.
इस बात पर सबकी निगाहें लगी हुई हैं कि अब वे ऐसा क्या करेंगे जिससे छह माह में खुद को और अपनी पार्टी को चुनाव की चुनौती से उबार ले जाएंगे. नीतीश कुमार के पास कई विकल्प हैं. संभव है, वे सभी विकल्पों को एक-एक कर आजमाएं. किसी भी विकल्प को आजमाने से पहले नीतीश कुमार को खुद में बदलाव लाना जरूरी था, वे ऐसा करते हुए दिख भी रहे हैं. उनके बारे में यह धारणा है कि वे स्वभाव से अहंकारी हैं और उनके अहंकार की वजह से ही मांझी को सीएम बनाया गया और यह सब संकट खड़ा हुआ. नीतीश विनम्रता के साथ अपने बारे में बनी इस धारणा को तोड़ने की कोशिश में हैं. नीतीश के पास सबसे पहला विकल्प किसी भी तरह से लालू प्रसाद की पार्टी राजद के साथ गठजोड़ करने का है. यह गठजोड़ होगा या नहीं, होगा तो इसका स्वरूप क्या होगा, फिलहाल यही सवाल बड़ा बन गया है. हालांकि यह बिल्कुल ही दूसरे किस्म का सवाल है और नीतीश के लिए बड़ी चुनौती भी. नीतीश कुमार इसी
संभावना को हकीकत में बदलने के लिए राजद को सरकार में शामिल करना चाहते थे और अब्दुल बारी सिद्दीकी को उपमुख्यमंत्री बनाना चाहते थे लेकिन ऐसा हो न सका.
इस बात पर सबकी निगाहें लगी हुई हैं कि नीतीश ऐसा क्या करेंगे जिससे छह माह में खुद को और अपनी पार्टी को चुनाव की चुनौती से उबार ले जाएंगे
लालू प्रसाद, नीतीश कुमार के साथ राष्ट्रपति भवन तक परेड में शामिल रहे, लेकिन वे सरकार में शामिल होने से पीछे हट गए. साथ ही वे नीतीश के शपथ ग्रहण समारोह में भी नहीं पहुंचे. बताया गया कि बेटी की शादी की व्यस्तता के चलते ऐसा हुआ. यह तर्क बहुत वाजिब नहीं लगता. भाजपा नेता सुशील मोदी कहते हैं, ‘उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के यहां ही लालू प्रसाद की बेटी की शादी हो रही है. वे अखिलेश यादव नीतीश कुमार के शपथ ग्रहण समारोह में पहुंचे थे. जबकि लालू यादव बिहार के होकर, इस पूरे प्रकरण का हिस्सा होने के बावजूद शपथ ग्रहण से गायब रहे.’ जितनी बड़ी चुनौती नीतीश के सामने है, उतनी ही बड़ी चुनौती लालू प्रसाद के सामने भी है. यह बात जगजाहिर है कि बिहार में लालू यादव का राजनीतिक वजूद नीतीश कुमार ने ही दरकाया है. आज लालू यादव खुद सांसद या विधायक बनने के योग्य नहीं हैं लेकिन अपने बेटे-बेटियों को राजनीति में स्थापित करने की उनकी पूरी इच्छा है. ऐसे में लालू प्रसाद ऐसी कोई गलती नहीं करना चाहते, जिससे उनकी भावी पीढ़ी की राजनीतिक संभावनाओं को नुकसान हो. राजनीतिक हल्कों में माना जा रहा है कि अगर लालू यादवों के अपने घर से कोई नीतीश कुमार के साथ सरकार में अहम भूमिका में नहीं रहेगा या भविष्य में दावेदार के तौर पर पेश नहीं होगा तो उनको अपना कोर वोट बैंक (यादव-मुसलिम) ही संभालना मुश्किल हो जाएगा. इसी वोट बैंक पर लालू प्रसाद और उनकी भावी पीढ़ी के भविष्य की राजनीतिक संभावनाएं टिकी हुई हैं.
इस खतरे को भांपते हुए ही फिलहाल लालू प्रसाद ने अपने वरिष्ठ नेता अब्दुल बारी सिद्दीकी को उपमुख्यमंत्री नहीं बनने दिया. लालू यादव के सामने जीतन राम मांझी का ताजा-ताजा उदाहरण भी है. जिस तरह से जीतन राम मांझी ने सत्ता पाने के बाद खुद को महादलितों का नेता बनाने में अपनी सारी ऊर्जा झोंक दी और बगावत का बिगुल फूंका, उसे देखते हुए लालू प्रसाद कोई गलती नहीं करना चाहते हैं. कल को क्या पता अब्दुल बारी भी उसी राह चले जाएं. बात इतनी ही नहीं है. नीतीश कुमार, लालू प्रसाद के साथ गठजोड़ करने के लिए जितने बेचैन हुए जा रहे हैं वैसी बेताबी लालू यादव को नहीं है. लालू प्रसाद जानते हैं कि गठजोड़ या तालमेल हो जाने के बाद भी नीतीश कुमार टिकट बंटवारे के समय इतनी आसानी से लालू प्रसाद को उतनी सीट नहीं देंगे, जितनी वे चाहते हैं. नीतीश कुमार विधानसभा में संख्याबल का हवाला देंगे. लालू प्रसाद लोकसभा चुनाव में मजबूत हुई अपनी पार्टी का वास्ता देना चाहते हैं.
यह सच भी है. 2010 के विधानसभा चुनाव में भले ही नीतीश कुमार की पार्टी को बड़ी संख्या में जीत मिली थी लेकिन 2014 में संपन्न हुए लोकसभा चुनाव में, भाजपा से अलगाव के बाद नीतीश कुमार की बजाय लालू प्रसाद की पार्टी ही भाजपा से लड़ने में प्रमुख रही और उसका आधार भी बढ़ा हुआ दिखा और सबसे बड़ी बात यह कि लालू प्रसाद को मालूम है कि राज्य भर के यादव मतदाताओं का जो समूह उनके साथ दो दशक से अधिक समय से चिपका हुआ है, जिसमें थोड़ी-सी दरार भाजपा ने डाली है, वह नीतीश कुमार के नेतृत्व को आगे कर देने से और भी दरक सकता है. यादव मतदाताओं के एक समूह में भाजपा लोकसभा चुनाव में सेंधमारी कर चुकी है. भाजपा ने रामकृपाल यादव को केंद्रीय मंत्री बनाकर भी बड़ा पासा फेंक दिया है. नंदकिशोर यादव जैसे नेता को भाजपा राज्य स्तर पर बड़े नेता की तरह आगे बढ़ा रही है. लालू प्रसाद की पार्टी के ही एक और धाकड़ यादव नेता पप्पू यादव विद्रोह का बिगुल बजा चुके हैं. पप्पू यादव न सिर्फ उत्तर बिहार में मजबूत पकड़ रखनेवाले नेता हैं, बल्कि हालिया दिनों में उन्होंने राज्यभर में सभाएं और यात्राएं करके अपना जनाधार बढ़ाया है.
जाहिर है नीतीश के नेतृत्व में चुनाव में जाने का एलानकर लालू यादव अपना बचा-खुचा आधार भाजपा के पाले में नहीं जाने देंगे. ऐसे में नीतीश कुमार के लिए लालू प्रसाद को साधना और उन्हें अपने साथ लाना बड़ी चुनौती है. नीतीश कुमार को इसमें ऊर्जा लगाने के साथ ही छह माह में ही खुद को साबित कर दिखाना होगा कि वे बिहार को फिर से पटरी पर ला रहे हैं. इसके लिए उन्होंने सुशासन को एक बार फिर से अहम मसला बनाया है. लेकिन अब बिहार की लड़ाई सिर्फ गवर्नेंस, सुशासन या विकास के एजेंडे पर नहीं लड़ी जाएगी. यह बात नीतीश कुमार भी जानते हैं कि मांझी प्रकरण के बाद बिहार की राजनीति में जाति एक बार फिर से मुखर होकर सामने आई है और अगले चुनाव में यह बड़ा खेल खेलेगी. भाजपा बार-बार मांझी को हटाये जाने पर महादलित-महादलित का राग छेड़कर इसे और बल देने की कोशिश की है.
नीतीश भले ही गवर्नेंस के मसले पर चुनावी वैतरिणी पार करने की कोशिश करें लेकिन भाजपा जाति को ही केंद्र में रखकर अपनी चाल चलेगी. क्योंकि भाजपा को मालूम है कि नीतीश जाति के बुने चक्रव्यूह में खुद भी फंस सकते हैं. इस फ्रंट पर लड़ने में नीतीश के सामने बड़ी चुनौती होगी. उनके सामने सिर्फ भाजपा की दुश्मनी नहीं होगी, बल्कि एक-एककर कई दुश्मन होंगे. भाजपा सवर्णों और वैश्यों को अपना कोर वोट बैंक मानकर चल रही है. पासवान जाति के लोग रामविलास पासवान के साथ माने ही जाते हैं. उपेंद्र कुशवाहा ने राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी बनाकर कुशवाहा वोटों को नीतीश से अलग कर दिया है. यह सब तो पहले के घाव थे, ताजा चोट मांझी ने दी है. मांझी भाजपा के सहयोग से महादलितों की पार्टी बनाकर खेल खराब कर सकते हैं.
मांझी प्रकरण के बाद बिहार की राजनीति में जाति एक बार फिर से मुखर होकर सामने आई है और अगले चुनाव में यह बड़ा खेल खेलेगी
मांझी के साथ ही पप्पू यादव की राजनीति भी कुलांचे भर रही है. जाति विशेष की बजाय जाति समूह से राजनीति करनेवाले नीतीश कुमार के लिए महादलित और अतिपिछड़ा ही ऐसा समूह रहा है, जिसके जरिये वे इतनी बड़ी जीत हासिल करते रहे हैं. इस बार मांझी प्रकरण के बहाने इस समूह के टूट जाने का खतरा बहुत बड़ा है. ले-देकर नीतीश कुमार के सामने सबसे बड़ा विकल्प छह माह में काम करके खुद को साबित करने का ही बचता है. नीतीश को इसके लिए अरविंद केजरीवाल की भारी जीत से उम्मीदें बंधी है, जो भगोड़ा जैसी उपमा मिल जाने के बाद भी भाजपा का सफाया करने में सफल साबित हुए. हालांकि इन तमाम झंझावातों के बीच एक तथ्य यह भी है कि आज भी बिहार में नीतीश कुमार के जैसी छवि और अपील किसी दूसरे नेता की नहीं है. नीतीश अपनी इस साख को भुनाने की कोशिश जरूर करेंगे.
नीतीश के कामकाज की राह में मांझी ने पहले ही तमाम रोड़े बिछा दिए हैं. जब मांझी की सत्ता डावांडोल हुई तब उन्होंने इतनी घोषणाएं कर दी हैं कि उन्हें पूरा कर पाना किसी के लिए भी आसान नहीं है. मांझी वित्तरहित शिक्षा खत्म करने, ठेके पर बहाल शिक्षकों को नियमित वेतन पर नियुक्त करने के लिए कमिटी का गठन करना, ठेके में दलितों को आरक्षण देने, छोटे-छोटे पदों पर ठेके पर रखे गये लोगों का मानदेय बढ़ाने जैसी कई घोषणाएं कर नीतीश के लिए कई मुश्किलें खड़ी कर गए हैं. अब नीतीश कुमार के सामने चुनौती यह है कि यदि वे एक सिरे से मांझी की सभी घोषणाओं को खारिज करते हैं तो भाजपा के संग मिलकर मांझी राज्यभर में प्रचार करेंगे कि नीतीश जानबूझकर हमारे फैसलों को रद्द कर रहे हैं. और यदि नीतीश कुमार, मांझी के फैसले पर अमल करने की कोशिश करते हैं तो राज्य दिवालिया हो सकता है.
ऐसा भी नहीं कि परेशानी सिर्फ नीतीश कुमार के हिस्से में ही आई है. भाजपा भी कमोबेस उतने ही संकट में फंसी हुई है. दिल्ली विधानसभा चुनाव में हार के बाद भाजपा का मनोबल टूटा है. राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह यह घोषणा कर चुके हैं कि बिहार में मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार का नाम घोषित कर ही चुनाव लड़ा जाएगा. भाजपा के लिए उम्मीदवार को घोषित करना इतना आसान नहीं होगा. बिहार में भाजपा कई खेमों में बंटी हुई पार्टी है और सभी खेमे मजबूत हैं. चार-चार दावेदार तो अभी ही दिख रहे हैं, जिसमें सुशील मोदी, नंदकिशोर यादव की स्वाभाविक दावेदारी के साथ ही शहनवाज हुसैन और रविशंकर प्रसाद का नाम भी उछाला जा रहा है. सुशील मोदी या नंदकिशोर यादव के नाम पर अंत में रार मचनी तय है.
सुशील मोदी के नाम पर एक नई किस्म की मुश्किल है. बिहार से सटे झारखंड में भाजपा अभी-अभी एक वैश्य (रघुवर दास) को मुख्यमंत्री बना चुकी है. बिहार में भी वैश्य समुदाय का मुख्यमंत्री बनाकर पार्टी अपने पारंपरिक और नए वोटरों के बीच संकट में फंस सकती है. नंदकिशोर यादव का नाम घोषित होने की हालत में सुशील मोदी पार्टी से नाराज हो सकते हैं. मोदी वर्षों से मुख्यमंत्री पद का सपना संजोए हुए हैं. इस उम्मीद के टूटने की हालत में भितरघात की स्थिति बन सकती है. मोदी को नीतीश कुमार के सबसे प्रिय मित्रों में माना जाता है. भाजपा के सामने यह चुनौती बड़ी है.
ऐसा भी नहीं कि परेशानी सिर्फ नीतीश कुमार के हिस्से में ही आई है. भाजपा भी संकट में फंसी हुई है. दिल्ली में हार के बाद भाजपा का मनोबल टूटा है
भाजपा की एक और चुनौती मांझी हैं. वे आज साथ दे रहे हैं, कल को रास्ता बदल भी सकते हैं. रास्ता बदलने का उनका लंबा इतिहास रहा है. वे अच्छे दिनों की संभावनावाले दल का साथ देने के लिए जाने जाते हैं. कांग्रेस के अच्छे दिन में कांग्रेसी थे. राजद के अच्छे दिन में लालू के थे. नीतीश के अच्छे दिन आये थे तो नीतीश के साथ आ गए. अभी भाजपा के इर्द-गिर्द हैं, कल को पाला बदल भी सकते हैं. इस इतिहास के मद्देनजर भाजपा मांझी पर एक हद से ज्यादा भरोसा नहीं कर सकती. मांझी आज कह रहे हैं कि उन्हें नीतीश के लोगों ने धमकी दी, उनके लोगों को जान से मारने की धमकी दी गई इसलिए वे डरकर विधानसभा में विश्वास मत प्राप्त करने नहीं गये. कल को मांझी यह भी कह सकते हैं कि नीतीश कुमार तो देवता आदमी हैं और महादलितों के हितैषी भी हैं. मांझी को जानने समझनेवालों का साफ मानना है कि वे कभी भी ऐसा कर सकते हैं. और यदि ऐसा हुआ तो दुविधा के दोराहे से गुजर रहे महादलित बहुत ही आसानी से नीतीश के पाले में आ सकते हैं. और अगर ऐसा होता है तो भाजपा की सारी रणनीति फेल हो जाएगी.
बिहार के रंगमंच पर चुनाव से पहले एक और चरित्र की धमाकेदार एंट्री होने की सुगबुगाहट है. मांझी के साथ ही भाजपा कोशिश में है कि जदयू और नीतीश कुमार से नाराज चल रहे साबिर अली जैसे पैसे व प्रभाववाले नेता की भी एक नई पार्टी खड़ी करवा दी जाय. इसके जरिए नीतीश और लालू से नाराज मुस्लिम नेताओं का जुटान करके मुसलिम वोटों में सेंधमारी करने की योजना है.