रमेश, विनय और सुशील (बदले हुए नाम) देश की राजधानी दिल्ली के दक्षिणपुरी इलाके की एक झुग्गी बस्ती में रहते हैं. दो अगस्त, 2012 की रात ये तीनों दोस्त अपने घर लौट रहे थे कि रास्ते में एक टेंट मालिक से उनका झगड़ा हो गया. एक मोटरसाइकिल के जमीन पर गिरने की वजह से शुरू हुए इस छोटे-से झगड़े के बाद तीनों को हत्या के प्रयास के आरोप में हिरासत में ले लिया गया. तब विनय और रमेश की उम्र मात्र 15 वर्ष थी जबकि सुशील 16 साल का था. नाबालिग होने की वजह से उन्हें सुनवाई के दौरान दिल्ली के बाल सुधार गृहों में भेज दिया गया. लेकिन जाने-अनजाने आपराधिक दुश्चक्र में फंस जाने वाले बच्चों के सुधार और पुनर्वास के उद्देश्य से स्थापित किए गए इन सुधार गृहों में इन तीनों को शारीरिक उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा. बच्चों का आरोप है कि सेवा कुटीर स्थित किंग्सवे कैंप सुधार गृह में उनके इलाज के लिए आने वाले चिकित्सा कर्मचारी उनके कपड़े उतरवाकर उनकी पिटाई किया करते थे. अदालती कार्यवाही के दौरान दर्ज करवाए गए अपने बयानों में बच्चों ने साफ कहा है कि इलाज के दौरान सहबंदियों और मेडिकल स्टाफ के अन्य सदस्यों के सामने उनके कपड़े उतरवाए जाते थे और उन्हें घुटनों के बल झुकाकर डंडों से बुरी तरह पीटा जाता था.
लेकिन दिल्ली के बाल सुधार गृहों में बच्चों के उत्पीड़न का यह पहला मामला नहीं है. पीड़ित बच्चों से बातचीत करने और हालिया अदालती निर्णयों की पड़ताल करने पर यह साफ हो जाता है कि बच्चों की सुरक्षा और बेहतरी के लिए बनाए गए इन ‘बाल सुधार गृहों’ में बच्चों को घोर शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है. छोटी उम्र में मिली इस प्रताड़ना के दंश से ज्यादातर बच्चे जीवन भर नहीं निकल पाते. जानकार बताते हैं कि कई मामलों में यही बच्चे बड़े होकर खूंखार अपराधियों में तब्दील हो जाते हैं.
रमेश, विनय और सुशील के अलावा दो अन्य बच्चों ने भी अलग-अलग मामलों में किंग्सवे कैंप के मेडिकल स्टाफ द्वारा प्रताड़ित किए जाने की शिकायत दर्ज करवाई थी. इन पांचों बच्चों के बयानों को जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड (जेजेबी) के सामने लाकर संबंधित मेडिकल ऑफिसर डॉ बीएन शर्मा और पुरुष नर्स प्रदीप के खिलाफ केस दायर करने वाले किशोर मामलों के अधिवक्ता भूपेश समद कहते हैं, ‘बाल सुधार गृहों में माहौल बहुत खराब है. यहां रहने वाले बच्चों को अक्सर शारीरिक और मानसिक हिंसा का सामना करना पड़ता है. हम भी कुछ ही मामलों में मदद के लिए पहुंच पाते हैं क्योंकि ज्यादातर मामलों में हमें पता ही बहुत देर से चलता है. जब बच्चे हमें बताते हैं तभी हम कुछ कर सकते हैं. लेकिन कुछ ही बच्चे यह हिम्मत जुटा पाते हैं. कई बच्चे प्रशासन के डर की वजह से चुप रह जाते हैं.’ समद बताते हैं कि इस मामले में बोर्ड ने कड़ा रुख अख्तियार करते हुए बच्चों के बयानों का संज्ञान लिया और संबंधित मेडिकल स्टाफ को निलंबित करके उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज करने का आदेश दिया.
छोटी उम्र में मिली इस प्रताड़ना के दंश से ज्यादातर बच्चे जीवन भर नहीं निकल पाते. कई मामलों में यही बच्चे बड़े होकर खूंखार अपराधी बन जाते हैं
रमेश, विनय और सुशील दक्षिणपुरी की एक ही झुग्गी बस्ती में रहते हैं और फिलहाल जमानत पर हैं. दक्षिणपुरी के इस भीड़-भाड़ वाले इलाके में थोड़ी मेहनत के बाद हमें इन बच्चों के घर मिल जाते हैं. किंग्सवे कैंप के बाल सुधार गृह में बिताए गए अपने समय के बारे में पूछते ही बच्चे घबरा जाते हैं. वे चारों तरफ खड़े अपने घरवालों की ओर देखने लगते हैं. कुछ देर की सामान्य बातचीत के बाद वे थोड़े सहज होते हैं और फिर बताते हैं कि सुधार गृह में उन्हें पीटा जाता था. विनय कहता है, ‘मैं इलाज के लिए सेवा कुटीर में मौजूद डाक्टर के पास गया तो वहां प्रदीप नाम का एक आदमी था. उसने मुझसे पूछा कि क्या मैं नशा करता हूं. मैंने मना कर दिया तो उसने मेरे खूब थप्पड़ मारे और फिर से वही पूछा. मैंने फिर वही कहा तो उसने मेरे पैरों में डंडों से मारा. फिर उसने मुझे वापस भेज दिया. फिर छह अगस्त को डाक्टर ने मुझे बुलाया और परदे के पीछे जाने के लिए कहा. वहां प्रदीप पहले से खड़ा था. डाक्टर ने मुझे कपड़े उतारने के लिए कहा और पूछा कि मैं क्या नशा करता हूं. मैंने कुछ नहीं कहा तो उसने मुझे कहा कि घुटनों के बल झुक जा. फिर उसने मेरी पीठ पर पूरी ताकत से मारना शुरू किया और मैं रोने लगा.’ रमेश और सुशील ने भी इसी तरह सुधार गृह में हुई अपनी पिटाई की बात स्वीकार की. अदालती कार्यवाही के दौरान जेजेबी के सामने रिकॉर्ड करवाए गए अपने बयान में रमेश ने कहा है, ‘छह सितंबर, 2012 की दोपहर डॉक्टर प्रदीप ने मुझे इलाज के लिए बुलाया. तब वहां एक और डाक्टर मौजूद था और साथ में मेरे साथ के दूसरे बच्चे भी खड़े थे. डाक्टर प्रदीप ने मुझसे कपड़े उतार कर अपने हाथों से अपने पैरों के अंगूठे छूने के लिए कहा और मैंने वैसा ही किया. फिर उन्होंने मुझे पूछा कि मैं कौन-सा नशा करता हूं. मैंने मना कर दिया. फिर दूसरे डाक्टर ने मुझे थप्पड़ मारे और बाहर निकल जाने को कहा.’
सूत्र बताते हैं कि डॉक्टरों द्वारा बच्चों से उनकी नशे की आदतों के बारे में लगातार पूछताछ करने के पीछे एक उदेश्य उनकी जिम्मेदारी के झंझट से छुटकारा पाना भी होता है. प्रयास सुधार गृह के एक कर्मचारी बताते हैं, ‘दरअसल सुधार गृह में बच्चों की बढ़ती हुई संख्या की वजह से लोग उन्हें यहां से नशा मुक्ति केंद्र भेजना चाहते हैं. इसलिए भी बच्चों पर नशा करने की आदत को स्वीकार करने के लिए लगातार दबाव बनाया जाता है.’
‘तहलका’ के पास मामले से संबंधित सभी कानूनी दस्तावेजों की प्रतियां मौजूद हैं. इस मामले को जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड के सामने लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली बाल अधिकार कार्यकर्ता मीना कबीर बताती हैं कि जिन मामलों में विभागीय कर्मचारी शामिल होते हैं उन्हें सामने लाने में थोड़ी मुश्किल तो होती है लेकिन ऐसा करना बहुत जरूरी है. ‘तहलका’ से बातचीत में वे कहती हैं, ‘यह हमारा कर्तव्य है कि अगर कोई बच्चा कोई शिकायत कर रहा है तो हम उसे बोर्ड के सामने रखें. जब तक बच्चा बाल सुधार गृह में है तब तक उसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी बोर्ड की है. यह शिकायतें सही हैं या गलत इसका फैसला तफ्तीश के बाद होगा, लेकिन पहले इनका दर्ज होना जरूरी है.’
सुशील की कहानी भी कमोबेश रमेश और विनय जैसी ही है. पांच अगस्त, 2012 को सुशील के हाथ-पैरों में दर्द हो रहा था. वह इलाज के लिए गया तो चिकित्सीय सहयोगी प्रदीप ने उससे पूछा कि वह कौन-सा नशा करता है. उसके इनकार करने पर प्रदीप ने उसे घुटनों पर झुकाकर उसकी पिटाई की. बोर्ड के सामने दिए गए अपने बयान में सुशील आगे जोड़ता है, ‘फिर लंच के बाद प्रदीप ने मुझे फिर बुलाया. वहां पर एक और बूढ़ा डाक्टर था जिसके बाल सफेद थे. उसने मुझसे कपड़े उतारने के लिए कहा और फिर पूछा कि मैं कौन-सा नशा करता हूं. मेरे मना करने पर उसने मुझे झुकाकर मारना शुरू कर दिया. प्रदीप ने भी मुझे डंडों से पीटा. मैं और कुछ नहीं कहना चाहता.’
‘यह पूरी तरह से बाल बिगाड़ गृह है. बच्चे छोटे होते हैं तो उन्हें मालूम नहीं होता कि वे कोई अपराध कर रहे हैं. ऐसे ही अगर कोई छोटा बच्चा पॉकेट मारने या किसी छोटे-मोटे लड़ाई-झगड़े में फंसकर यहां आ जाता है तो यह पक्की बात है कि वह यहां से एक बड़ा अपराधी बनने की पूरी ट्रेनिंग लेकर ही निकलेगा. यहां का सिस्टम ही ऐसा है.’
‘सामान्य तौर पर बच्चों के सुधार और पुनर्वास के लिए बने सुधार गृह कुप्रबंधन और सरकारी उपेक्षा के चलते बच्चों के लिए बहुत ही क्रूर अनुभव साबित होते हैं’ उधर, चिकित्सीय सहयोगी प्रदीप ने बोर्ड के सामने यह तो स्वीकार किया कि वह बच्चों के परीक्षण के समय चिकित्सीय कक्ष में मौजूद रहता था लेकिन उसका कहना है कि बच्चों से कभी अन्य लोगों के सामने कपड़े उतारने के लिए नहीं कहा गया. गौरतलब है कि बोर्ड के कड़े निर्देशों के बाद मुखर्जी नगर थाने में आरोपित डॉक्टर और चिकित्सीय सहायक के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 323 और किशोर बाल अधिनियम की धारा 23 के तहत मामला दर्ज कर कर लिया गया है. तहलका से बातचीत में आरोपित डॉक्टर बीएन शर्मा सभी आरोपों को खारिज करते हुए कहते हैं, ‘बच्चों को यह शिकायत करने के लिए उकसाया जाता है. यह मेरा काम है कि मैं उनकी पूरी तरह से जांच करूं और मैं वही करता था. मैं पिछले 10 साल से यहां इलाज करता हूं और मैंने किसी बच्चे को नहीं मारा. मेरे रिटायरमेंट में अब सिर्फ एक साल बचा है, मैं यह सब क्यों करूंगा?’
लेकिन 30 अक्टूबर, 2012 को किंग्सवे कैंपस स्थित जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड-1 की प्रिंसिपल मजिस्ट्रेट सुनयना शर्मा ने तीन अलग-अलग मामलों में दर्ज किए गए पांच बच्चों के बयानों के आधार पर अपने निर्देश जारी करते हुए कहा, ‘…अन्य लोगों के सामने बच्चों से कपड़े उतारने के लिए कहना और उन्हें झुकाकर मारना किशोर बाल अधिनियम ने तहत बच्चे की निजता और गरिमा का हनन है. कानून के मुताबिक बच्चों को एक सकारात्मक जांच का पूरा अधिकार है. बोर्ड के पास तीन अलग मामलों में पांच अलग-अलग बच्चों की एक जैसी शिकायतों पर विश्वास नहीं करने का कोई कारण नहीं है’ लेकिन दिल्ली के बाल सुधार गृहों में लंबे समय तक जेल अधीक्षक रहे एक वरिष्ठ अधिकारी नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर तहलका को बताते हैं कि बाल सुधार गृहों में बच्चों के साथ होने वाली बदसलूकी के कई दूसरे कारण भी हैं. वे कहते हैं, ‘यहां आने वाले लगभग 95 प्रतिशत बच्चे तो थोड़ी कोशिशों के बाद मुख्यधारा की तरफ मुड़ जाते हैं लेकिन जो पांच प्रतिशत बचते हैं वे बहुत परेशान कर देते हैं. ड्रग्स और धारदार हथियारों का प्रवेश अंदर रोकने के लिए हमें कई बार सख्ती करनी पड़ती है. बच्चे नशा मुक्ति केंद्र जाने के डर से कई बार डाक्टर को अपने नशे की आदतों के बारे में ठीक से नहीं बताते. हो सकता है इसलिए डाक्टर ने थोड़ी सख्ती की हो, यह सब तो यहां चलता रहता है. और जहां तक सुधार गृह में बच्चों के साथ होने वाली बदसलूकी का सवाल है, तो वह तो होता ही है. हत्या और बलात्कार जैसे गंभीर अपराधों के आरोपी भी पॉकेट मारने वाले किसी छोटे-से बच्चे के साथ एक ही हॉल में रहते हंै. ऐसे माहौल में छोटे बच्चों के हिंसा का शिकार होने और आगे जाकर बड़े अपराधी में तब्दील होने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं.’
दिल्ली के बाल सुधार गृहों में बच्चों पर अपनी उम्र से बड़े बच्चों के साथ-साथ प्रशासन के हाथों होने वाली हिंसा के ये मामले नए नहीं हैं. पिछले पांच साल के दौरान बड़े बच्चों द्वारा छोटे बच्चों और सुधार गृह के कर्मचारियों द्वारा बच्चों के शोषण से जुड़े कई बडे़ मामले सामने आए. बाल अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था बचपन बचाओ आंदोलन द्वारा सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई जानकारी बताती है कि 2006 से 2010 के बीच कुल 1,800 बच्चे दिल्ली के अलग-अलग सुधार गृहों और आश्रय गृहों से भाग गए. किशोरों के न्यायिक मामलों से लंबे समय से जुड़े वरिष्ठ अधिवक्ता अनंत अस्थाना इस संदर्भ में 28 अगस्त, 2010 को किंग्सवे कैंप स्थित जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड-1 में प्रिंसिपल मजिस्ट्रेट अनुराधा शुक्ला भारद्वाज द्वारा दिए गए एक ऐतिहासिक निर्णय का हवाला देते हुए कहते हैं, ‘बाल सुधार गृहों में दी जाने वाली सुविधाओं की वास्तविकता हमारे कानून में सजे सुंदर और मनोरम चित्र से बहुत अलग है. कुछ अपवादों को छोड़ दें तो सामान्य तौर पर बच्चों के सुधार और पुनर्वास के लिए बने सुधार गृह कुप्रबंधन और सरकारी उपेक्षा के चलते बच्चों के लिए बहुत ही क्रूर अनुभव साबित होते हैं.’
अगस्त, 2010 में दीपेश (बदला हुआ नाम) नामक एक किशोर के साथ तत्कालीन जेल अधीक्षक द्वारा किए गए शारीरिक उत्पीड़न के मामले में जांच और कानूनी कार्यवाही के आदेश देते हुए जेजेबी ने कहा था, ‘…बच्चे को सुधार गृह प्रशासन द्वारा हिंसा का शिकार होना पड़ा और उसे बोर्ड के सामने चुप रहने के लिए डराया भी गया. उस छोटे बच्चे के लिए अपने साथ हुई इस हिंसा से उबर पाना बहुत मुश्किल होगा. बोर्ड को इस बात पर शर्मिंदगी महसूस होती है कि वह बच्चे की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं कर सका. हम इस बात के लिए खुद को दोषी भी मानते हैं कि हमने बच्चे के उस विश्वास को ठेस पहुंचाई जो उसने सुधार गृह में आते वक्त हम पर दिखाया था. यह याद रखना बहुत जरूरी है कि बच्चों को सुधार गृहों में सजा देने के लिए नहीं, बल्कि उनके हित में, उनके सुधार के लिए लाया जाता है.’
लेकिन हिंसा का यह सिलसिला सिर्फ सुधार गृहों के प्रशासन तक सीमित नहीं है. बाल सुधार गृहों में रहने वाले बड़ी उम्र के बच्चे भी छोटे बच्चों के साथ हिंसा पर उतारू हो जाते हैं. दिल्ली गेट स्थित प्रयास नामक बाल सुधार गृह में लंबे समय से कार्यरत एक कर्मचारी नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर ‘तहलका’ को बताते हैं, ‘यह पूरी तरह से बाल बिगाड़ गृह है. बच्चे छोटे होते हैं तो उन्हें मालूम नहीं होता कि वे कोई अपराध कर रहे हैं. ऐसे ही अगर कोई छोटा बच्चा पॉकेट मारने या किसी छोटे-मोटे लड़ाई-झगड़े में फंसकर यहां आ जाता है तो यह पक्की बात है कि वह यहां से एक बड़ा अपराधी बनने की पूरी ट्रेनिंग लेकर ही निकलेगा. यहां का सिस्टम ही ऐसा है. रेप और हत्या के आरोपी छोटे बच्चों के साथ रहते हैं. सब मारपीट करते हैं और अगर ब्लेड मिल जाए तो एक-दूसरे को चोट करने लगते हैं. यहां का पूरा माहौल ऐसा है कि अच्छे बच्चे भी हिंसक हो जाते हैं.’ बाल सुधार गृहों के वीभत्स माहौल के बारे में बताते हुए अस्थाना कहते हैं, ‘विधि विरुद्ध किशोरों के लिए बने संरक्षण गृह तो सबसे ज्यादा उपेक्षा के शिकार हैं. दिल्ली में बच्चों के लिए बना ‘स्पेशल होम’ वाकई स्पेशल है. जिस इमारत में यह होम चलता है, वह इंसानों के रहने के लिए बना ही नहीं था. असल में यह इमारत एक वक्त में गोला-बारूद और सैन्य हथियार रखने के लिए इस्तेमाल की जाती थी. बचाव पक्ष के वकील के तौर पर मैंने हमेशा कोशिश की है कि बच्चे इस अनुभव से दूर ही रहें.’
दिल्ली सरकार के महिला और बाल विकास विभाग के सहायक निदेशक पी खाखा मानते हैं कि सुधार गृहों में बच्चों को हिंसा से बचाने के लिए उनकी उम्र और अपराध के हिसाब से उनके लिए इंतजाम करने होंगे. वे कहते हैं, ‘बाल सुधार गृहों में जारी हिंसा को रोकने के लिए गंभीर अपराधियों के लिए तुरंत अलग सेल बनाए जाने चाहिए. हॉस्टलों की तरह छोटे-छोटे कमरे होने चाहिए जिनमें चार या ज्यादा से ज्यादा छह बच्चे रह सकें. बच्चों के इन कमरों के बीच काउंसल या मेडिकल जैसे छोटे-छोटे सेक्शन बनाए जाने चाहिए. इससे कर्मचारियों को बच्चों से सीधे और लगातार बातचीत करने का मौका मिलगा. बच्चे अगर छोटे-छोटे समूहों में रहेंगे तो उन्हें समझाने में भी सहूलियत होगी.’