यह 2022 के दिसंबर की बात है। उस समय बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख़ हसीना को एक अर्जेंट गुप्त डोजियर मिला, जिसमें बताया गया था कि अमेरिका सेंट मार्टिन द्वीप में अपना सैन्य बेस बनाना चाहता है। वह बांग्लादेश पर क्वाड (चतुर्भुज सुरक्षा संवाद) का हिस्सा बनाने का प्रस्ताव रख सकता है। इस डोजियर में बताया गया था कि ऐसा नहीं होने पर अमेरिका उनकी सरकार को अस्थिर करने का षड्यंत्र रच सकता है। शेख़ हसीना यह जानकार चिंता में पड़ गयीं और अपने बहुत विश्वस्त सहयोगियों से इसकी चर्चा की। अगले कुछ महीनों में शेख़ हसीना पर बाक़ायदा दबाव बनाया जाने लगा कि वह सेंट मार्टिन द्वीप अमेरिका को दे दें। शेख़ हसीना ने दबाव के आगे झुकने से साफ़ इनकार कर दिया। इस घटना के 12 महीने के भीतर बांग्लादेश में शेख़ हसीना का तख़्तापलट हो गया और अब वह भारत में हैं।
इससे भी बहुत पहले की बात करते हैं; साल 1971 की। इंदिरा गाँधी भारत की प्रधानमंत्री थीं। इंदिरा सेना के साथ पूर्वी पाकिस्तान के गृहयुद्ध से जूझ रहे हिस्से में सैन्य अभियान कर उसे पाकिस्तान से अलग करने की रणनीति पर काम कर रही थीं। पूर्वी पाकिस्तान के इस हिस्से में शेख़ मुजीब-उर-रहमान पाकिस्तान की सेना के ज़ुल्म के ख़िलाफ़ अभियान चला रहे गुट का नेतृत्व कर रहे थे और भारत उनकी मदद कर रहा था। जब यह ज़ाहिर हो गया कि भारत पाकिस्तान में सैन्य अभियान की तैयारी कर चुका है, तब अमेरिका के राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हेनरी किसिंजर ने इंदिरा गाँधी पर दबाव बनाने की भरपूर कोशिश की कि वह ऐसा न करें। उन्हें अपनी नौसेना का सातवाँ बेड़ा बंगाल की खाड़ी में भेजने की धमकी दी और भेज भी दिया। लेकिन बिना झुके इंदिरा गाँधी ने सैन्य अभियान, जिसे 1971 के भारत-पाक युद्ध के रूप में जाना जाता है; चलाकर स्वतंत्र बांग्लादेश बनवा दिया। न तो अमेरिका और न ही पाकिस्तान ने इसे पसंद किया और एक टीस के रूप में यह हमेशा दोनों देशों के दिलों में चुभता रहा।
इंदिरा गाँधी की ही तरह ही शेख़ हसीना ने भी अमेरिका के आगे घुटने टेकने से इनकार करते हुए सेंट मार्टिन द्वीप अमेरिका को सौंपने से साफ़ इनकार कर दिया। अब शेख़ हसीना ने ख़ुद कहा है कि यदि उन्होंने द्वीप की संप्रभुता को त्यागकर अमेरिका को बंगाल की खाड़ी पर अपना प्रभुत्व क़ायम करने दिया होता, तो उनकी सत्ता नहीं जाती। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। अमेरिका द्वीप पर अपना सैन्य अड्डा बनाना चाहता है, ताकि दक्षिण एशिया में चीन और भारत पर नज़र रख सके। वैसे भी भारत के प्रति मित्र रुख़ रखने की हसीना की नीति से पाकिस्तान ही नहीं, अमेरिका भी सख़्त नाराज़ था। यहाँ तक कि चीन को भी यह ख़ास पसंद नहीं था; लेकिन हसीना ने हाल के महीनों में चीन को साधने की कोशिश की थी और वहाँ की एक अधूरी यात्रा भी हाल के महीनों में की थी।
दुर्भाग्य से चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने हसीना को तरजीह नहीं दी। हसीना की यात्रा के दौरान वह उनसे मिले भी नहीं। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में नयी सरकार के शपथ ग्रहण के दौरान हसीना ने जून की यात्रा के दौरान भारत के शीर्ष नेतृत्व को बांग्लादेश में संभावित उथल-पुथल को लेकर अपनी आशंका से अवगत कराया था। यह माना जाता है कि यात्रा के दौरान जब शेख़ हसीना गाँधी परिवार से मिली थीं, तो उन्हें भी इसकी जानकारी दी थी। वह इस बात को लेकर बहुत चिंतित थीं कि यदि ऐसा कुछ हुआ, तो बांग्लादेश ने हाल में जो उन्नति की है, वह सब बर्बाद हो जाएगी। क्योंकि देश के कट्टरपंथियों और विदेशी ताक़तों के हाथ जाने का ख़तरा रहेगा। हसीना ने अप्रैल, 2023 में बांग्लादेश संसद में कहा था कि अमेरिका चाहे तो किसी भी देश में सत्ता बदल सकता है। अगर उन्होंने यहाँ (बांग्लादेश में) कोई सरकार बनवायी, तो वो लोगों की चुनी सरकार नहीं होगी। उसी दौरान ढाका के सांसद रशीद ख़ान मेनन ने ‘ढाका रिपोर्ट’ अख़बार के साथ एक इंटरव्यू में आशंका जतायी थी कि अमेरिका सेंट मार्टिन द्वीप के पीछे पड़ा है और नयी अमेरिकी वीजा नीति उसकी बांग्लादेश में शासन परिवर्तन की रणनीति का हिस्सा है। मेनन ने आरोप लगाया था कि वे (अमेरिका) मौज़ूदा सरकार को अस्थिर करने के लिए सब कर रहे हैं।
यह भी दिलचस्प है कि नोबेल पुरस्कार जीत चुके जो मोहम्मद यूनुस बांग्लादेश में अंतरिम सरकार के मुखिया बने हैं, उन्हें अमेरिकी समर्थक माना जाता है। प्रधानमंत्री रहते हुए हसीना मोहम्मद यूनुस पर विदेशी एजेंट होने का आरोप लगाती रही हैं। हाल में हसीना के तख़्तापलट के बाद सेना अध्यक्ष वकर-उज-ज़मान ने जो अंतरिम सरकार बनायी, उसका मुखिया यूनुस को बनाया। वकर-उज-ज़मान शेख़ हसीना के बहुत क़रीबी माने जाते रहे हैं और कहा जाता है कि तख़्तापलट के बाद हसीना को बांग्लादेश से सुरक्षित बाहर निकालकर भारत भेजने में उनकी ही भूमिका थी। इससे पहले 31 जुलाई को भारतीय दूतावास के एक शीर्ष अधिकारी ढाका में हसीना से मिले थे और उन्हें भारतीय एजेंसियों का यह संदेश दिया था कि बांग्लादेश में कभी भी उथल-पुथल हो सकती है। माना जाता है कि शेख़ हसीना को भारत के समर्थन का भरोसा दिलाया गया था। बांग्लादेश के सेनाध्यक्ष ने जो सेफ पैसेज शेख़ हसीना और उनके परिजनों के लिए उपलब्ध कराया, वह उसी का हिस्सा था।
बांग्लादेश में हसीना की सत्ता जाने से अमेरिका के बहुत हित सध सकते हैं। यूनुस का पश्चिमी देशों से अच्छा संपर्क रहा है, क्योंकि वह वहाँ काम कर चुके हैं। यूनुस अमेरिकी सिस्टम से गहराई से वाक़िफ़ हैं। उन्हें अमेरिकी हितों के लिए काम करने में कोई हिचकिचाहट नहीं होगी। अंतरिम सरकार को समर्थन देने में अमेरिका ने एक दिन भी नहीं लगाया। यूनुस रेमन मैग्सेसे अवार्ड भी जीत चुके हैं, जिसकी फंडिंग अमेरिका की फोर्ड फाउंडेशन करती है। हसीना सरकार के समय जब यूनुस को हत्या की धमकी मिली थी, तब उन्होंने अमेरिकी दूतावास में ही शरण ली थी। जनवरी, 2007 में जब सेना ने बांग्लादेश की सत्ता पर क़ब्ज़ा कर दो पूर्व प्रधानमंत्री शेख़ हसीना और ख़ालिदा ज़िया भ्रष्टाचार के आरोपों में जेल में डाल दिया था, तब सेना ने मोहम्मद यूनुस को कार्यवाहक प्रधानमंत्री बनाने की पेशकश की थी; लेकिन यूनुस ने इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी लेने से इनकार कर दिया था। हसीना से इस साल जनवरी में एक पश्चिम देश के दूत ने कहा था कि यदि वह बांग्लादेश में उनके देश के सैन्य अड्डे को मंज़ूरी देती हैं, तो चुनाव में बिना किसी परेशानी के जीत हासिल कर पाएँगी। माना जाता है कि हसीना ने दूत के ऑफर को कोई महत्त्व नहीं दिया। चुनाव में जब हसीना को बांग्लादेश की जनता ने बड़े बहुमत से जिताया, तो अमेरिका ने चुनाव साफ़-सुथरे नहीं होने का आरोप लगाया था। इस दूत के हसीना से मिलने की बात की तस्दीक़ उनकी पार्टी अवामी लीग के बड़े नेता सदरुल ख़ान ने की थी।
सत्तापलट के बाद बांग्लादेश की स्थिति भारत के लिए अब बड़ी चुनौती बन गयी है। वहाँ जमात-ए-इस्लामी जैसे संगठनों, जिनकी डोर पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई के हाथ में मानी जाती है; के ताक़तवर होने की आशंका है। जमात कट्टर भारत विरोधी है। शेख़ हसीना की राजनीतिक विरोधी ख़ालिदा ज़िया, जिन्हें सत्ता पलट के बाद जेल से रिहा कर दिया गया है; भी भारत विरोधी हैं। उन्हें पाकिस्तान और चीन समर्थक माना जाता है। इसमें रत्ती भर भी आशंका नहीं कि जो ताक़तें अब बांग्लादेश की सत्ता पर क़ाबिज़ होने की कोशिश में हैं, वही ताक़तें भारत के ख़िलाफ़ भी साज़िशें रचती रही हैं। ख़ालिदा ज़िया की बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी और जमात-ए-इस्लामी, दोनों आईएसआई के इशारे पर काम करती हैं। हसीना सरकार ने जब स्वतंत्रता सेनानियों को नौकरियों में 30 फ़ीसदी कोटा घोषित किया था और बाद में वहाँ के सुप्रीम कोर्ट ने इसे घटाकर पाँच फ़ीसदी कर दिया था, तब भी वहाँ छात्र आन्दोलन जारी रहने से ही ज़ाहिर हो गया था कि आन्दोलन के पीछे मकसद कुछ और है। छात्रों के विरोध-प्रदर्शनों के दौरान बीएनपी और जमात ने भारत के साथ दोस्ती और आर्थिक सम्बन्ध बनाने के लिए शेख़ हसीना को निशाने पर रखा था। यह ताक़तें वहाँ बाक़ायदा ‘इंडिया आउट’ कैंपेन चलाती रही हैं।
इस क्षेत्र में बालकेनाइजेशन प्लॉट के षड्यंत्र के बीच भारत की एक और बड़ी दिक़्क़त सारे पड़ोसी देश- नेपाल, श्रीलंका और मालद्वीव चीन के पाले में जा चुके हैं। अफ़$गानिस्तान में तालिबान का राज है और पाकिस्तान भारत विरोधी है ही। शेख़ हसीना के रूप में भारत के पास एक दोस्त था, उसकी सत्ता भी चली गयी। लिहाज़ा भविष्य में बांग्लादेश के भारत विरोधी गतिविधियों में शामिल होने से इनकार नहीं किया जा सकता। दिल्ली के लिए अब व्यापार और सुरक्षा की दोहरी चिन्ता है। बांग्लादेश, जहाँ हर आठवाँ व्यक्ति हिन्दू है; में हिन्दुओं पर अत्याचार की ख़बरें लगातार आ रही हैं। ख़ुद बांग्लादेश के लिए यह चिन्ता की बात है, जिसकी बेहतर होती जीडीपी हाल के वर्षों में पाकिस्तान के लिए ईर्ष्या का सबब बन गयी थी। इसमें कोई दो-राय नहीं कि हसीना को भारत का साथ देने की भी क़ीमत चुकानी पड़ी है। लिहाज़ा भारत पर उनके हित देखने का ज़िम्मा है।
तख़्तापलट के बाद ढाका में पाकिस्तान परस्त कट्टरपंथियों ने सबसे पहले देश की आज़ादी के सबसे बड़े हीरो शेख़ मुजीब-उर-रहमान की मूर्ति को तोड़ दी। इससे ज़ाहिर हो गया कि पाकिस्तान की एजेंसियाँ वहाँ हावी हो गयी हैं। क्या इन ताक़तों को हराने के लिए 75 साल की शेख़ हसीना वतन वापस लौटेंगी या निर्वासन में ही बाक़ी ज़िन्दगी काटने को मजबूर हो जाएँगी? एक बार पहले वह ऐसा कर चुकी हैं। हो सकता है, एक नयी जंग लड़ने के लिए वह जल्द ही अपने वतन वापस लौटें।