कल हमारे युग को जिन चीजों से पहचाना जाएगा उनमें से एक फेसबुक भी होगी. पहले भी घटनाएं दो बार घटती थीं. पहली बार सचमुच और दूसरी बार मनुष्य के भीतर. लेकिन यह दूसरी बार का घटित होना अब अक्सर हर रंग की संवेदनाओं से जोड़ी गईं कविताओं के रूप में फेसबुक पर प्रकट होने लगा है. अगर अच्छे-बुरे के फेर में न पड़ा जाए तो मान लेना चाहिए कि पहले जो कविताएं लोगों के भीतर ही मर जाती थीं अब जन्म पा लेती हैं. कितनी देर जिंदा रहती हैं यह उनकी आंतरिक शक्ति पर निर्भर करता है. भीड़ के बीच, कैमरों के सामने हुई उस बहुआयामी घटना के बाद कृष्ण कल्पित की एक कविता आई- एक नकली किसान/एक नकली मुख्यमंत्री के सामने/एक नकली पेड़ से लटककर मर गया/और नकली पुलिस और नकली जनता देखती रही/सब नकली थे/लेकिन मृत्यु असली थी!
इस कविता की पहली ही लाइन लिखने के लिए हिम्मत चाहिए क्योंकि वह एक मौत के बाद किसानों की आत्महत्याओं पर मची देशव्यापी, नकली किंतु क्रुद्ध चक-चक के बीच लिखी जा रही है. कवि का कचूमर भी बन सकता है. अगर आप दिल्ली के जंतर मंतर पर तालियां बजाते लोगों के बीच पेड़ से गिरी उस दढ़ियल लाश के बगल में खड़े होकर देखें तो जान जाएंगे कि एक नकली जनता का भी निर्माण न सिर्फ किया जा चुका है बल्कि वह इस हद तक जटिल हो चुकी है कि अब उसका पुरानी हालत में लौट पाना नामुमकिन है. यह भीड़ अपनी अनुभूतियों को झुठलाते हुए सच और झूठ के बीच के धुंधलके में कैसे भी धक्के से किसी भी तरफ चल पड़ने को तैयार खड़ी रहती है जिसका एक नायाब नमूना मरनेवाला गजेंद्र सिंह खुद था.
वह किसानी की चौपट असलियत से वाकिफ था, वह कई राजनीतिक पार्टियों में रहते हुए नेताओं का ध्यान खींचने के छक्के पंजे सीख चुका था, किसान मिजाज के उलट अपने लिए उसने काम भी ऐसा चुना था जिसमें मजदूरी से ज्यादा बख्शीश मिलती है. वह कौतुक पैदा करनेवाली गति से मंच पर नेताओं को साफा बांधा करता था, उसे बख्शीश वे लोग दिया करते थे जो पगड़ी, तलवार, मुकुट और मक्खन के जरिए सत्ताधारी नेताओं को पांच मिनट के महाराजा बनाकर अपना उल्लू सीधा करने के उस्ताद होते हैं. वह दरअसल एक खानदान की बिरूदावली गाते या एक व्यक्ति का अहंकार सहलाते हुए राजनीति में तेजी से कामयाब हो रही नेताओं की प्रजाति का अनुसरण करना चाहता था लेकिन ऐसा करने की कोशिश में सिर्फ ध्यान खींचने वाला एक आइटम बनकर रह गया था.
इस बहुआयामी घटना में पतनशील पॉलिटिकल कल्चर के हुसकाए एक देहाती से अधिक हैरतअंगेज मौत उस नई पार्टी और उसके नेता की है जो आम आदमी को राजनीति के केंद्र में स्थापित करने चला था. पिछली बार दिल्ली में 47 दिन की सरकार देशभर में फैलने की महत्वाकांक्षा पर कुर्बान करने के बाद अरविंद केजरीवाल को एक आॅटोवाले ने थप्पड़ मारा था, वे राजघाट पर प्रार्थना करने के बाद उसके घर गए थे, तब लोगों में एक पागल-सी उम्मीद ने जन्म लिया था कि शायद यह आदमी राजनीति में कुचले जा चुके मानवीय मूल्यों को दोबारा वापस लाना चाहता है. उन्हीं अरविंद ने अपनी आंखों के सामने एक आदमी की मौत के बाद अपना भाषण इस तरह जारी रखा जैसे उनके ग्लैमर के पेट्रोमैक्स पर मंडराता एक भुनगा जल गया हो. इस बार मुख्यमंत्री बनने के बाद खुलती उनके व्यक्तित्व की परतों से जाहिर हो रहा है कि हिंद स्वराज की कितबिया के पाठ समेत वे विनम्रता, आदर्शवाद, करुणा और पवित्रता बोध के सारे नाटक सत्ता पाने की साधना के सोचे विचारे अनुष्ठान थे, उन्हें भी उन्हीं की तरह होना था जिनके खिलाफ वे लड़ने निकले थे. अब अगर वे मुख्यमंत्री की हैसियत से इंसानियत का वास्ता देते हुए दिल्ली के लोगों से अपील करें कि वे सड़क पर पड़े-पड़े मर जानेवाले घायलों को उठाकर अस्पताल पहुंचाएं तो कोई कान नहीं देगा. उलटा जवाब आएगा, ये बात वो कह रहा है जो मस्जिद में अजान होने पर सभा रोक सकता है लेकिन किसी की जान जाने पर नहीं रोकता.
इससे भी दिलफरेब वह कर्कश शोर है जो किसानों के लिए मचाया जा रहा है. जो अमीरों के पक्ष में नीतियां बनाते हैं वही प्रतिरोध की भी जगह घेर रहे हैं, भाषा में बिंब, रूपक और मुद्राएं हास्यास्पद ढंग से गांवों की ओर लपक रही हैं. नीयत को छिपाने के लिए एक नकली प्रतिसंसार रचा जा चुका है जिसमें सबकुछ भ्रामक है. याद कीजिए कवि ने एक नकली पेड़ का भी जिक्र किया था जिससे लटक कर वह आदमी मरा.