हिंदी फिल्म का मशहूर गीत, ‘जिंदगी इम्तहान लेती है’ इन दिनों उत्तराखंड के मुख्यमंत्री हरीश रावत पर मौजूं है. सूबे की बागडोर थामने के रोज से ही वे परीक्षाओं से गुजर रहे हैं, लेकिन अब जो परीक्षा उनके सामने है, वह अब तक की तमाम परीक्षाओं से कठिन और निर्णायक मानी जा रही है. इसका नतीजा उनके राजनीतिक भविष्य की इबारत लिखेगा. यह परीक्षा है सूबे में तीन विधान सभा सीटों पर पर तय हो चुके उपचुनाव की. 21 जुलाई को होने जा रहे इस चुनाव के जरिए रावत को मुख्यमंत्री बने रहने के लिए अपनी सीट तो जीतनी ही है, सत्ता पर मजबूत पकड़ बनाने के लिए बाकी सीटें भी हासिल करनी हैं.
मगर यह इतना आसान नहीं है. दरअसल गैरसैंण में विधानसभा सत्र निपटाने तक हालात मुख्यमंत्री के अनुकूल माने जा रहे थे. देहरादून लौटने तक प्रदेश कांग्रेस की कमान उनके सिपहसालार किशोर उपाध्याय के हाथों मेंं आ चुकी थी. लोकसभा चुनाव की हार के बाद जहां समूची कांग्रेस सदमे में थी, रावत सियासी चौसर पर मोहरें बिछा रहे थे. उनकी हर चाल मनमाफिक पड़ रही थी. यह उनकी सियासी चाल का ही नतीजा था कि उनके वफादार विधायक हरीश धामी ने धारचूला से उनके लिए सीट खाली कर दी, जबकि पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा नेता डॉ रमेश पोखरियाल निशंक के सांसद चुने जाने के बाद डोईवाला सीट खाली थी. लेकिन रावत एक तीर से दो निशाने साधने की फिराक में थे. सियासी हवाओं में चर्चा तैर रही थी कि वे डोईवाला और धारचूला से चुनाव लड़ेंगे. इसके लिए डोईवाला में हरीश समर्थकों की टीम उतार दी गई थी.लेकिन तभी हेलीकॉप्टर में हुए एक हादसे ने उनकी रफ्तार पर मानों ब्रेक लगा दिए. गर्दन में लगे झटके के चलते हुई तकलीफ ने उन्हें दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) पहुंचा दिया. तकरीबन दो हफ्ते से रावत सूबे की सियासत को एम्स से ही कंट्रोल करने की कोशिश कर रहे हैं. नियति ने ऐसी पलटी मारी है कि जिन मंत्रियों को उन्होंने एक महीने तक विभागों के लिए तरसाए रखा, उन्हीं मंत्रियों को अब उन्हें शासन के कामकाज का जिम्मा बांटना पड़ रहा है. वरिष्ठ काबीना मंत्री डॉ इंदिरा हृदयेश उनकी अनुपस्थिति में महत्वपूर्ण मामलों को देख रही हैं. इंदिरा कहती हैं, ‘मुख्यमंत्री को आराम की सलाह दी गई है. इसमें एक महीना भी लग सकता है. ऐसे में मुझे शासन के मसलों को देखने के लिए कहा गया है.’
बहरहाल, इंदिरा सचिवालय के चौथे तल पर बैठ कर रोजाना आला अधिकारियों की बैठक ले रही हैं. लेकिन इसके बावजूद संवैधानिक तौर पर वे शासकीय कार्यों में निर्णय लेने के लिए अधिकृत नहीं हैं. पूर्व आईएएस अफसर एसएस पांगती कहते हैं, ‘संविधान में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है कि मुख्यमंत्री की जगह किसी मंत्री को जिम्मा सौंप दिया जाए. ऐसे हालात में वरिष्ठ सदस्य को मुख्यमंत्री पद की बाकायदा शपथ दिलाकर जिम्मेदारी तय की जाती है.’
मगर उत्तराखंड में यह मुमकिन नहीं. मुख्यमंत्री की कुर्सी हरीश रावत ने बड़ी मुश्किल से हासिल की है. इसके लिए उन्हें लंबा इंतजार करना पड़ा है. सत्तारूढ़ कांग्रेस के जो हालात हैं उनमें ‘विश्वास’ के लिए कोई जगह नहीं दिखती. मुख्यमंत्री की कुर्सी से हटाए जाने के बाद विजय बहुगुणा समर्थक भी रावत की घेराबंदी में जुटे हैं. वे रावत को उन्हीं की चाल से जवाब देना चाहते हैं. यह खेमा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के पद पर उपाध्याय की ताजपोशी से नाराज हैं. कैबिनेट के दबंग मंत्री डॉ हरक सिंह रावत के इस बयान कि उपाध्याय को अध्यक्ष बनाए जाने से पार्टी के एक बड़े तबके में नाराजगी है, ने साफ कर दिया है कि कांग्रेस के भीतर सबकुछ ठीक नहीं है. हरक ने मुख्यमंत्री के डोईवाला और धारचूला से चुनाव लड़ने की संभावनाओं पर भी सवाल उठाए. उनके इस बयान के तीन दिन बाद ही कांग्रेस आलाकमान से तीन सीटों के लिए उम्मीदवारों की सूची जारी हुई. इस सूची के मुताबिक हरीश रावत को धारचूला से उम्मीदवार बनाया गया है. डोईवाला से पार्टी ने तिवारी सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे हीरा सिंह बिष्ट को उतारा है. बिष्ट डोईवाला से 2012 में बेहद कम अंतर से चुनाव हार गए थे. कांग्रेस संगठन से जुड़े सूत्रों की मानें तो सीएम बेशक एम्स में भर्ती हैं लेकिन प्रदेश के सियासी हालात पर पैनी नजर रखे हुए हैं. सूत्रों का कहना है कि अस्पताल में भर्ती होने तक सीएम का डोईवाला से चुनाव लड़ने का पक्का मन था. लेकिन विरोधी खेमे के मंसूबों को भांप कर रणनीति बदल दी गई. डोईवाला की जगह अब सोमेश्वर सीट पर फोकस किया गया है. वहां भाजपा छोड़कर कांग्रेस में लौटी रेखा आर्य पर दांव खेला जा रहा है. टिकट फाइनल होने से एक दिन पहले ही आर्य को पार्टी में लाया गया. उनकी एंट्री एम्स में मुख्यमंत्री की मौजूदगी में हुई. लोकसभा का टिकट काटे जाने से आर्य भाजपा से नाराज थीं. कांग्रेस ने इसका फायदा उठाया.
हरीश रावत को धारचूला से चुनाव लड़ना है. कांग्रेस उनकी जीत को लेकर आश्वस्त है. लेकिन सीएम की निगाहें डोईवाला और सोमेश्वर पर ही लगी हैं. दोनों सीटों पर जीत उनकी स्थिति मजबूत करेगी. अभी कांग्रेस पार्टी के 32 विधायक हैं. सरकार बसपा के तीन, यूकेडी के एक और तीन निर्दलीय विधायकों के समर्थन से चल रही है. उपचुनाव में तीनों सीटें मिलने से कांग्रेस बहुमत से सिर्फ एक सीट दूर रह जाएगी. बेशक तब भी सरकार गठबंधन के सहयोग से चले, लेकिन उस सूरत में रावत के पास खुलकर निर्णय लेने की आजादी रहेगी.
ये उपचुनाव नये नवेले प्रदेश अध्यक्ष बने किशोर उपाध्याय के रणनीतिक कौशल की भी परीक्षा माने जा रहे हैं. यही वजह है कि विरोधियों की तगड़ी घेराबंदी के बावजूद वे अपना पूरा फोकस उपचुनाव पर केंद्रित किए हुए हैं. वे जानते हैं कि चुनाव में पार्टी को कामयाबी मिलने की स्थिति में उन्हें इसका दोहरा लाभ मिलेगा. इसीलिए वे किसी तरह की अनावश्यक बयानबाजी से भी परहेज कर रहे हैं. एकजुटता उनका सूत्रवाक्य बन चुका है. वे जहां जा रहे हैं, एकजुटता की ही बातें कर रहे हैं. वे कहते हैं, ‘पार्टी में उत्साह लौट रहा है. त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में भाजपा मोदी के ‘हैंगओवर’ से बाहर आ गई है और उसके अधिकांश प्रत्याशी चुनाव हार गए हैं. साफ है कि उपचुनाव में भाजपा की डगर आसान नहीं होगी. पार्टी की स्थिति इस कदर खराब है कि कई-कई दावेदारों के चलते वह अभी तक प्रत्याशी ही तय नहीं कर पाई है. कांग्रेस तीनों सीटों पर जीत दर्ज करेगी.’
लेकिन प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष तीरथ सिंह रावत, उपाध्याय की बातों से इत्तेफाक नहीं रखते. टिकटों के ऐलान में हो रही देरी को वे सांगठनिक प्रक्रिया का हिस्सा बताते हैं. इसके अलावा एक ही सीट पर कई-कई दावेदारों के नाम सामने आने को भी वे पार्टी के पक्ष में बताते हैं. उनका कहना है कि जीत की संभावनाओं को देखते हुए ही पार्टी में चुनाव लड़ने के लिए ज्यादा नाम सामने आ रहे हैं.
कुल मिलाकर सूबे का सियासी परिदृश्य लोक सभा चुनाव के ठीक उल्टा है. तब भाजपा ने अपने प्रत्याशी पहले ही उतार दिए थे, लेकिन इस बार वह इस मामले में कांग्रेस से पिछड़ गई है. हालांकि असली हार-जीत तो उपचुनाव के नतीजों से ही तय होनी है.