एक मशहूर टीवी न्यूज चैनल के एंकर ने एक बार मुझे बताया कि अब काम करना बड़ा मुश्किल होता जा रहा है. उनकी हर स्टोरी पर लोग-बाग इस तरह रिएक्ट करते हैं कि लगता है अगर उन्हें वे अकेले पा जाएं तो मार ही दें. यह कहने वाले कोई आम या सड़कछाप लोग नहीं हैं बल्कि वे लोग हैं जो प्रभावशाली पदों पर बैठे हैं और सरकार के चहेते हैं. मुझे यह तो अंदेशा था कि उन्हें धमकियां मिलती होंगी पर कोई सरकार का असरदार व्यक्ति ऐसी धमकी देगा मुझे भरोसा नहीं हो रहा था. लेकिन पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम की मृत्यु हो जाने पर जिस तरह से उन एंकर ने उसी असरदार नेता की प्रतिक्रिया लेते हुए उसे सर कह कर संबोधित किया तो मेरा माथा ठनका. मैंने गौर किया कि उस नेता की प्रतिक्रिया लेते वक्त उस नामी एंकर ने एक बार भी टीवी पर सामने की तरफ अपना चेहरा नहीं किया. यह दुखद है. असरदार लोग अब सीधे ही पत्रकारों को नहीं धमकाते बल्कि उनके मालिकों पर भी दबाव डालते हैं कि अपने उस पत्रकार को या तो काबू करो अथवा उसे चलता करो. यह पीड़ा अकेले उन्हीं एंकर की नहीं है बल्कि वे सभी पत्रकार आजकल ऐसे हमलावर तेवरों वाले नेता और उनके फालोअरों से तंग हैं. एक महिला टीवी पत्रकार ने तो अपने साथियों से कहा था कि उसे अक्सर फोन आते हैं कि तुमने अगर अपने को न सुधारा तो तुम्हारा रेप कर दिया जाएगा. वह बेचारी बस सरकार की नाकामियों को कुछ ज्यादा ही तीखे अंदाज में उजागर कर रही थी. इसी तरह एक अखबार के संपादक को भी ऐसी ही धमकी अक्सर दी जाती हैं.
यह गंभीर चिंता का विषय है कि आखिर लोग इतने असहिष्णु और अमर्यादित क्यों होते जा रहे हैं. क्यों जरा-सी भी वह बात उन्हें सहन नहीं होती जो परंपरागत लीक से हटकर हो. याकूब मेनन की फांसी पर कुछ लोगों ने राष्ट्रपति से अपील क्या कर दी कि तत्काल कुछ लोगों ने उन्हें राष्ट्रद्रोही साबित कर दिया. सवाल इस बात का है कि अब क्या समानांतर रेखा पनपने नहीं दी जाएगी. अब तक हम यही तुलना सदैव अपने समानांतर रेखा से करनी चाहिए पर जब समानांतर रेखा ही समाप्त कर देंगे तो तुलना का प्रश्न ही नहीं उठता. लोगों में कितना गुस्सा और नफरत भरी हुई है यह जानना हो तो आज सोशल मीडिया को देखिए. कुछ भी ऐसा लिख दिया जाए जो सरकार की अंध लाइन के विरोध में हो तत्काल लोग ऐसे टूट पड़ते हैं मानो पता नहीं कौन-सा कहर आन पड़ा. किसी ने मोदी सरकार की किसी नीति की निंदा कर दी तो तत्काल उसे देशद्रोही होने का फतवा जारी कर दिया जाएगा. किसी ने भी कथित भारतीय सभ्यता के छिद्रों पर हमला किया तो उसे धर्मद्रोही करार दे दिया जाएगा. मानों राष्ट्रप्रेम, राष्ट्रभक्ति और समूचे हिंदू धर्म का ठेका इन्हीं असहिष्णु लोगों ने ले रखा हो. अभी कुछ वर्ष पूर्व तक हालात यह नहीं थे. लोग अलग राय रखते और उस पर दृढ़तापूर्वक खड़े भी रहते थे लेकिन क्या मजाल कि कोई उन पर हमला करे फौरन उनके पक्ष के लोग अपने-अपने तर्कों के साथ आ जाते थे. पर अब उलटा है अगर आप पर हमला हो रहा है तो भी आप की बात पर समान राय रखने वाले लोग या तो डर से चुप रहेंगे अथवा आग में घी डालने का काम करेंगे.
यह एक तरह की गुंडागर्दी है, अराजकता है कि अलग राय रखने वाले को अकेला कर देना और उसे उसकी राय को लेकर अपराधी करार दे देना. जो लोग इस अभियान को चला रहे हैं वे सफल हो रहे हैं क्योंकि वे भारी पड़ते जा रहे हैं. फेसबुक पर, ट्विटर पर या टीवी चैनलों पर अलग राय रखने वाले पहचान में आ जाते हैं इसलिए उन पर हमले शुरू हो जाते हैं. सवाल यह उठता है कि क्या सरकार समर्थक राय रखना ही देशभक्ति की निशानी है. सरकार के विरोध में खिसकने का मतलब राष्ट्रद्रोह कब से हो गया? लोकतंत्र में मीडिया की आजादी ही उसके मजबूत पायों की निशानी है. अगर किसी लोकतंत्र में मीडिया को खुलकर बात रखने की आजादी नहीं है तो वह लोकतंत्र भले हो मगर बीमार कहा जाएगा. आज देश में अभिव्यक्ति की आजादी खतरे में है. अभिव्यक्ति की बात करते समय अराजकता अथवा गुंडागर्दी का समर्थन नहीं कर रहा बल्कि मेरा आशय यह है कि सरकार को अगर अपनी निंदा सुनने का साहस नहीं है तो वह लोकतंत्र एक तरह का भीड़तंत्र है जिसमें भेड़ें हांकी जाती हैं और ये भेड़ें अपना दिमाग तो रखती नहीं. वे बस वही रास्ता पकड़ती हैं जो लीक उन्हें समझा दी जाती है. इस तरह हमारे देश का डिजिटल संसार यदि रोबोट पैदा कर रहा है तो क्या फायदा होगा. जहां मशीनें तो होंगी लेकिन संजीदा लोग नहीं होंगे. यह एक पूरी पीढ़ी को बरबाद कर देने की तैयारी है जो उनके स्वतंत्र विचार को कुंद कर रही है और इसका खामियाजा आगे आने वाली पीढि़यों को भुगतना पड़ेगा.
बनारस में एक मोहल्ला है अस्सी और इस अस्सी में सामाजिक अड्डेबाजी का ठिकाना है पप्पू चाय की दुकान. पप्पू चाय की दुकान में बैठकर आप दुनिया-जहान की बातें कर सकते हैं और मोदी से लेकर बराक ओबामा तक खुलकर अपनी राय रख सकते हैं. आपको काउंटर करने वाले भी मिलेंगे और आपसे इत्तेफाक रखने वाले भी लेकिन ऐसी अड्डेबाजी फेसबुक पर क्यों नहीं है? यहां तो आपने जरा-सी भी नाइत्तेफाकी दिखाई कि लोग-बाग टूट पड़ेंगे और आप पर गालियों की इस तरह बौछार शुरू कर देंगे कि आपको वहां से निकल जाना ही बेहतर लगेगा. फेसबुक, ट्विटर और व्हाट्स एप ने आदमी को एक ऐसा हथियार मुहैया करा दिया है कि वह अपनी सारी भड़ास इसी माध्यम से व्यक्त करने लगा है. इस भड़ास में जहां ईर्ष्या है, द्वेष और जलन है तथा ये सारे के सारे कलुषों को बाहर कर देने का एक जरिया है. लेकिन बोला हुआ शब्द चाहे कम मार करे पर लिखा हुआ शब्द ज्यादा तीखी मार ही नहीं बल्कि ऐसी मार करता है जिसका असर तात्कालिक ही नहीं सालों तक दिखता है. आप कुछ भी ऐसा लिखिए जो लीक से हटकर हो तो पता चलता है कि तत्काल सोशल मीडिया में प्रतिक्रिया शुरू हो जाती है. कोई आपको देशद्रोही, धर्मद्रोही और जातिद्रोही बताने में लग जाता है तो कोई आपको प्रतिक्रियावादी, रूढि़वादी और लकीर का फकीर बताने में पूरा जोर लगा देता है. मजे की बात कि लिखा हुआ मैटर एक ही है लेकिन प्रतिक्रिया भिन्न स्रोतों से अलग-अलग. यानी कोई भी विवेकपूर्ण बात सुनने की या पढ़ने की क्षमता धीरे-धीरे नष्ट होती जा रही है. हमारे कान बस वही सुनना चाहते हैं जो हमें पसंद हो अथवा जो हमारी रुचि के अनुसार लिखा गया हो. मगर कुछ वर्षों पूर्व तक ऐसा नहीं था. तब काफी कुछ ऐसा लिखा जाता था जो हमारी धारणा के प्रतिकूल होता था मगर उसे पढ़ा जाता था और सधी हुई प्रतिक्रिया व्यक्त की जाती थी.
हमारे समाज का इस तरह एकरस हो जाना और उसकी विविधता खत्म हो जाने का एक कारण तो समाज में उत्पादक और अनुत्पादक शक्तियों में आया बदलाव है. हर समाज की संस्कृति उसके उत्पादन के साधन और उसकी भौगोलिक स्थिति से प्रभावित होती है. अब भौगोलिक स्थिति तो अचानक बदलती नहीं पर उत्पादन के साधन जरूर तेजी से बदल जाते हैं. आज जिस तरह मध्यवर्ग को अपनी लाइफ स्टाइल और मूल्यों को बनाए रखने के लिए दिन-रात जूझना पड़ता है और परिवार के हर सदस्य को आय का जरिया तलाशने पर जोर देना पड़ता है, उस वजह से उसकी आंतरिक खुशी में कमी आई है. अब प्रसन्नता का स्रोत उसे परिवार से नहीं बल्कि मनोरंजन के अन्य साधन तलाशने से मिलता है. भले वह बाहर जाकर खाना खाना हो अथवा मल्टीप्लेक्स में जाकर सिनेमा देखना, वह सब जगह एक भीड़ और भागमभाग देखता है जिस वजह से जीवन में एकरसता आने लगती है. सुबह उठकर ऑफिस के लिए घर से निकलने से लेकर शाम जल्दी घर पहुंचने तक वह बस एक ही चीज देखता है भीड़ और भागते हुए लोग. यह भीड़ और भागमभाग उसके जीवन से विवेक छीन लेता है और आदमी बस एक ही तरीके से सोचना शुरू करता है. इसमें उसके अपनी वैल्यूज होती हैं और अपनी तरह के तमाम ईगो और टैबू. वह कुछ भी अलग हटकर सोचना बंद कर देता है तथा ऐसी हर बात को खारिज कर देता है जो उसके वैल्यूज और भ्रमों को तोड़ता हो. इससे एक तरह की जड़ता आती है और एक ही समझ विकसित होती है. यह जड़ता और एकरस समझ उसे कुछ भी भिन्न देखते ही प्रतिक्रिया करने पर प्रेरित करता है और नतीजा होता है भड़ास.
असली चिंता उन लोगों की है जो अपनी एकांतिक सोच के कारण विवेक खोते जा रहे हैं. मनुष्य की एकांतिक सोच उसे समाज से काटती है. वह अपने मन की दुनिया में रहने लगता है जहां विरोध नहीं है, जहां उसके प्रतिकूल न तो कोई बात कही जाती है न कोई चरित्र उसकी मर्जी के बिना विचरण करता है. यह उसकी अपनी दुनिया तो है लेकिन यह दुनिया हकीकत नहीं बन सकती यह सिर्फ आभासी दुनिया रह सकती है जो वर्चुअल है और जिसमें सब कुछ सिर्फ ब्लिंक करता है. वास्तविक दुनिया में दुख है, शोक है, पीड़ा है और अकेलापन है मगर सुख भी अपार है और वह सुख जो वास्तविक है. मगर भागमभाग वाली जिंदगी आदमी को वास्तविक दुनिया से नहीं उस वर्चुअल दुनिया की तरफ धकेलती है जो झूठ और छद्म पर टिकी है. पर जो लोग इस आभासी दुनिया में पीड़ाएं और हकीकत को व्यक्त करते हैं उस पर ये सारे लोग हमले शुरू कर देते हैं जो झूठ और फरेब की अपनी दुनिया में अपने तरीके से ही मगन हैं.
(लेखक अमर उजाला के संपादक रह चुके हैं)