किसानों की माँगें ग़लत भी कहाँ हैं?

24 May 2024 Gurdaspur Farmers protest as they were stopped from going ahead towards PM's election rally site near Gurdaspur on Friday. PM Narendra Modi will address an election rally at Gurdaspur later. PHOTO-PRABHJOT GILL GURDASPUR

योगेश

किसानों में कमियाँ देखने वाले कह रहे हैं कि किसानों की माँगें जायज़ नहीं हैं। किसान आन्दोलन भी जायज़ नहीं है। लेकिन वे यह नहीं कह रहे हैं कि केंद्र सरकार कहाँ-कहाँ ग़लत है। समझदार लोग कह रहे हैं कि देश के किसानों की माँगें जायज़ हैं, इसलिए केंद्र सरकार को उन्हें मान लेना चाहिए। किसान केंद्र की सरकार से न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) माँग रहे हैं, तो ग़लत क्या है? कुछ किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य के बारे में न्यूनतम समर्थन मूल्य के बारे में पूछने पर उनका जवाब था कि भाव कम है। भाव कम मिलने से हर फ़सल में उन्हें घाटा होता है। खाद, पानी, जुताई, मज़दूरी; सब महँगा है और अनाज सस्ता बिकता है। बचत इतनी ही है कि पेट भर लेते हैं। फ़सल ख़राब न हो, तो लागत तो निकल आती है। लेकिन अपनी और परिवार की मेहनत कभी नहीं निकलती। फ़सल बेचकर इतना पैसा भी नहीं मिलता कि अगली फ़सल की लागत निकलकर अपने और बच्चों के दो जोड़ कपड़े भी बना सकें।

कुछ किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य का पता ही नहीं है कि यह क्या होता है। उन्हें यह पता है कि उनके अनाजों और दूसरी फ़सलों का भाव कम मिलता है। ऐसे किसानों में ज़्यादातर बुजुर्ग और बिना पढ़े हुए किसान हैं। बहुत किसान ऐसे भी हैं, जिन्हें किसान आन्दोलन के बारे में भी ख़ास जानकारी नहीं है। ऐसे किसानों को किसान आन्दोलन से किसी भी तरह जुड़ना चाहिए। न्यूनतम समर्थन मूल्य किसी भी फ़सल की बिक्री के लिए सरकार द्वारा तय किया गया कम-से-कम भाव होता है। पूरे देश में हर चीज़ पर अधिकतम ख़ुदरा मूल्य (एमआरपी) का चलन है, तो किसानों की फ़सलों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) देने का चलन है। लेकिन किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य का भाव भी ठीक से नहीं मिल पता। कई साल से केंद्र सरकार ने किसानों को महँगाई और लागत के हिसाब से भी न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं दिया है। भ्रम यह फैलाया जाता है कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम पर किसानों की फ़सलों को नहीं ख़रीदेगी; लेकिन यह इतना कम है कि किसानों को घाटा होता है और इसकी गारंटी भी नहीं दी जाती। किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी की ही माँग कर रहे हैं। इसके अलावा किसान अपनी क़ज़र्माफ़ी की माँग कर रहे हैं, जो सरकार चला रहे लोग ही वादा कर चुके हैं। इसके अलावा किसान आन्दोलन के दौरान किसानों की मौत और हत्या को लेकर किसान सरकार से मुआवज़े की माँग कर रहे हैं। आन्दोलन में किसानों को झूठे मुक़दमे वापस लेने और गिरफ़्तार किसानों को जेल से छोड़ने की माँग कर रहे हैं। किसान की ऐसी ही ज़रूरी क़रीब एक दज़र्न माँगे हैं, जो ग़लत नहीं हैं।

केंद्र सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य पर 23 फ़सलों की ख़रीद करने के लिए प्रतिबद्ध है। इन फ़सलों में 23 फ़सलों को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर केंद्र सरकार करने के लिए प्रतिबद्ध है, उनमें गेहूँ, धान, मक्का, बाजरा, ज्वार, रागी और जौ आदि सात अनाज हैं। अरहर, उड़द, मूँग, मसूर और चना आदि पाँच दालें हैं। सरसों, तिल, सोयाबीन, मूँगफली, सूरजमुखी, कुसुम और नाइजर सीड आदि सात तेल वाली फ़सलें और कपास, गन्ना, खोपरा और कच्चा जूट आदि चार व्यावसायिक फ़सलें शामिल हैं। लेकिन सभी 23 फ़सलें किसी भी सरकारी क्रय केंद्र-लेबी पर नहीं ख़रीदी जाती हैं। 23 फ़सलें तो दूर की बात है, किसानों की मुख्य फ़सलों को लेने में इन क्रय केंद्रों पर आनाकानी होती है। कई फ़सलों के समय पर भुगतान नहीं होते, जिनमें गन्ना सबसे प्रमुख फ़सल है। गन्ना किसानों को कई महीने बाद भुगतान होता है। अभी तक उत्तर प्रदेश के कई किसानों को दो से तीन साल पुराना भुगतान नहीं हुआ है। इसके अलावा ज़्यादातर क्रय केंद्रों पर दो-तीन फ़सलों की ही ख़रीद होती है। बाक़ी फ़सलों के लिए बहुत कम क्रय केंद्र हैं। इसी के चलते कई राज्यों के किसानों को अपनी फ़सल बेचने के लिए दूसरे राज्यों और दूसरे क्रय केंद्रों पर जाने की समस्या रहती है, जिसके चलते उनकी फ़सलों का एक बड़ा हिस्सा व्यापारी उठाते हैं।

इन सब परेशानियों के चलते किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य इस कारण भी नहीं मिल पाता है। मिलना तो उन्हें 2024-25 के हिसाब से समर्थन मूल्य चाहिए, जिसे केंद्र सरकार लागू नहीं कर रही है। कोई राज्य सरकार भी किसानों की फ़सलों की ख़रीद के लिए अपनी ओर से भाव नहीं बढ़ाना चाहती। केंद्र सरकार को कृषि लागत और मूल्य आयोग की सिफ़ारिशों के आधार पर हर वर्ष अनाजों, दलहनों, तिलहनों और वाणिज्यिक फ़सलों का मूल्य बढ़ाना चाहिए और उनका तुरंत भुगतान भी सुनिश्चित करना चाहिए। कृषि फ़सलों के लिए संबंधित राज्य की सरकारें और संबंधित केंद्रीय विभाग भी न्यूनतम समर्थन मूल्य की एक सही राशि का सुझाव केंद्र सरकार को नहीं देते हैं। इन सबके प्रमुखों की सहमति के बाद केंद्र सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा करती है।

हालाँकि ये सभी विभाग केंद्र सरकार के ही अधीन हैं, इसलिए उनकी सहमति भी सरकार की सहमति ही मानी जा सकती है। शायद इसलिए ही केंद्र सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य के तहत आने वाली फ़सलों पर सही एमएसपी नहीं देती है। इस वर्ष 2024-25 में रबी की फ़सलों के लिए केंद्र सरकार का न्यूनतम समर्थन मूल्य बहुत कम है। इसमें गेहूँ का न्यूनतम समर्थन मूल्य 2,275 रुपये प्रति कुंतल, जौ का न्यूनतम समर्थन मूल्य 1,850 रुपये प्रति कुंतल, चना का न्यूनतम समर्थन मूल्य 5,440 रुपये प्रति कुंतल, मसूर दाल का न्यूनतम समर्थन मूल्य 6,425 रुपये प्रति कुंतल, रेपसीड और सरसों का न्यूनतम समर्थन मूल्य 5,650 रुपये और कुसुम का न्यूनतम समर्थन मूल्य 5,800 रुपये प्रति कुंतल है। बीते 10 साल में फ़सलों पर लागत 30 से 35 प्रतिशत तक बढ़ी है, जबकि महँगाई तीन से सात गुनी तक बढ़ी है। किसानों की फ़सलों का भाव 20 से 29 प्रतिशत बढ़ा है। इसके हिसाब से किसानों का घाटा और बढ़ा है। आज की परिस्थिति को देखते हुए किसानों को हर फ़सल का भाव आज के न्यूनतम समर्थन मूल्य से डेढ़ से दोगुना मिलना चाहिए और उसकी गारंटी होनी चाहिए।

कृषि विशेषज्ञ किसान धीरेंद्र से बात करने पर उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री मोदी हर जगह गारंटी देते फिर रहे हैं, फिर उन्हें अपनी पुरानी गारंटियाँ याद क्यों नहीं हैं? किसानों से की गयी उनकी गारंटियों का क्या हुआ? वह एमएसपी की गारंटी क्यों नहीं देते? एमएसपी पर गारंटी देने से किसानों की फ़सलों को कोई कम मूल्य पर नहीं ख़रीद सकेगा। बात बिलकुल उपयुक्त है। आन्दोलन के समय से केंद्र सरकार ने किसानों से अब तक कई बार बातचीत की; लेकिन यह बातचीत सही एमएसपी तय करने और उसकी गारंटी देने पर जब आती है, तो केंद्र सरकार पलटी मार जाती है। जब किसान केंद्र सरकार को वादाख़िलाफ़ी के लिए घेरने की योजना बनाते हैं और दिल्ली की ओर बढ़ते हैं, तो उन्हें रोकने के लिए केंद्र सरकार से लेकर भाजपा की राज्य सरकारें तक किसानों को रोकने के लिए बेरिकेडिंग कराती है, रास्ते में कीलें ठुकवाती है। कँटीले तार लगवाती है। हाईवे ख़ुदवाती है और किसानों पर गैस, लाठियाँ, पानी की बौछार करवाती है। पुलिस ने खनौरी और शंभू बॉर्डर पर तो किसानों पर गोलियाँ भी दा$गीं। किसानों के दिल्ली कूच से सरकार ने उन्हें किसान मानने से इनकार कर दिया और खेती न करने वाले लोगों को किसानों के ख़िलाफ़ भड़काने का काम कुछ सरकार समर्थित लोगों ने लगातार किया।

किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य की माँग पूरी करा पाने में आज सड़क पर बैठने को मजबूर हैं। केंद्र सरकार और उसके समर्थक किसानों की माँगों को निराधार बताकर किसानों को अपराधी ठहराने की कोशिश में लगे हैं। लेकिन किसानों के ऐसे कई सवाल हैं, जिनके जवाब केंद्र सरकार देने से कतरा रही है, यह भी कह सकते हैं कि केंद्र सरकार के पास किसानों की जायज़ माँगों और जायज़ सवालों के जवाब नहीं हैं। न्यूनतम समर्थन मूल्य का मुद्दा कोई आज का मुद्दा नहीं है। यह मुद्दा पुराना है और इसके लिए कांग्रेस की सरकार में स्वामीनाथन आयोग का गठन किया गया था। लेकिन जब स्वामीनाथन आयोग ने अपनी रिपोर्ट केंद्र सरकार को सौंपी, तो केंद्र सरकार ने उसे लागू नहीं किया। 2014 के लोकसभा चुनाव में उस समय के गुजरात के मुख्यमंत्री और आज के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी किसानों की फ़सलों पर उन्हें न्यूनतम समर्थन मूल्य देने का वादा करके सत्ता में आये थे; लेकिन सरकार में आते ही वह भी अपने वादे से फिर गये। इसके बाद केंद्र सरकार में आयी भाजपा के नेता प्रधानमंत्री मोदी ने इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया। न्यूनतम समर्थन मूल्य देना तो दूर की बात, उन्होंने किसानों की आय दोगुनी करने का वादा किया, वो भी भूल गये। अब किसान स्वामीनाथन रिपोर्ट के हिसाब से ही न्यूनतम समर्थन मूल्य की माँग कर रहे हैं। प्रधानमंत्री ने चुनाव प्रचार में 80 करोड़ लोगों को हर महीने पाँच किलो राशन मु$फ्त देने का दम्भ भरा; लेकिन किसानों और दूसरे ज़मीनी मुद्दों पर वह चर्चा नहीं की और तीसरी बार जनता से सत्ता माँगी। किसान अपनी फ़सलों का सही मूल्य नहीं पा रहे हैं और बाज़ार के उतार-चढ़ाव का नुक़सान भी भर रहे हैं। छोटे किसान सबसे ज़्यादा परेशान हैं। वे आर्थिक तौर पर इतने कमज़ोर हैं कि लाखों किसान मज़दूरी करने को भी मजबूर हैं। न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी न मिलने से बाज़ार में फ़सलों के भाव ज़्यादातर समय कम रहता है। किसानों को अगली फ़सल और घर ख़र्च के लिए पैसे की ज़रूरत फ़सल पकते ही होती है; लेकिन उस समय फ़सलों का अच्छा भाव नहीं मिलता। इसके चलते हर वर्ष सैकड़ों किसान आत्महत्या कर लेते हैं।

नेशनल अपराध रिकॉर्ड्स ब्यूरो की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में क़रीब हर साल सैकड़ों किसान और मज़दूर आत्महत्या करते हैं। 2022 में 11,290 किसानों ने आत्महत्या की थी। इस वर्ष के बाद किसानों की आत्महत्या के आँकड़े सरकार ने जारी नहीं किये। भारतीय अर्थ-व्यवस्था ने आँकड़े जारी करके कहा है कि भारत की अर्थ-व्यवस्था में कृषि क्षेत्र का योगदान 17.3 प्रतिशत है, जो काफ़ी कम है। लेकिन यह आँकड़े सही नहीं लगते, क्योंकि कृषि से क़रीब 62 प्रतिशत जनसंख्या जुड़ी हुई है। स्वामीनाथन आयोग ने किसानों के लिए फ़सल की औसत लागत और उसका 50 प्रतिशत लाभ मिलाकर न्यूनतम समर्थन मूल्य के रूप में देने को कहा था। केंद्र सरकार इसे लागू नहीं करना चाहती है, क्योंकि इससे व्यापारियों को किसानों से ज़्यादा लाभ नहीं मिलेगा।