
जनवरी महीने की तीन तारीख है. सुबह के दस बज चुके हैं, लेकिन धूप नहीं निकली है. हम इस वक्त बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के एक छोटे से गांव कोठिया में हैं. गांव के लोग घरों से निकलकर पास की खाली जगह की तरफ जा रहे हैं. गांव के बच्चे भी कमेरा-कमेरा चिल्लाते उसी ओर दौड़ रहे हैं. यहां एक 20-22 साल की युवती एक खबर बोल रही है और उसकी टीम उसे रिकॉर्ड कर रही है. लेकिन बीच-बीच में बच्चों के चिल्ला देने की वजह से उसे बार-बार रुकना पड़ रहा है. लेकिन इसके बावजूद वह खीझ नहीं रही. मुस्कुराते हुए वह उन बच्चों से कहती है, ‘थोड़ा देर चुप रह जो, फेरू फोटो खिंच देबऊ.’ बच्चों के शोर की वजह से चार-पांच बार रिकॉर्डिंग रुकती है और हर बार टीम की लड़कियां उन बच्चों का मनुहार करती हैं. कुछ कोशिशों के बाद रिकॉर्डिंग पूरी हो जाती है.
समझा-बुझाकर काम करने का यह सिलसिला पिछले सात साल से चल रहा है. साल 2007 के दिसंबर महीने में मुजफ्फरपुर के पारु ब्लॉक के एक छोटे से गांव चांदकेवारी से इस अनूठे समाचार माध्यम ‘अप्पन समाचार’ की शुरुआत हुई, जिसे सात लड़कियां चलाती हैं. संसाधन के नाम पर इनके पास आया एक सस्ता वीडियो कैमरा, एक ट्राईपॉड और एक माईक्रोफोन, और इसके साथ ही शुरू हो गई खबरों के लिए इन लड़कियों की भागदौड़. तब से अब तक यह भागदौड़ बदस्तूर जारी है.
‘अप्पन समाचार’ के पीछे पहल है युवा पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता संतोष सारंग की. हिम्मत, जुनून और जज्बा उन सात लड़कियों का, जो खबर के लिए साईकिल से गांव-गांव जाती हैं. और सहयोग स्थानीय लोगों का, जिन्हें अब उनके इस काम से कोई परेशानी नहीं है. अब तो उन्हें अपने गांव की इन खबरचियों पर गर्व है.

फोटोः विकास कुमार
ये सारी लड़कियां पढ़ाई कर रही हैं. दो लड़कियां गांव के एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाती हैं, जहां इन्हें हर महीने महज 600 रुपये मिलते हैं. इनकी उम्र 14 से 24 साल के बीच है, लेकिन बुलंद हौसलों से लबरेज ये लड़कियां लगातार काम कर रही हैं. सबके सहयोग से अब तक पच्चीस एपिसोड बना चुकी हैं. खबरों के चयन और उनकी रिपोर्टिंग-रिकॉर्डिंग के बाद इन लड़कियों में से कोई उसे लेकर मुजफ्फरपुर जाता है, जो गांव से तकरीबन 50 किलोमीटर दूर है. वहां एक स्टूडियो में इनकी एडिटिंग होती है. यह स्टूडियो चलानेवाले राजेश बिना किसी शुल्क के इन टेप्स को एडिट करते हैं और एडिट टेबल पर लड़कियों को वीडियो एडिटिंग की बारीकियां भी समझाते जाते हैं. उसके बाद खबरों की सीडी गांव वापस आती है और उसे सीडी प्लेयर के माध्यम से गांववालों के बीच दिखाया जाता है.

फोटोः विकास कुमार
सवाल यह है इतनी मेहनत से इस समाचार माध्यम को चलाने की जरूरत क्या है? इस सवाल के जवाब में टीम की सदस्य सविता कहती हैं, ‘बड़े समाचार चैनल न तो हमारे गांव तक पहुंच पाते हैं और न ही वे हम लोगों की रोजमर्रा की परेशानियां दिखाते हैं. हम लोग इन दिक्कतों से रोज दो-चार होते हैं. ऐसे में हमें अपने बीच की परेशानियों को उठाने और लोगों के बीच दिखाने में खुशी होती है.’
सविता की इस बात को टीम की दूसरी सदस्य ममता आगे बढ़ाती हैं. वह कहती हैं, ‘इस तरह की खबर हम ही दिखा सकते हैं. बड़े-बड़े चैनल्स को बड़े-बड़े मुद्दे चाहिए. वह इन मुद्दों पर रिपोर्टिंग नहीं करते हैं.’ इस तरह बातों-बातों में ममता यह अहसास करा जाती हैं कि कथित बड़े चैनल केवल शहरों तक सीमित हो गए हैं. वे चुनाव या किसी बड़ी आपदा के वक्त ही गांव पहुंचते हैं.
इनकी दिखाई खबरों का असर भी हुआ है. ममता कहती हैं, ‘किसान क्रेडिट कार्ड देने के लिए किसानों से पैसे लिए जा रहे थे. हमने खबर बनाई और दिखाई. बैंक मैनेजर से सवाल किया. हमारी खबर की वजह से इलाके के किसानों को मुफ्त में किसान क्रेडिट कार्ड मिले. पास के स्कूल में कमरों का निर्माण घटिया किस्म की ईंटों से किया जा रहा था. हमने उसकी रिपोर्टिंग की और इस वजह से ईंटों की पूरी खेप वापस भेजी गई. जब हमारी वजह से कुछ अच्छा होता है, किसी को उसका हक मिलता है, तो हम सब को बहुत खुशी होती है और इस खुशी के लिए हम और अधिक मेहनत करना चाहते हैं.’
इस टीम की खबरों से जितना असर हुआ, वो तो है ही, असल बदलाव तो इनके बाहर निकलने और सवाल करने से हुआ है. पूरे इलाके में बेटियों के प्रति सोच में बदलाव आया है. लड़कियों को पढ़ाने और लायक बनाने की कोशिश हो रही है. इस बारे में संतोष बताते हैं, ‘यह इलाका नक्सल-प्रभावित रहा है. शाम होते ही इस इलाके में आना-जाना बंद हो जाता था. लड़कियों का पढ़ना-लिखना तो दूर की बात थी. आज स्थिति ऐसी नहीं है. आज लड़कियां पढ़ रही हैं.’ दरअसल पहली बार इलाके के लोगों को यह दिख रहा है कि उनकी बिटिया बैंक मैनेजर से लेकर बीडीओ तक से सवाल कर रही है. उन्हें यह भी दिख रहा है कि इनके सवाल करने से उनकी जिंदगी की दुश्वारियां थोड़ी कम ही हुई हैं.

फोटोः विकास कुमार
लेकिन यह कोशिश आसान नहीं रही है. खबरों की खोज में निकलनेवाली लड़कियों और संतोष के सामने इस दौरान कई तरह की दिक्कतें भी आईं, लेकिन इनके बुलंद हौसलों के सामने दिक्कतें छोटी पड़ गईं. संतोष कहते हैं, ‘संसाधनों के मामले में हम शुरू से कमजोर हैं. इस वजह से थोड़ी दिक्कत आती है, लेकिन इस कमी की वजह से यह प्रयास थमेगा नहीं.’
अभी कुछ ही समय पहले की बात है. अमेरिका के एक स्वयंसेवी संस्थान ने टीम से संपर्क किया. उन्होंने कहा कि वे ‘अप्पन समाचार’ को सहयोग देना चाह रहे हैं. संतोष बताते हैं, ‘हमने उनका स्वागत किया. लड़कियां भी खुश थीं, लेकिन जब वे लोग आए तो पता चला कि इस सहयोग के बहाने वे हमारी पूरी मेहनत को हथियाना चाह रहे हैं. हमने लड़कियों के सामने पूरा प्रस्ताव रख दिया और कहा कि वे चुनाव कर लें. लड़कियों और ग्रामीणों ने एक सिरे से उस प्रस्ताव को खारिज कर दिया. हम सहयोग जरूर चाह रहे हैं, लेकिन कोई हमारी कीमत लगाए, यह हमें कतई मंजूर नहीं है.’

फोटोः विकास कुमार
वाह! बहुत खूब. शाबाश लड़कियों एवं संतोष सारंग. अच्छी पहल. जारी रहे.
–सनोज कुमार, हाजीपुर (बिहार)
gud acha laga hamari bahan betiya iti kuch kar rahi hai..:-) 🙂 aap sabko ye alok singh salute karta hai
इस टीम की खबरों से जितना असर हुआ, वो तो है ही, असल बदलाव तो इनके बाहर निकलने और सवाल करने से हुआ है. पूरे इलाके में बेटियों के प्रति सोच में बदलाव आया है. लड़कियों को पढ़ाने और लायक बनाने की कोशिश हो रही हैं