यह आश्चर्य की बात है कि ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ के जिस विधेयक को लोकसभा में पेश करने से पहले भाजपा प्रधानमंत्री मोदी का सपना बता रही थी, उस विधेयक की वोटिंग में भाजपा के ही एक-दो नहीं, 20 सांसद अनुपस्थित थे; व्हिप जारी होने की बावजूद। इनमें प्रधानमंत्री पद के दावेदार माने जाते रहे वरिष्ठ भाजपा नेता, मंत्री नितिन गडकरी और कभी कांग्रेस में रहते हुए राहुल गाँधी के सखा माने जाने वाले मोदी सरकार में मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया भी शामिल हैं। भाजपा के एक राष्ट्र, एक चुनाव को देश के हित में बताने के दावों के विपरीत कांग्रेस और विपक्ष का बड़ा हिस्सा इसे भाजपा की कॉन्सपिरेसी के रूप में देख रहा है। लोकसभा में प्रस्तुत करने के बाद इसके हक़ में 269 वोट पड़े, जो विरोध में पड़े 198 मतों से ज़्यादा ज़रूर थे; लेकिन सरकार बचाने के लिए ज़रूरी बहुमत के 272 के आँकड़े से भी कम थे। मोदी सरकार के लिए यह इसलिए चिन्ता का सबब हो सकता है कि इसके संवैधानिक विधेयक होने के कारण इसे पास करने के लिए दो-तिहाई सदस्यों का समर्थन चाहिए, जो सम्भव दिख नहीं रहा।
फ़िलहाल इस विधेयक के विरोध को देखते हुए इसे संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) को भेज दिया, जहाँ इस पर चर्चा होने और इसके संशोधित रूप (यदि ऐसा हुआ) में वापस लोकसभा के सदन में प्रस्तुत किये जाने में आधा साल तो गुज़र ही जाएगा। विपक्ष इसे आसानी से स्वीकार नहीं करेगा, क्योंकि जो जेपीसी गठित हुई है, उसमें विपक्ष के तेज़-तर्रार सांसद शामिल हैं। इनमें प्रियंका गाँधी भी शामिल हैं, जो कुछ महीने पहले ही सांसद बनी हैं। भाजपा एक राष्ट्र, एक चुनाव वाले इस विधेयक को प्रधानमंत्री मोदी का महत्त्वाकांक्षी विधेयक बता रही है। लेकिन 2014 से लेकर दिसंबर, 2024 के 10 वर्षों में मोदी सरकार के ही रहते जितने भी चुनाव हुए हैं, कमोवेश सभी एक से ज़्यादा चरणों में हुए हैं। हाल में महाराष्ट्र और झारखण्ड के विधानसभा चुनावों में मतदान जितने चरणों में हुआ, उसमें एक महीना खप गया।
यहाँ सवाल यह है कि कांग्रेस समेत पूरा विपक्ष एक सुर में एक राष्ट्र, एक चुनाव का विरोध क्यों कर रहा है? उसकी आशंकाओं को क्यों गंभीरता से लेने की ज़रूरत है। कोई क़ानून सिर्फ़ इसलिए नहीं बनाया जाना चाहिए कि एक साथ चुनाव होने से देश का धन बचेगा। देश का धन तो सरकारें अपने व्यापारी मित्रों के लाखों करोड़ रुपये उनके क़ज़ेर् माफ़ करने में क़ुर्बान कर देती हैं। लिहाज़ा यह बहुत ज़रूरी है कि इतने महत्त्व का क़ानून पास करने से पहले उस पर देशव्यापी बहस हो। विपक्ष के विरोध को ध्यान में रखा जाए।
देश में आज संविधान निर्माता बाबा साहेब आंबेडकर और ख़ुद संविधान बहस का बहुत गम्भीरता से बड़ा मुद्दा बन गये हैं। सच यह है कि यह मुद्दे देश की राजनीति के केंद्र में आ गये हैं। गृह मंत्री अमित शाह के लोकसभा में आंबेडकर को लेकर विवादित तरीक़े के बयान के बाद संसद के बाहर जिस तरह कांग्रेस और विपक्ष ने विरोध-प्रदर्शन किया है, उससे भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए के कुछ घटक दल भी राजनीतिक नुक़सान की चिन्ता में घिर गये हैं। राहुल गाँधी लगातार दलितों-पिछड़ों के अधिकार की बात कर रहे हैं, उससे भाजपा के भीतर भी बेचैनी है। राहुल गाँधी ने बहुत चतुराई से इसमें संविधान और आंबेडकर को भी जोड़ दिया है। चूँकि एक राष्ट्र, एक चुनाव को कांग्रेस और विपक्ष संविधान से जोड़ रहे हैं; यह मुद्दा भी विपक्ष के विरोध का हिस्सा बन गया है। कांग्रेस का आरोप है कि भाजपा संविधान और इससे जुड़ी हर चीज़ को नष्ट करने पर तुली है।
यहाँ सवाल यह भी है कि क्या भाजपा के भीतर भी एक राष्ट्र एक विधेयक और शाह के संसद में आंबेडकर पर विवादित बयान को लेकर चिन्ता है? ऐसा लगता है कि हाँ है। इस विधेयक पर वोटिंग के समय 20 पार्टी सांसदों का अनुपस्थित रहना इसका संकेत है। कुछ हलक़ों में जो यह कहा जा रहा है कि यह भाजपा की ही रणनीति का हिस्सा था, यह सच नहीं लगता है। सच यह है कि ख़ुद पर संविधान के ख़िलाफ़ होने के विपक्ष के आरोपों से भाजपा में बेचैनी है। ऊपर से शाह के आंबेडकर को लेकर लोकसभा में कहे गये शब्द उसे और चिन्ता में डाल गये हैं। पार्टी के कई वरिष्ठ नेता महसूस करते हैं कि संविधान, आंबेडकर और एक राष्ट्र एक चुनाव पर विपक्ष का विरोध भाजपा को राजनीतिक नुक़सान पहुँचा सकता है। यदि इस पत्रकार को मिली जानकारी सही है, तो भाजपा भी अब इस विधेयक को फ़िलहाल ठंडे बस्ते में रखने की कोशिश में है।
हाल के दिनों में जो कुछ हुआ है, उसमें भाजपा अपने सहयोगियों को लेकर आशंका में घिरी है। उसे लगता है कि चंद्रबाबू नायडू, नीतीश कुमार और ऐसे सहयोगी दल, जिनका आधार ही दलित-पिछड़े वर्ग की राजनीति पर निर्भर है; बिगड़े तो उसके लिए केंद्र में अपनी सरकार बचाना भी मुश्किल हो जाएगा। ऊपर से भाजपा के माई-बाप माने जाने वाले आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने मस्जिद-मंदिर पर जो बयान दिया है, उससे भाजपा का शीर्ष नेतृत्व विचलित है। भागवत के हिन्दुओं का नेता बनने वाले बयान को भी मोदी-शाह पर कटाक्ष माना जा रहा है। आरएसएस प्रमुख की सद्भावना की वकालत से उन कट्टर हिन्दूवादी और भाजपावादी तत्त्वों को झटका लगा है, जो मस्जिद के नीचे मंदिर ढूँढने की मुहिम को हवा दे रहे हैं।
शाह के लोकसभा में कांग्रेस को निशाना बनाकर यह कहने कि ‘आजकल आंबेडकर का नाम लेना एक फैशन बन गया है। आंबेडकर, आंबेडकर, आंबेडकर….। इतना नाम अगर भगवान का लेते, तो सात जन्मों तक स्वर्ग मिल जाता’ ने देश की राजनीति में तूफ़ान ला दिया है। कांग्रेस इसे लेकर देश भर में प्रदर्शन कर रही है, तो दूसरी और बहती गंगा में हाथ धोते हुए आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली के चुनाव से ऐन पहले आंबेडकर के नाम पर दलित छात्रों को विदेश की पढ़ाई में आर्थिक मदद की घोषणा कर दी है। इस सारे मामले का असर मोदी के महत्त्वाकांक्षी विधेयक- एक राष्ट्र, एक चुनाव पर पड़ा है; और बहुत ज़्यादा सम्भावना है कि यह फ़िलहाल लटक जाएगा।
यदि गहराई से देखा जाए, तो कांग्रेस बहुत चतुराई से कुछ मुद्दों को एक साथ करने में सफल हो गयी है। इनके केंद्र में संविधान है। इन मुद्दों में 70 फ़ीसदी से ज़्यादा दलितों, पिछड़ों और आर्थिक रूप से कमज़ोर लोगों को सामाजिक न्याय दिलाने से लेकर आंबेडकर और एक राष्ट्र एक चुनाव आदि मुद्दे शामिल हैं। कांग्रेस एक राष्ट्र एक चुनाव का विरोध ऐसे ही नहीं कर रही है, बल्कि वह इसके लिए भाजपा की मंशा को भी कटघरे में खड़ा कर रही है। वह तर्क दे रही है कि यह विधेयक संविधान की भावना के ख़िलाफ़ है। आंबेडकर पर शाह के बयान को लेकर देश भर में विरोध-प्रदर्शन और प्रेस कॉन्फ्रेंस करके गृह मंत्री अमित शाह के इस्तीफ़े की माँग इसी रणनीति का हिस्सा है। शाह का बयान कांग्रेस को (विपक्ष को भी) बैठे-बिठाये मिल गया है, जिसका व्यापक असर हो सकता है। कांग्रेस कह रही है कि आंबेडकर ने देश को संविधान दिया और भाजपा उन आंबेडकर के प्रति अच्छे विचार नहीं रखती है।
जानना ज़रूरी है कि देश भर में लोकसभा और विधानसभाओं के एक साथ चुनाव संविधान से जुड़ा मुद्दा क्यों है? दरअसल, यह विधेयक संघीय ढाँचे के ख़िलाफ़ है। क्योंकि संविधान में इसका प्रावधान नहीं है। देश में एक साथ चुनाव के लिए संविधान के अनुच्छेद-83, 89, 172, 275, 376 में सशोधन करना पड़ेगा, जिसके लिए दो-तिहाई सदस्यों का समर्थन चाहिए। इसके लिए जन-प्रतिनिधि क़ानून-1951 में संशोधन करके धारा-2 में एक साथ चुनाव की परिभाषा जोड़नी पड़ेगी। बीच में लोकसभा या विधानसभा भंग होने की स्थिति में सारे देश में फिर से मध्यावधि चुनाव करना संभव नहीं होगा। इसके अलावा देश में एक साथ चुनाव के लिए बड़े पैमाने पर ईवीएम, कर्मचारियों और सुरक्षा की ज़रूरत पड़ेगी। कांग्रेस सहित पूरा विपक्ष, जिसमें 30 से ज़्यादा राजनीतिक दल हैं; इसके विरोध में हैं। उधर क्षेत्रीय दलों को डर है कि यह विधेयक उनके अस्तित्व को ख़त्म कर देगा।