जातिवाद और धर्मवाद जहाँ देश के लोगों को आपस में बाँटने का काम कर रहे हैं, वहीं इनके सहारे देश की तमाम राजनीतिक पार्टियाँ पुष्ट हो रही हैं। यही वजह है कि कोई भी राजनीतिक पार्टी जाति-धर्म की राजनीति करने के लिए सहज ही न सिर्फ़ तैयार है, बल्कि इनके सहारे नफ़रत की आग को हवा भी देने में पीछे नहीं है। अब तो हालत यह है कि जातियों में जातियाँ और उपजातियाँ निकाली जा रही हैं, जो काफ़ी समय से थीं; लेकिन अब इसे और हवा दी जा रही है। अब चुनावों में हर पार्टी जातिगत जनगणना या जातिगत बँटवारे के साथ-साथ धर्मों के जिन्न निकाल लेती है और उसका चुनावों में फ़ायदा लेना चाहती है।
दरअसल, देश में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से दिल्ली के इर्द-गिर्द के राज्यों या यूँ कहे कि हिंदी भाषी क्षेत्रों में विशेष किसान नस्लों और उनमें भी ख़ास तौर पर जाटों को सियासी रूप से शून्य करने की योजना पर दोनों राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियाँ- भाजपा और कांग्रेस काम करती रही हैं। आजकल तो उत्तर प्रदेश और बिहार की क्षेत्रीय पार्टियाँ भी इस षड्यंत्र में शामिल होती नज़र आती हैं। आज जिस प्रकार से सत्ताधारी भाजपा ने हरियाणा में 35 बनाम एक किया है, इस ख़तरे की गहराई को कितने प्रतिशत लोग, आम किसान या यूँ कहे कि 35-1 रूपी ब्रह्मास्त्र से घायल जाट समझते हैं? और क्या जो समझते हैं, उन्होंने इन राजनीतिक दलों की $गुलामी स्वीकार कर ली है?
ग़ौरतलब है कि पिछले 10 वर्षों में किसान बिरादरियाँ, ख़ासतौर पर जाट भाजपा, संघ और तथाकथित सवर्ण हिन्दू समाज के एक भयंकर षड्यंत्र का शिकार हुए हैं। आप अगर ग़ौर करें, तो केंद्र में भाजपा की मोदी सरकार बनते ही सर्वोच्च न्यायालय ने किसान जाति के सबसे बड़े वर्ग यानी जाट आरक्षण समाप्त कर दिया, तो केंद्र सरकार की ओर से कोई ख़ास पैरवी न करना बताता है कि पार्टी किसानों को आरक्षण दिलाने में दिलचस्पी न लेकर केवल रस्म अदायगी करती रही है। जबकि प्रधानमंत्री मोदी ने 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान जाटों को अपने आवास पर बुलाकर आरक्षण देने का आश्वासन दिया था, जो न सिर्फ़ झूठा साबित हुआ, बल्कि सिर्फ़ एक जुमला बनकर रह गया है। हालाँकि इसके बाद भी तक़रीबन हर चुनाव में गृहमंत्री अमित शाह जाटों से उन्हें उनका हक़ दिलाने का वादा करते रहे हैं। जाटों को आरक्षण देने का वादा उन्होंने 2019 में भी किया था। लेकिन चुनाव के बाद उन्होंने जाटों से कभी उनका हाल भी नहीं पूछा। और इसका नतीजा यह हुआ कि इससे लाखों जाट युवाओं का भविष्य बर्बाद हो गया। आज भी जो जाट युवा नौकरी करना चाहते हैं, और जिसके लिए उन्होंने महँगी पढ़ाई लंबे समय तक अपने माता-पिता की गाड़ी मेहनत की कमायी से ख़र्च करके की है, उनमें से ज़्यादातर युवा नौकरी के लिए जगह-जगह धक्के खा रहे हैं। हालात ये हैं कि साल 2016 के जाट आरक्षण आन्दोलन में जाटों के दो दज़र्न युवाओं को हरियाणा की भाजपा सरकार ने गोलियों से भून डाला। इतना ही नहीं, बल्कि इस आन्दोलन को बदनाम करने के लिए मुरथल रेप कांड की कहानी गढ़कर सोशल मीडिया पर जाटों को $खूब नीचा दिखाया गया। किसान आन्दोलन में भी जाटों के पीछे ही केंद्र सरकार, उत्तर प्रदेश सरकार और हरियाणा सरकार ने षड्यंत्र रचे और कई जाट किसानों की बलि ले ली। उनके ख़िलाफ़ झूठे मुक़दमे दर्ज किये और उन पर कई तरह के आरोप लगाये। हालाँकि इसमें सिख और दूसरे किसानों को भी उसी प्रकार परेशान और प्रताड़ित किया गया, जिस प्रकार जाट किसानों को किया गया। लेकिन चाहे वे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट किसान हों, चाहे हरियाणा के जाट किसान हों, चाहे राजस्थान के जाट किसान हों और चाहे पंजाब के जाट किसान हों, उन्हें सबसे ज़्यादा परेशान और प्रताड़ित किया गया, क्योंकि किसान आन्दोलन की अगुवाई जाट समुदाय के किसान नेता ही कर रहे थे।
दरअसल, वर्तमान समय में देश की राजनीति में शिखर से शून्य पर आ चुके कुछ तथाकथित नेता अपनी राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक इच्छाओं की पूर्ति में डेमोग्राफी संतुलन के ख़तरे को अपने-अपने क्षेत्र और राज्यों के निवासियों को जानबूझकर बता नहीं रहे हैं। हाशिए पर खड़े जाटों से राजनीतिक रूप से दिल्ली भी छिन गयी और उनके हाथों से राष्ट्रीय राजनीति भी गयी। अब उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब और राजस्थान से किसानों को राजनीतिक वनवास दिलाने की नीति के तहत इन तमाम राज्यों में काम धंधों के बहाने और निजी उद्योग लगाकर बिहार, उड़ीसा, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ आदि राज्यों से रोज़ी-रोटी के ज़रिया यानि रोज़गार के लिए आने वालों को पश्चिमी जाट बहुल राज्यों में बसाकर वोट का कारख़ाना लगाने को प्रयासरत मौज़ूदा केंद्र सरकार और भाजपा की राज्य सरकारें इन नयी चाल से जाटों का हक़ मारने का काम कर रही हैं।
सामाजिक कार्यकर्ता और विचारक जितेंद्र सिंह सहरावत कहते हैं कि अगर हमें अपने जाट बहुल राज्यों में अपनी पहचान, संस्कृति, कारोबार, व्यापार और शिक्षा को बचाना है, तो इन राज्यों में अच्छे विश्वविद्यालय यानी उच्च शिक्षण संस्थान खोलने पर ज़ोर दें, ताकि हमारे बच्चे पढ़कर उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान और बिहार आदि राज्यों से उच्च प्रशासनिक, शिक्षण संस्थानों और उद्योगों में सेवा देकर उन राज्यों की डैमोग्राफी चेंज करके इन राज्यों की विधानसभाओं और विधानसभाओं से लोकसभा, राज्यसभा में जाकर अपने सामाजिक हितों को सुरक्षित और मज़बूत कर सकें। पश्चिमी उत्तर प्रदेश सहित बागपत बड़ौत के जाटों का एक बड़ा वर्ग चौधरी चरण सिंह से इसलिए नाराज़ रहता था कि उन्होंने अपने विधानसभा और लोकसभा सहित पार्टी के राजनीतिक क्षेत्र में कोई बड़े उद्योग नहीं लगवाये।
सहरावत कहते हैं कि मैं कहता हूँ, वे इस (डेमोग्राफी) ख़तरे को जानते थे। इसलिए उन्होंने इस तरफ़ ध्यान नहीं दिया, इस क्षेत्र में शिक्षण संस्थान बनवाने में चौधरी अजीत सिंह ने भी कोई ध्यान नहीं दिया। लेकिन कांग्रेस और भाजपा के जाट नेताओं ने भी पिछले 10-15 वर्षों में इस तरफ़ कोई ध्यान नहीं दिया। दिल्ली को लहू से सींचने वाले जिन जाट, गुज्जर और अहीरों की संतानों को राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में बाहरी लोगों के आने से मकान का किराया और रुपये पर ब्याज का धंधा करके जो मोटा धन मिल रहा है। वे यह भूल रहे हैं कि पहले तो आपकी अधिकतम संतानें लंबे समय तक बिना कोई संघर्ष किये मौज़ उड़ाने के कारण बर्बाद हो रही हैं। दूसरा मनुष्य के भाग्य निर्णय निर्धारित करने वाले जीते जागते मंदिरों विधानसभा, लोकसभा और नगर निगम आदि सहकारी संस्थाओं में आपके पुजारी यानी जन-प्रतिनिधि शून्य होते जा रहे हैं। इसलिए अपने हक़ के लिए जाटों को जागना होगा और समझदारी से सत्ता में हिस्सेदारी पाकर अपने समुदाय को हक़ दिलाना होगा।
इसी प्रकार से दूसरी जातियों के लोगों को भी आपसी मनमुटाव और जातिवाद का ज़हर दिमाग़ से निकालकर आपस में एक होना होगा, जिससे नेता उनकी फूट का फ़ायदा न ले सकें। कुछ नहीं तो भाजपा के ही नारे को समझ लें कि बँटेंगे, तो कटेंगे। यानी अगर जातिवाद के चक्कर में पड़कर बँटे, तो भी कटेंगे, और अगर धर्म के चक्कर में फँसकर बँटे, तो भी कटेंगे। कटेंगे का मतलब है कि अपनी हिस्सेदारी और हक़ कभी नहीं ले सकेंगे और उसका फ़ायदा नेता और उनके क़रीबी उठाते रहेंगे। और आम लोगों को वही पाँच किलो राशन के लिए हर महीने लाइन में लगना पड़ेगा, जो कि उनके स्वाभिमान को ठेस लगाने के लिए काफ़ी है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली और एनसीआर से किसान जातियों जाट, गुज्जर और अहीर आदि का राजनीतिक वजूद ख़त्म होता जा रहा है। देश के अलग-अलग हिस्सों से आकर लोगों का युद्ध स्तर पर बसना जारी है, जिसके परिणाम असंतुलन के रूप में हमारे सामने है। इसके अलावा सियासत के शिकार होकर किसान जातियाँ हिन्दुत्व की अफ़ीम पीये जा रही है, जिसमें जाट, गुज्जर और सैनी आदि मुख्य हैं। ये तमाम जातियाँ इस सत्य भूली हुए हैं कि किस प्रकार से इनको बाँटा और बर्बाद किया जा रहा है।
दु:ख इस बात का होता है कि आज हिन्दुस्तान में कई धर्म और पंथ हैं, तो जातियाँ भी अनगिनत हैं। और इन जातियों में आपसी फूट होने के चलते राजनीतिक पार्टियाँ अपना फ़ायदा देखती हैं। इस समय देश में कुल कितनी जातियाँ हैं, इसका कोई आँकड़ा नहीं है। हालाँकि सन् 1901 में तत्कालीन ब्रिटिश हुकूमत ने जातिगत गणना की थी, जिसमें देश में कुल जातियों की संख्या 2,378 थी। यह जातिगत गणना अब तक की सबसे सही जनगणना मानी जाती है। लेकिन इसके ठीक 30 साल बाद साल 1931 में जब ब्रिटिश हुकूमत ने देश में पहली जनगणना में करायी, तो जातियों की संख्या 4,147 बनायी गयी। इसके बाद जब कांग्रेस सरकार में साल 2011 में हुई जनगणना हुई, तो उसमें जातिगत गणना के तहत देश में कुल जातियों और उपजातियों की संख्या 46 लाख से भी ज़्यादा निकली। इसके बाद जातियों और उपजातियों की संख्या और भी बढ़ी है। और इसी जातिवाद या कहें कि जातीय भिन्नता का फ़ायदा, और इससे भी ज़्यादा धर्मों की आड़ लेकर राजनीतिक पार्टियाँ अंग्रेजों की नीति फूट डालो और राज करो की ही तरह देश में आज यही काम कर रही हैं।
बहरहाल, संकेत साफ़ है कि राजनीति के शिकार वही लोग हो रहे हैं, जो जातिवाद के नाम पर, तो कभी धर्म के नाम पर बँटते जा रहे हैं। इसलिए लोगों से अपील है कि न तो जाति के नाम पर और न ही धर्म के नाम पर बँटिए, वर्ना भविष्य में आपकी नस्लों को न सिर्फ़ $गुलामी की खाई में धकेल दिया जाएगा, बल्कि उन्हें राजनीतिक वनवास इस प्रकार दे दिया जाएगा कि फिर वे कभी राजनीति में नहीं आ सकेंगी और ऐसा होने पर वे न तो राजनीति में सुधार कर सकेंगी और न ही किसी भी पीड़ित-प्रताड़ित व्यक्ति के न्याय के लिए आवाज़ नहीं उठा सकेंगी। क्योंकि इन दिनों दबे-कुचले लोगों को राजनीतिक वनवास दिलाने की तैयारी काफ़ी हद तक ज़मीन पर सफलता से चल रही है। इस तैयारी में सबसे पहले उन जातियों के लोगों पर शिकंजा कसा जाएगा, जो संपन्न हैं और पीड़ितों के लिए आवाज़ उठाने से भी पीछे नहीं हटते। आज समाज में जाति और धर्म के नाम पर जो फूट पड़ी है, और धर्मांधता के कुएँ में धकेलने वाले कई तरह से लोगों के टैक्स का पैसा लूट रहे हैं और इसके अलावा रेल, हवाई जहाज़ के किराये से, महँगाई बढ़ाकर और दूसरे तरीक़े से भ्रष्टाचार करके पैसा बटोर रहे हैं और लोगों को मूर्ख बनाकर सत्ता का लाभ उठा रहे हैं। जो जाट नेता सत्ता में हैं, उन्हें भी अपनी फ़ि$क्र है। उनके लिए न तो लोकतंत्र के कोई मायने हैं, जिसके तहत सभी के साथ न्याय करने की प्रक्रिया को वे आगे बढ़ा सकें और न ही अपनी पीढ़ियों की राजनीतिक शून्यता का दंश वे अभी समझ पा रहे हैं। बल्कि इनमें ज़्यादातर नेता सत्ता में शामिल होकर मलाई खा रहे हैं। ऐसे लोगों को देश की सारी जनता से तो दूर की बात, अपनी ही जाति के ग़रीबों से दूरी बनाकर रहने की आदत हो चुकी है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं।)