जगदलपुर जिले से निकलकर सड़कविहीन रास्तों से होते हुए जब आप 56 किलोमीटर का रास्ता तय करते हुए तोंगपाल पुलिस थाने पहुंचते हैं तो इस बात का अंदाजा सहज ही हो जाता है कि हम यहां अपने खुद के जोखिम पर है. सीआरपीएफ के जवान हों या छत्तीसगढ़ पुलिस के सिपाही, यहां सबके चेहरों पर एक-सा तनाव आपको अहसास दिलाता है कि महसूस की जा रही शांति केवल छलावा भर है. कभी भी-कुछ भी हो सकता है. अतीत की घटनाएं भी यही बताती हैं. हालांकि बस्तर को कवर करने वाले पत्रकारों के लिए इसमें नया कुछ भी नहीं है. वे ऐसी परिस्थितियों का हमेशा सामना करते रहते हैं. फिलहाल बात सुकमा जिले के तहत आने वाले ‘तोंगपाल’ की, जो केंद्रीय सुरक्षा बल (सीआरपीएफ) के 16 जवानों और एक पुलिस कांस्टेबल के निलंबन के कारण चर्चा में है.
हाल ही में सीआरपीएफ ने कड़ी अनुशासनात्मक कार्रवाई करते हुए अपने 16 जवानों को निलंबित कर दिया है. वहीं एक पुलिस के सिपाही को भी सीआरपीएफ की रिपोर्ट के आधार पर निलंबित किया गया है. निलंबित जवानों में से 13 कांस्टेबल रैंक, जबकि चार अन्य इंस्पेक्टर व सहायक सब-इंस्पेक्टर रैंक के अधिकारी हैं. इन 17 जवानों पर आरोप है कि ये इस साल की शुरुआत में नक्सलियों के साथ हुई मुठभेड़ में अपने साथियों को मदद देने के बजाए मैदान छोड़कर भाग खड़े हुए थे. इस मुठभेड़ में एक नागरिक समेत कुल 16 लोगों की मौत हुई थी. जिनमें सीआरपीएफ के 11, पुलिस के चार जवान शामिल थे. सीआरपीएफ के आरोप के मुताबिक छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले में इस साल 11 मार्च को दरभा थाना क्षेत्र में तैनात सीआरपीएफ की 80वीं बटालियन के जवान ग्राम टहकवाड़ा के लिए रोड़ ओपनिंग पार्टी के तौर पर रवाना किए गए थे. इस 46 सदस्यीय टुकड़ी के 20 जवान नक्सलियों के एंबुश (घात लगाकर किया जाने वाला हमला) में फंस गए थे. इस हमले में विक्रम निषाद नामक एक ग्रामीण भी मारा गया था, जो घटना के वक्त अपनी मोटरसाइकिल से गुजर रहा था. इस खूनी मुठभेड़ के तुरंत बाद कोर्ट ऑफ इन्क्वायरी बैठा दी गई थी. इसकी जांच में सामने आया है कि नक्सलियों द्वारा घात लगाकर किए गए इस हमले में सीआरपीएफ जवानों की आगे चल रही टुकड़ी फंस गई थी. जबकि पीछे आ रहे 17 जवान ऐसी विषम परिस्थिति में अपने साथियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लोहा लेने के बजाय वहां से जान बचाकर भाग खड़े हुए.
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10 साल में 2,129 मौतें
इंस्टीट्यूट ऑफ कॉनफ्लिक्ट मैनेजमेंट (दिल्ली) के आंकड़े बताते हैं कि पिछले दस साल में छत्तीसगढ़ में माओवादी हिंसा में 2,129 लोग मारे गए हैं. इनमें सुरक्षा बल के जवानों और आम नागरिकों की मौत का आंकड़ा 1,447 है. पिछले चार साल मे नक्सली हमलों में तेजी आई है. वर्ष 2011 के बाद माओवादियों ने अपने पुराने मिथक तोड़ते हुए बीते चाल साल में राजनेताओं और आम लोगों को भी अपना निशाना बनाना शुरू कर दिया है. 2011 से लेकर 2014 तक माओवादियों ने कई बड़ी घटनाओं को अंजाम दिया है. वहीं साउथ एशिया टैररिज्म पोर्टल से उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक माओवादी हिंसा के कारण 2005 से 2012 के बीच छत्तीसगढ़ में कुल 1,855 मौतें हुई हैं. इनमें 569 आम नागरिकों, सुरक्षा बलों के 693 जवान और 593 माओवादियों की मौत शामिल है.
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सीआरपीएफ निदेशक जनरल दिलीप त्रिवेदी जानकारी देते हैं कि शुरुआती जांच में दोषी मिले इन जवानों को छत्तीसगढ़ के आईजी ने निलंबित कर दिया है और पूरी जांच तीन महीने के भीतर पूरी कर ली जाएगी. एक दशक से ज्यादा समय से इन इलाकों में नक्सलियों से मोर्चा ले रही सीआरपीएफ की ओर से अपने जवानों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई का यह दुर्लभ मामला है. सीआरपीएफ के अधिकारियों का कहना है कि जांच में पता चला है कि अगर इन जवानों ने मुंहतोड़ जवाब दिया होता तो कई जानें बचाई जा सकती थीं और करीब 200 नक्सलियों में से कई ढेर भी किए जा सकते थे. करीब तीन घंटे तक चली इस मुठभेड़ में नक्सली शहीद जवानों से बड़ी संख्या में हथियार लूट ले गए थे.
हालांकि सीआरपीएफ के आरोप और अब तक की कार्रवाई से इतर इस प्रकरण का दूसरा पहलू भी है, जिसे नजरअंदाज किया जा रहा है. दरअसल छत्तीसगढ़ में सीआरपीएफ जवानों के निलंबन का यह प्रकरण कई गंभीर सवाल खड़े कर रहा है. पहला तो यही है कि क्या सर पर कफन बांधकर नक्सल इलाकों में काम कर रहे जवानों का मनोबल टूट रहा है? दूसरा सवाल है कि क्या इन जवानों की मानसिक व भौतिक परिस्थितियों पर पुनर्विचार की जरूरत नहीं है? ये ऐसे मसले हैं जिनपर नक्सविरोधी अभियान शुरू होने के बाद कई बार आवाज उठती रही है लेकिन इस घटना के बाद यह बहस और गंभीर हो गई है.
फिलहाल नक्सल विरोधी अभियान में सीआरपीएफ के कंधे से कंधा मिलाकर अभियान चलानेवाली राज्य पुलिस ने आधिकारिक रूप से इस पूरे विवाद से दूरी बना ली है. छत्तीसगढ़ के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक मुकेश गुप्ता कहते हैं, ‘ सीआरपीएफ के मामले में हम क्या बोल सकते हैं. यदि उन्होंने कार्रवाई की है, तो सही ही होगी.’ पुलिस मुख्यालय में पदस्थ एक अन्य उच्च पदस्थ अफसर भी मानते हैं कि जब जवानों को विशेष साहस दिखाने पर कई तरह से उपकृत किया जाता है, आउट ऑफ टर्म प्रमोशन दिया जाता है तो गलती होने पर सजा क्यों नहीं दी जा सकती. वे कहते हैं, ‘हमारी फोर्स बेहद विपरीत परिस्थितियों में काम करती है. यहां जवानों की संख्या से ज्यादा उनका साहस मायने रखता है. सबको साथ मिलकर काम करना होता है तभी सकारात्मक परिणामों तक पहुंचा जा सकता है. अब अगर ऐसे में टीम भावना ही ना रहे तो कैसे काम चलेगा. कोई भी जवान कैसे अपने साथियों पर भरोसा कर पाएगा?’
दंतेवाड़ा और बस्तर में मई से नवंबर के बीच मलेरिया का भारी प्रकोप रहता है और हर साल सैकड़ाें जवान इससे ग्रसित होते हैं
वैसे सीआरपीएफ जवानों पर कार्रवाई पर यहां एक राय नहीं है. तोंगपाल पुलिस थाने के एसआई शिशुपाल सिन्हा तहलका से बात करते हुए कहते हैं कि जिस दिन घटना हुई वे उस दिन शासकीय कार्य से कहीं बाहर गए हुए थे लेकिन, ‘ मौके पर मौजूद लोग बताते हैं कि जवान भागे नहीं थे, बल्कि वे भी फायरिंग में फंस गए थे. यही कारण था कि वे अपने साथी जवानों की मदद नहीं कर पाए.’ कुछ पुलिसकर्मी जवानों पर कार्रवाई को भी परिस्थितियों के हिसाब से गलत मानते हैं. तोंगपाल थाने में ही पदस्थ एक पुलिसकर्मी नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘जवानों की स्थिति को समझे बगैर उनपर गलत कार्रवाई की गई है. अगर जवानों को कायरता ही दिखानी होती तो वे पहले ही ड्यूटी से मना कर देते. बिलकुल विपरीत परिस्थिति में संघर्ष करनेवाले जवान कायर नहीं है. वे बरसात में भी हर एंटी नक्सल ऑपरेशन में भाग लेते रहे हैं. आप देखिए न जवानों को, वे कैसे रह रहे हैं. कई कैंप तो दुनिया से कटे हुए लगते हैं. उन्हें हैलीकॉप्टर के जरिए भोजन और दवाइयां भेजी जाती हैं. न उनके फोन पर नेटवर्क मिलता है, न ही कोई दूसरी सुविधा. कई बार तो छुट्टी मिलने के बाद जवानों को जगदलपुर आने में ही दो से तीन दिन लग जाते हैं. रायपुर पहुंचते-पहुंचते पूरा हफ्ता खराब हो जाता है. बहुत दबाव के बीच जवानों को काम करना पड़ रहा है.’
इस पुलिसकर्मी की बातों को तोंगपाल तक की यात्रा करते हुए आसानी से समझा जा सकता है. बस्तर के अंदरूनी इलाकों में कैम्प कर रहे सीआरपीएफ जवानों की हालत तो और भी बदतर है. उन्हें कभी कीटों (छोटे कीड़े) के प्रकोप का सामना करना पड़ रहा है तो कभी मलेरिया उनकी जान ले रहा है. जान जोखिम में डालकर तो वे काम कर ही रहे हैं, लेकिन न तो उनके पास बातचीत की सुविधा है, न ही बेहतर चिकित्सा व्यवस्था. रोज-रोज एक ही उबाऊ काम करके उनका मनोबल भी टूटता है. तोंगपाल में ही काम करनेवाले स्थानीय पत्रकार संतोष तिवारी कहते हैं, ‘यहां की परिस्थितियां आम आदमी के जीने लायक नहीं हैं. न सड़कें हैं, न मोबाइल फोन में नेटवर्क है.’
इस वक्त पूरे छत्तीसगढ़ में सीआरपीएफ, आईटीबीपी जैसे सुरक्षा बलों की 36 बटालियन तैनात हैं. इनमें से 29 बटालियन अकेले बस्तर में लगाई गई हैं. एक बटालियन में 780 जवान होते हैं, लेकिन मोर्चे पर लड़ने के लिए 400 से 450 जवान ही मौजूद होते हैं. बस्तर में तैनात जवानों को नक्सलियों के अलावा कई मोर्चों पर लड़ाई करनी पड़ती है. नक्सलियों से पहले मच्छरों से उनका मुकाबला होता है. छत्तीसगढ़ में मई से लेकर नवंबर तक मच्छरों का प्रकोप रहता है. खासकर बस्तर में अनगिनत लोग मलेरिया के कारण काल के गाल में समा जाते हैं. इस साल की जुलाई तक ही राज्य मलेरिया कार्यालय द्वारा इकट्ठे किए गए आंकड़ों पर गौर करें तो अकेले बस्तर में 23 हजार 774 मलेरिया पीड़ित मरीज मिल चुके हैं. हर साल मलेरिया से जवानों की मौत की घटनाएं भी सामने आती रहती हैं. हालांकि मलेरिया से मरने वाले जवानों का आधिकारिक आंकड़ा कहीं भी उपलब्ध नहीं है. छत्तीसगढ़ में बस्तर एक ऐसा इलाका है, जहां ‘फेल्सीफेरम’ मलेरिया ज्यादा फैलता है. इस मलेरिया में यदि सात दिनों के भीतर पीड़ित को सही दवा ना मिले, तो उसकी मौत निश्चित हो जाती है.
उसमान खान भी सुकमा जिले में आने वाले छिंदगढ़ जैसे घोर नक्सल प्रभावित इलाके के पत्रकार हैं. छिंदगढ़ तोंगपाल से भी 36 किलोमीटर अंदर है. खान कहते हैं, ‘मलेरिया भी जवानों का मनोबल तोड़ रहा है. इस वक्त तो यानी अगस्त-सितंबर को हमारे इलाके में मलेरिया का सबसे ज्यादा असर होता है. हर साल दर्जनों लोग दवाई के अभाव में मर जाते हैं. अभी भी कई जवान मलेरिया से जूझ रहे हैं. पिछले साल करीब डेढ़ दर्जन जवान केवल मलेरिया के कारण मौत के मुंह में चले गए थे.’
बस्तर में नक्सल मोर्चों पर तैनात जवानों के सामने कई परेशानियां हैं. जिन्हें उनके आला अधिकारी कितना समझते हैं, ये तो वे ही जानें, लेकिन कभी इनपर चर्चा होती नजर नहीं आती. बहरहाल, तोंगपाल-दरभा प्रकरण में सीआरपीएफ के जवानों के निलंबन की वजह से ये मुद्दे फिर चर्चा में हैं लेकिन इनपर क्या कार्रवाई होगी यह किसी को नहीं पता.