बजट बनाते वक्त केंद्र सरकार के सामने देश की अर्थव्यवस्था से जुड़ी मुख्यतः चार समस्याएं रही होंगीः कभी नौ प्रतिशत तक पहुंचने के बाद पांच फीसदी पर लुढ़क चुकी विकास दर, आम आदमी की जेब से बाहर जाती महंगाई (जो कि मानसून की गड़बड़ी की अवस्था में और ज्यादा गंभीर हो सकती है), बढ़ा हुआ वित्तीय घाटा (जिसे पिछली सरकार ने कुछ कम तो किया, लेकिन तरीका विकास की दर को पीछे धकेलने वाला रहा) और पिछली सरकार के निर्णयों और अनिर्णयों के चलते पाताल के स्तर पर पहुंच चुका देशी और बाहरी निवेशकों का विश्वास.
जब सरकार ने 10 जुलाई को केंद्रीय बजट देश के सामने रखा तो उसे जैसा कि इतने बड़े और विविधताओं वाले देश में होना ही था – दोनों तरह की प्रतिक्रियाएं मिलीं. इनमें से ज्यादातर नकारात्मक प्रतिक्रियाओं का ऊपर लिखी समस्याओं से दूर का भी संबंध नहीं था. इनमें से भी मोटे तौर पर चार-पांच कुछ इस तरह थीं: पूरे बजट में धमाकेदार कुछ नहीं है, बजट पुरानी सरकार का ही लग रहा है, बजट में सौ-करोड़ी योजनाओं की भरमार है जिनमें से ज्यादातर का 100 करोड़ में कुछ हो ही नहीं सकता, बजट में कई महत्वपूर्ण योजनाओं से ज्यादा धन सरदार पटेल की मूर्ति की स्थापना के लिए दिया गया है और वित्तमंत्री ने पिछली सरकार द्वारा जबरिया लागू किए गए ‘पिछली तारीख से लागू होनेवाले कर कानून’ को समाप्त नहीं किया.
इन प्रतिक्रियाओं पर वित्तमंत्री स्पष्टीकरण दे चुके हैं, लेकिन कुछ पर और बात करना चाहें तो इस सरकार ने 26 मई को शपथ ली थी. स्वाभाविक है कि बधाइयों-सम्मान आदि के चलते सही तरह से कार्यभार संभालने में केंद्रीय मंत्रियों को दो-चार दिन लग ही गए होंगे. तो कहा जा सकता है कि काम के दिन उसे 35-40 ही मिले होंगे. ऐसे में कितना बड़ा धमाका और वह भी अलग तरह का किया जा सकता था? जल्दी का काम शैतान का होता है इस कहावत को यहां क्यों लागू नहीं होना चाहिए? सरकार से बाहर या चुनाव प्रचार के दौरान सरकारी नीतियों का विरोध करना अलग बात है, लेकिन सरकार होकर बड़े और सही तरह के बदलाव 40 दिन में तो नहीं ही लाए जा सकते है.
इसीलिए कई लोगों को बजट में यूपीए सरकार की झलक भी मिल रही है. हालांकि परेशानी तो तब होनी चाहिए थी जब ऐसा नहीं होता. यदि वर्तमान सरकार ने बिना सोचे-समझे सिर्फ दिखाने के लिए पुरानी सरकार से ज्यादा अलग जाने की कोशिश नहीं की तो इसे राजनीति के सकारात्मक पक्ष की तरह भी देखा जा सकता है. चाहें तो अपनी इस सोच पर हम अपने ऊपर ही हंस सकते हैं कि चुनाव प्रचार के दौरान कही बातों को अक्षरशः लेकर हम रातों-रात बदलाव की नौसिखिया उम्मीद लगाए बैठे थे. अगर हमने एक दिन में चांद पर पहुंचाने वाले चुनावी वादों पर आंख-मूंदकर भरोसा किया तो यह हमारी भी गलती थी. आज अगर हम उन्हीं नारों के गलत आधार पर किसी तर्कसंगत चीज को गलत ठहराते हैं तो यह हमारी एक और गलती होगी. पांच साल चलने की सोच रखने वाली सरकारों के काम करने का तरीका दूसरा होना चाहिए, वैसा नहीं जैसा दिल्ली पर सिर्फ 50 दिन राज करने वाली केजरीवाल सरकार का था.
अगर मानें तो इस बजट को भी अंतरिम माना जा सकता है. सरकार को मिले कम समय की वजह से भी और बजट को मिलने वाले कम समय (आठ महीने) के लिए भी. फिलहाल तो इसमें अगर कुछ बड़ा कहने लायक नहीं है तो कुछ बुरा कहने लायक भी नहीं है. बल्कि कई चीजें ऐसी हैं जो सकारात्मक हैं या ऐसी उम्मीद जगाती हैं. मसलन सरकार ने टैक्स में छूट आदि देकर आम आदमी की बढ़ी हुई क्रय-शक्ति के जरिये अर्थव्यवस्था की उत्पादकता बढ़ाने की कोशिश की है. और पिछली सरकार की मनरेगा सरीखी योजनाओं को न केवल चालू रखने बल्कि सही मायनों में लोगों और अर्थव्यवस्था के लिए उपयोगी बनाने की बात भी कही है.
आने वाले समय में, सरकार ने, जो बजट में किया है, करने को कहा है और जो वह बिना कहे करेगी, उस सबके सम्मिलित आधार पर उसके बारे में कोई निष्कर्ष निकालना ज्यादा उचित होगा. केवल इस बजट में लिखे हुए को पढ़ने से निकलने वाले निष्कर्षों की प्रवृत्ति भी बजट की तरह ही अंतरिम से ज्यादा शायद ही कुछ और होगी.