बात पिछले महीने की है. पटना के गांधी मैदान में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह और केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह जैसे दिग्गजों की मौजूदगी में विराट कार्यकर्ता सम्मेलन होने के अगले दिन की. पटना के भाजपा कार्यालय में हर दिन की तरह जमावड़ा लगा था. उस रोज के सम्मेलन में पटना के सांसद शत्रुघन सिन्हा के गायब रहनेवाली खबर चर्चा में थी. भाजपा के ही दूसरे सांसद अश्विनी चौबे के मंच पर चढ़ने के बाद जगह और पूर्व इजाजत के अभाव में वहां से हटा देनेवाली खबर भी अलग से ‘मजावाद’ को बढ़ाए हुए थी. एक तरीके से हर्ष व्यक्त करने के दिन मायूस होने का माहौल था, क्योंकि आपसी खींचतान और अनुशासित पार्टी के नियंत्रणहीन होने की कथा सबके सामने आ चुकी थी और अमित शाह से लेकर राजनाथ सिंह जैसे नेताओं को भी बिहार के भाजपा सांसद कितना भाव देते हैं, यह सार्वजनिक तौर पर सबको पता चल चुका था.
भाजपा कार्यालय के पास ही अवस्थित जदयू कार्यालय में इस पर चुटकी लेनेवालों की जमात बैठी थी और पास के राजद कार्यालय में भी यही चर्चा का विषय था. भाजपा कार्यालय में भी इस बात पर बतकही चल रही थी लेकिन विषय बदलने के लिए एक छुटभैये नेता ने बात बदली. फटाफट सीटों का अनुमान लगना शुरू हुआ. राजद-जदयू के महाविलय में खींचतान पर मजा लेने की बात शुरू हुई. बात होती रही और बातों-बातों में ही बैठे-बैठे यह निष्कर्ष निकाल लिया गया कि भाजपा इस बार अपने दम पर इतनी सीट लाएगी कि सहयोगी दल लोजपा या राष्ट्रीय लोक समता पार्टी जैसे दलों के नेता भी फिर सरकार चलाने में ब्लैकमेल करने या दबाव बनाने की स्थिति में नहीं रहेंगे. खुद से ही विजयी समीकरण बिठा लेने और खुद को तसल्ली देने के बाद सभी निश्चिंत मुद्रा में आए.
तभी एक सवाल किसी ने हवा में उछाल दिया कि सब तो होगा लेकिन किसके नाम पर? नेता कौन होगा बिहार भाजपा का, नीतीश कुमार के मुकाबले भाजपा की ओर से कौन रहेगा? यह सवाल आते ही फिर माहौल तनाव का बना, जिस नेता ने यह सवाल उठाया था, उसे सभी ने घूरकर देखा और बतकही की चौकड़ी वहीं खत्म हो गई. भाजपा कार्यालय में हर दिन ऐसी ही बैठकों का दौर चलता है. सुबह राजद-जदयू के महाविलय में आनेवाली पेंच और परेशानियों पर मजा लिया जाता है. दोपहर बाद लगनेवाली चौकड़ी में सवर्णों का इतना, कुशवाहा का इतना, वैश्यों का इतना, पासवानों का इतना, मांझी के जरिए इतना, पप्पू यादव के बिदक जाने पर इतना, फलाना के जरिये इतना, वहां से इतना आदि का अनुमान लगाया जाता है और फिर सरकार बना ली जाती है और शाम आते-आते जब नेता का सवाल सामने आता है तो माहौल तनाव में बदल जाता है और सबके विदा हो जाने की बारी आती है.
एक अदद नेता की तलाश
भाजपा की यह परेशानी यूं ही नहीं. पहली बार सत्ता पाने की आस लगाए उसे एक अदद नेता की तलाश है. बात शुरू होती है तो सबसे पहला नाम सुशील मोदी का आता है, जो स्वाभाविक भी है. सुशील मोदी बिहार में भाजपा के वरिष्ठ नेता हैं. बोलक्कड़ हैं, सरकार का अनुभव रहा है. नीतीश कुमार के साथ उपमुख्यमंत्री रह चुके हैं. लेकिन तर्क ये भी है कि सुशील की सीमा है. वे अभी तक ऐसे नेता नहीं बन सके हैं, जो भाजपा के कोर व कैडर वोट के अलावा किसी दूसरे वर्ग में अपील कर वोट निकलवा सकें. नीतीश कुमार के मुकाबले उनकी छवि ऐसी नहीं कि वे पूरे बिहार में अपने व्यक्तित्व से अपील कर सके. और फिर सबसे बड़ा पेंच यह है कि उन्हें लेकर भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व में संकट अलग है. मोदी वैश्य समुदाय से आते हैं और पास के झारखंड में भी रघुवर दास वैश्य नेता ही हैं, जो सीएम बने हैं. दो पड़ोसी राज्यों में वैश्य का ही प्रयोग भाजपा करना चाहेगी, इसमें संदेह है.
यह बात एक वरिष्ठ भाजपा नेता ही बताते हैं. वह कहते हैं कि सुशील मोदी को सामने करने का मतलब होगा कि भाजपा के अंदर साफ-तौर पर तीन खेमे का हो जाना, जिसमें एक खेमा गिरिराज सिंह, अश्विनी चैबे जैसे नेताओं का होगा तो दूसरा खेमा नंदकिशोर यादव जैसे नेताओं का. सुशील मोदी को लेकर भाजपा के कार्यकर्ताओं में भी एक खेमा है, जिनमें नाराजगी का भाव रहता है, क्योंकि जब वे नीतीश कुमार के साथ सत्ता में थे तो कई बार ऐसे लगते थे जैसे वे भाजपा के नेता कम, जदयू के नेता या नीतीश कुमार के ‘पोसुआ हनुमान’ ज्यादा हैं. और तो और नरेंद्र मोदी के मुकाबले नीतीश कुमार को बेहतर प्रधानमंत्री उम्मीदवार बतानेवाले बयान का इतिहास भी उनके साथ जुड़ा है, जो आए दिन भाजपा कार्यालय में उनके विरोधी नेता सुनाते रहते हैं.
सुशील मोदी के बाद नंदकिशोर यादव का नाम भाजपा खेमे में उठता है. नंदकिशोर संघप्रिय भी हैं और प्रदेश भाजपा अध्यक्ष रह चुके हंै, सो कार्यकर्ताओं पर भी पकड़ है. इन्हें सामने करने से यादव मतों में बिखराव की भी उम्मीद की जाती है लेकिन उनकी सीमा सुशील मोदी की तरह ही मानी जाती है. उनके व्यक्तित्व में भी कभी राज्यव्यापी अपील नहीं रही. इन दोनों नेताओं के बाद एक लंबी फेहरिस्त है भाजपा में, जो समय-समय पर सीएम उम्मीदवार बन जाने का सपना देखते रहते हैं. इनमें लोकसभा में हार चुके शाहनवाज हुसैन, पटना सांसद व दुर्लभ बने रहनेवाले सांसद शत्रुघ्न सिन्हा, केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद समेत कई नेता हैं. अब भाजपा तय नहीं कर पा रही कि किसे सामने लाए. बात इतनी भी नहीं, अगली बात यह है कि अगर नंदकिशोर यादव या सुशील मोदी में किसी का नाम सामने लाया जाता है तो भाजपा में खुलेआम लड़ाई तय है और भितरघात को रोकने में कोई सक्षम न हो पाएगा, क्योंकि भाजपा में अंदरूनी तौर पर बिहार में किस स्तर की लड़ाई और खेमेबाजी ने कितनी दूरियां बढ़ा दी हैं, यह भाजपा का एक सामान्य कार्यकर्ता भी जानता है.
तो क्या बिन नेता पार कर लेंगे नैया
तब सवाल उठता है कि क्या बिना किसी नेता को सामने किए ही भाजपा बिहार में बेड़ा पार करना चाहेगी? यह सवाल इसलिए भी अहम बन जाता है, क्योंकि इसका संकेत भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने विराट कार्यकर्ता सम्मेलन में दिया था. शाह ‘जय-जय बिहार- भाजपा सरकार’ का नारा देते हुए विदा हुए थे और यह कह गए थे कि जब तक दो तिहाई बहुमत नहीं आता है, तब तक किसी कार्यकर्ता को चैन से नहीं बैठना है. शाह गांधी मैदान में नसीहतों की घुट्टी तो पिला गए थे लेकिन भूल गए थे कि वे खुद पहले ही एेलान कर चुके हैं कि बिहार में वे चुनाव नेता की घोषणा कर लड़ेंगे. भाजपा के एक खेमे का मानना है कि नरेंद्र मोदी के नाम पर ही चुनाव लड़ना ठीक होगा और बाद में महाराष्ट्र या हरियाणा की तर्ज पर किसी नेता को सामने करना ठीक होगा. लेकिन भाजपा के लिए बिहार में यह प्रयोग करना आसान न होगा, क्योंकि बिहार में लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के मिलन के बाद यह तय हो चुका है कि इस बार चुनाव विशुद्ध रूप से जातीय गणित के आधार पर होगा और जातियों की गोलबंदी मजबूत एजेंडे के साथ सामने एक मजबूत नेता के रहने पर ही होती है.
दूसरी बात यह भी कि बिहार में अब चुनावी लड़ाइयां व्यक्तित्वों के आधार पर लड़ने का ट्रेंड हो चुका है. लालू प्रसाद और नीतीश कुमार की भी लड़ाई एजेंडे से ज्यादा व्यक्तित्व की लड़ाई थी. विगत लोकसभा चुनाव में भी नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व की ही लड़ाई हुई थी. हालांकि वरिष्ठ पत्रकार अजय कुमार कहते हैं कि लड़ाई एजेंडे पर होगी और उसमें भाजपा पिछड़ जाएगी. राजनीतिक विश्लेषक प्रेम कुमार मणि कहते हैं कि लड़ाई एजेंडे पर भी होगी तो भाजपा अब पहलेवाली नहीं रही है. नीतीश और लालू एक हो गए हैं लेकिन महाविलय में मांझी का बाहर रहना भाजपा के लिए रामबाण का काम करेगा.
और अगर लड़ाई एजेंडे पर हुई तो…
बिहार का चुनाव इस बार जाति के आधार पर होना है यह तय है लेकिन ऊपरी तौर पर विकास और सामाजिक न्याय का एजेंडा रहेगा. सामाजिक न्याय के एजेंडे पर नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव एक मजबूत नेता हैं और उनकी पहचान रही है. उन दोनों नेताओं से मुकाबला करना भाजपा के लिए आसान नहीं होगा. राजनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन मानते हैं कि राजनीति में कभी भी लड़ाई व्यक्तित्व और एजेंडे पर होती है और लालू सामाजिक न्याय की राजनीति की शुरुआत करनेवाले नेता रहे हैं. नीतीश कुमार ने उसमें विकास, गवर्नेंस आदि का मामला जोड़कर न सिर्फ बिहार बल्कि उत्तर भारत की राजनीति को प्रभावित किया है, इसलिए वे बड़े नेता हैं और एजेंडा सेटर भी. महेंद्र सुमन की बात सही है. नीतीश इस मामले में एक बड़े नेता रहे हैं और उनकी पहचान भी वही रही है. सामाजिक न्याय के एजेंडे पर लड़ने के लिए भाजपा के पास नरेंद्र मोदी की जाति, बिहार के भाजपा नेताओं में सुशील मोदी, नंदकिशोर आदि का पिछड़ी जाति से आना और उपेंद्र कुशवाहा-रामविलास पासवान जैसे नेताओं के साथ रहने से उम्मीद जगती है. भाजपा को यह भी उम्मीद है कि वह ‘जंगलराज’ का नारा लगाकर लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के साथ आने के मसले को भुनाएगी और इसे प्रचारितकर बेड़ा पार कर लेगी.
जैसा कि भाजपा नेता शाहनवाज हुसैन कहते हैं, ‘नीतीश कुमार और लालू प्रसाद अकेले चुनाव नहीं लड़ पा रहे हैं, डरे हुए हैं, इसी से पता चलता है कि वे खुद पर कितना भरोसा खो चुके हैं.’ भाजपा नेताओं के ऐसे तर्क होंगे, और यही तर्क चलाने की कोशिश भी होगी. भाजपा के नेता यह भी बताने की कोशिश में लगे हुए हैं कि नरेंद्र मोदी से लेकर बिहार तक में पिछड़े नेताओं की भरमार है. इसका असर भी हो सकता है लेकिन दूसरी ओर इस बार नीतीश कुमार के साथ लालू प्रसाद होंगे. नीतीश कुमार अगर मौन साधकर भी खुलेआम कुछ नहीं बोल सकेंगे तो लालू प्रसाद उसकी भरपाई करते हुए सामाजिक न्याय की आक्रामक बातों को रखकर गोलबंदी की कोशिश करेंगे, जिसे करने में भाजपा को कई बार सोचना होगा, क्योंकि भाजपा अपने बड़े वर्ग सवर्णों को किसी भी हाल में हाथ से निकलने नहीं देना चाहेगी. सामाजिक न्याय के बाद विकास के एजेंडे पर बात होगी तो इस मसले पर भाजपा नेताओं को थोड़ी राहत मिल सकती है और वे इस बात का प्रचार अभी से ही कर रहे हैं कि नीतीश कुमार ने बिहार में तब तक ही कोई काम किया, जब तक भाजपा उनके साथ रही. भाजपा से अलगाव के बाद वे बिहार में कोई काम नहीं कर सके हैं. साथ ही भाजपा इस बात का भी प्रचार करेगी कि जो नीतीश कुमार, लालू प्रसाद के कुशासन और जंगलराज और विकास का काम खत्म हो जाने का एजेंडा बनाकर शासन में आए थे, वे फिर से उसी लालू प्रसाद के साथ हो गए हैं तो बिहार में विकास का काम फिर से भंवरजाल में फंस जाएगा.
इसके अलावा भाजपा को एक उम्मीद पहली बार केंद्र की ओर से बिहार के लिए मिले खास पैकेज को प्रचारित कर फल पाने पर है. हालांकि सूत्र यह बताते हैं कि भाजपा विकास को लेकर एक दूसरे एजेंडे पर भी काम कर रही है और संभव है कि अगले दो माह में नरेंद्र मोदी खुद बिहार में आकर ऐसी लोकलुभावन योजनाओं की घोषणा करेंगे, जिससे माहौल बदलेगा. अभी भी सच्चाई यही है कि बिहार में विकास के एजेंडे को जब नीतीश कुमार मसला बनाने की कोशिश कर रहे हैं, भाजपा उन्हें घेर लेने में सफल हो जा रही है. यही उम्मीद भाजपा को सपने पालने की छूट दिए जा रही है. लेकिन सामाजिक न्याय का एजेंडा हो या विकास का मसला, इस बार चुनाव में यह दूसरे मसले होंगे, सारा गणित जातियों के आधार पर लगना है और वह गणित इस बार लगातार उलझता हुआ दिख रहा है. मांझी फैक्टर अलग समीकरण बना रहा है. पप्पू यादव की बगावत अलग कहानी कहेगी.
जाति की राजनीति में कहां टिकेगी भाजपा
भाजपा के सामने तमाम बातों के बीच लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के मिलन के बाद बड़ा सवाल होगा कि जाति की राजनीति में वह कहां टिकेगी? भाजपा किसी तरह बिहार में तीन ध्रुवों की लड़ाई चाहती है, जिसमें एक ध्रुव पर लालू प्रसाद-नीतीश का गठबंधन हो, दूसरे ध्रुव पर भाजपा हो और तीसरे ध्रुव पर जीतन राम मांझी के साथ विद्रोहियों-बगावतियों का खेमा हो. इसलिए बार-बार जीतन राम मांझी द्वारा भाजपा को समर्थन देने का एेलान करने के बाद भाजपा नेता उस बारे में कुछ भी कहने से बच रहे हैं. भाजपा नेताओं को पता है कि मांझी को बैक सपोर्ट करके अलग से ही चुनाव लड़ाने से फायदा हो सकता है, सीधे साथ आ जाने से नुकसान की संभावना ज्यादा है, क्योंकि तब दो ध्रुवीय लड़ाई होगी और भाजपा की राह आसान नहीं रह जाएगी.
भाजपा नेताओं का गणित है कि सवर्ण, वैश्य, कुशवाहा, पासवान तो सीधे उसकी झोली में हैं. पप्पू यादव के बगावत के बाद कोसी इलाके का नीतीश और लालू प्रसाद का समीकरण गड़बड़ा सकता है. जीतन राम मांझी के कारण महादलितों का वोट इधर-उधर होगा और इतना मैनेज करने के बाद रास्ता आसान रहेगा. यह कहने-सुनने में तो आसान लगता है लेकिन इस रास्ते में दुविधा और पेंच ज्यादा हैं. उपेंद्र कुशवाहा और रामविलास पासवान, दो ऐसे संगी साथी भाजपा के हैं, जो भाजपा की वजह से जीवनदान पाकर तो राजनीतिक रूप से पुनर्जीवित जरूर हुए हैं लेकिन अब उनकी अपनी महत्वाकांक्षा है. लोजपा कार्यालय के बाहर चिराग पासवान बिहार के भावी सीएम के रूप में टंगे मिलते हैं तो उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी रालोसपा की कोई मीटिंग इस नारे के बिना अधूरी रहती है कि बिहार का सीएम कैसा हो-उपेंद्र कुशवाहा जैसा हो, इन नारों का मतलब साफ है कि उपेंद्र या रामविलास पासवान जानते हैं कि चुनाव में बेड़ा पार करने के लिए अपने आधार के विस्तार के लिए भाजपा को उन पर निर्भर रहना पड़ेगा, इसलिए वे ज्यादा से ज्यादा मोलभाव करना चाहेंगे.
दूसरा पेंच जीतन राम मांझी को लेकर है, जो अपनी रैली में तो खुलेआम कहते हैं कि वे भाजपा के साथ जा सकते हैं लेकिन बाद में यह भी कह देते हैं कि अगर उनका नेतृत्व स्वीकार हो तो वे लालू-नीतीश के साथ भी जा सकते हैं. यानी जीतन राम मांझी को लेकर भाजपा भी निश्चित नहीं है िक वे आखिरी समय तक किधर रहेंगे और अगर मांझी ने पलटी मारी तो भाजपा का सारा का सारा खेल गड़बड़ा सकता है. पप्पू यादव जैसे नेता भले ही आज बगावती तेवर अपनाकर कोसी इलाके में लालू-नीतीश के लिए परेशानी बनते दिख रहे हों लेकिन वह भाजपा के लिए मददगार साबित होंगे या रास्ता कुछ और तलाशेंगे, अभी कहना मुश्किल है.
भाजपा के लिए जातियों की राजनीति साधने में तीन बिंदुओं को ही साधना सबसे बड़ी चुनौती है. एक तो किसी तरह से महादलितों के वोट को लालू-नीतीश के पाले में जाने से रोकना. दूसरा मुस्लिम मत, जो एकमुश्त इस बार लालू-नीतीश के खाते में जाएंगे, उसमें बिखराव लाना और तीसरा यादव मतों का बिखराव कराना. इसके लिए भाजपा अपनी ओर से तैयारी कर रही है. मुस्लिम मतों के बिखराव के लिए साबिर अली जैसे नेताओं को प्रोमोटकर भाजपा अलग से मुस्लिम नेताओं की पार्टी बनवाना चाहती है. यादव मतों के लिए रामकृपाल यादव और नंदकिशोर यादव को अपने पाले में रखने के बाद वह पप्पू यादव में संभावनाओं के सूत्र तलाश रही है और महादलितों के लिए एकमात्र उम्मीद के तौर पर जीतन राम मांझी हैं. लेकिन इन तीनों योजनाओं में से कोई भी एक योजना ऐसी नहीं है, जिस पर आखिरी समय तक भरोसा किया जा सके.
…और यह भाजपा के भविष्य का चुनाव है
भाजपा कोई कसर नहीं छोड़ रही है. इस बार आरएसएस की ओर से दत्तात्रेय होसबोले जैसे संगठनकर्ता कमान संभाल रहे हैं. पार्टी के एक नेता बताते हैं कि बिहार मंे हम किसी भी तरह से हार नहीं चाहते. इसलिए बिहार भाजपा के एक खेमे में यह सुगबुगाहट भी है कि कोई रास्ता न दिखे तो फिर नीतीश के साथ ही जाने में कोई बुराई नहीं. अगर नीतीश के साथ गए तो फिर बी टीम ही बनकर रहना होगा. हालांकि नीतीश कुमार से मिलन की बात आगे नहीं बढ़ पा रही, क्योंकि दोनों को पता है कि अगर बिहार के भाजपा नेताओं का साथ नहीं मिलेगा, वे भितरघात करेंगे तो फिर कोई समीकरण काम नहीं आ सकेगा.