हिन्दुओं के कथित रक्षक

शिवेन्द्र राणा

पिछले दिनों अम्बानी परिवार में शादी थी। हालाँकि यह उनके परिवार का निजी मामला था; लेकिन मीडिया ने उसे राष्ट्रीय उत्सव बना दिया। ख़ैर! इसी बीच एक आश्चर्यजनक ख़बर दिखी कि एक तथाकथित महंत ने वधु राधिका मर्चेंट के घाघरे पर भगवान श्रीकृष्ण का छपा चित्र सोशल मीडिया पर पोस्ट करके हिन्दू समाज को आक्रोशित करने का प्रयास करके अंबानी परिवार के विरोध का आह्वान किया।

प्रथम दृष्टया यह किसी ओछी मानसिकता के व्यक्ति की टिप्पणी लगती है, जिसके जीवन में कोई सार्थक कार्य न बचा हो। लेकिन यह इकलौता ऐसा मामला नहीं है, जहाँ सनातन धर्म के संत समाज, इन्हें आप तथाकथित भी कह सकते हैं; की हरकतें नागवार गुज़री हैं। अजीब है कि यहाँ देश मे धर्म, संस्कृति के अधोपतन के बहुतेरे कारण हैं, जिन पर परेशान होना चाहिए था। लेकिन उसके बजाय ऐसे संत हैं, जो महिला के घाघरे पर छपी तस्वीर में धर्म की अवनति देख रहे हैं। हालाँकि ग़लत यह भी है कि कोई पैसे के नशे में सर्वपूज्य हमारे देव का अपमान करे। लेकिन कमाल है कि ऐसे मुद्दों से लाभ लेने वाले तथाकथित संत और उनके भक्त देश में बढ़ रहे धर्मांतरण, अपने ही धर्म में बढ़ रहे पाखण्ड, भेदभाव, उसके आधार पर होने वाले अत्याचार, मॉब लिंचिंग और तथाकथित धर्म-गुरुओं की बुराइयों पर कुछ नहीं बोलते हैं।

एक तरफ़ सनातन धर्म, संस्कृति पर सामी पंथों के सुनियोजित षड्यंत्रकारी हमलों से त्रस्त सनातन समाज अपने इस संत-समूह से त्राण की उम्मीद रखता है और दूसरी तरफ़ उसे देश के कथित संतों के गिरते आचरण, उनके अज्ञान, सस्ते वाद-विवाद से ख़ुश होने और फंतासियों के चक्कर में पड़ने से ही फ़ुर्सत नहीं मिल रही है। अब तो कुछ नेता भी धर्म की रक्षा का नाटक करने लगे हैं। कभी-कभी लगता है कि बाज़ारीकरण ने सनातन धर्म के संत समाज को पूरी तरह अपनी गिरफ़्त में ले लिया है। इन्हें भी नेताओं की तरह ऐश-मौज़ से रहने और सेक्युलर दिखने का नशा चढ़ा है। सारे समाज को धर्म में आस्था की सीख देने वाले एक संत पिछले दिनों सड़कछाप ड्रामेबाज़ी करते हुए मुहर्रम के जुलूस में पीठ पर कोड़े लगाते दिखे।

संभव है कि सामी पंथीय षड्यंत्र से सनातन समाज की एकता खंडित हुई हो; लेकिन उसे एकजुट रखने से आपको किसने रोका है? हो सकता है कि सामी पंथीय मौलानाओं और पादरियों में चारित्रिक दोष हो, और है भी; जैसा कि विभिन्न मीडिया सूत्रों से ख़बर मिलती है। लेकिन आपको चरित्रवान बनने से किसने रोका है? हर बार प्रतिपक्षी या विरोधियों की कमियाँ गिनाकर ख़ुद की महानता नहीं साबित की जा सकती। सनातन धर्म का पथ-भ्रष्ट कु-संत समाज आध्यात्मिक-सामाजिक चेतना के प्रसार से इतर राजनीति एवं भौतिकता में धँसा है।

ग़रीब, अभावों से जूझते, अपने लिए सांत्वना तलाशते हिन्दुओं के चंदे पर प्राइवेट जेट और लग्जरी गाड़ियाँ लेकर क़ाफ़िले बनाकर घूमते ये सांसारिक मोह में फँसे निर्लज्ज कथित हिन्दू रक्षक कु-संत भौतिकतापूर्ण जीवन जी रहे हैं। बड़े-बड़े फार्महाउस बनाकर धंधा कर रहे हैं। आज देश की एक बड़ी आबादी को विभिन्न प्रलोभनों के द्वारा ईसाई मिशनरियों ने धर्मान्तरित कर डाला है; लेकिन दुनिया भर में अमीरी से जी रहे कथित संत और धार्मिक संस्थाएँ दिखावे और राजनीतिक टकराव मे उलझी हैं। सनातन धर्म अस्तित्व के संकट से जूझ रहा है और इन्हें राजनीति मे ही सने रहना है।

हाथरस का बाबा कोई अपवाद नहीं है। सत्ता के दुर्योग से पैदा ऐसे कई कालनेमी यानी संत के भेष में दानव हैं, जो धर्म की आस्था के दोहन से अपना इहलोक सुधारने में लगे रहते हैं। ऐसे बाबाओं को सत्ता संरक्षण मिलना बंद नहीं होगा, और न ही ऐसे सामूहिक भगदड़ में मौतें बंद होंगी; जब तक लोग इन कालनेमियों के चक्कर से बाहर नहीं निकलेंगे। वैसे भी ख़ामोशी से बिना आडम्बर के धर्म, समाज, संस्कृति की नि:स्वार्थ सेवा और रक्षा करने वाले कुछ संतों को छोड़ दें, तो ज़रा याद करिए कि अधिकांश तथाकथित संत-समाज ने राष्ट्रीय निर्माण में कौन-सा उल्लेखनीय योगदान किया है?

वैसे इन्हें बहुत बुरा लगता है, जब कुछ अति पिछड़े और दलित तबक़े के लोग या किसी भी समाज के जागरूक लोग ब्राह्मणवादी व्यवस्था के नाम पर सनातन धर्म की कु-मान्यताओं को कोसते हैं। परन्तु ये संतत्व के गुणों से हीन अधकचरे ज्ञानी धन कमाने, अपने महिमामण्डन और धार्मिक विरुदावलियाँ गाने से ही ख़ुश रहते हैं। इन्हें इसकी फ़ुर्सत नहीं कि उन लोगों के बीच जाकर उन सैकड़ों वर्षों के भेदभाव, कुरीतियों, पाखण्डवाद, सामाजिक असमानता एवं जातिगत हीनता, शोषण पर बात करें। उनकी सुनें और अपनी सही राय बताएँ। दलितों, पिछड़ों को भी मुख्यधारा में जोड़ें और समाज को समरस बनाएँ। लेकिन नहीं; इसके बजाय देश में चुनावी राजनीति, कौन-सा मठ किसे मिले? कौन-सी गद्दी किसके पास हो? सिनेमा के प्रीमियर में जाने; न्यूज चैनल पर राजनीतिक विश्लेषक बनने; विभिन्न मंत्रियों, नेताओं, पार्टी प्रमुखों के साथ मिलने-जुलने और फोटो खिंचवाने; व्यास पीठ पर ड्रामेबाज़ी के अंदाज़ में कथा सुनाने; उस कथा में नये-नये मनगढ़त तथ्य जोड़ने; अंधविश्वास के उपाय बताने जैसे कामों से इन्हें फ़ुर्सत ही कहा हैं? यदि ये तथाकथित संत अपने इन प्रदर्शनकारी कृत्यों के बजाय 10 फ़ीसदी भी संतत्व धर्म का निर्वहन कर रहे होते, तो सनातन समाज का बड़ा कल्याण हो जाता।

अब जन-कल्याण के बजाय स्व-भौतिक कल्याण इस कथित संत समाज के लिए प्रमुख बन चुका है। पिछले कई दशकों से अखाड़ों के बीच मठ-मंदिरों पर क़ब्ज़े और शिष्य परंपरा सिद्ध करने हेतु चलने वाले हिंसक एवं अदालती संघर्षों से संत-परंपरा कलंकित हुई है। रही-सही कसर उन पंडे-पुजारियों ने पूरी कर दी है, जो धर्म की आड़ में मंदिरों में बैठकर न सिर्फ़ धंधा कर रहे हैं, बल्कि मंदिरों में ही बलात्कार और हत्या करने तक से नहीं चूकते हैं। कहीं देवदासी प्रथा के नाम पर बलात्कार हो रहे हैं, तो कहीं महिलाओं की मंडली के बीच रसिया बनकर घिनौने कुकृत्य करने वाले पाखण्डियों ने धर्म को अधोपतन की ओर ले जाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। कुछ वर्ष पूर्व प्रयागराज की बाघंबरी गद्दी पर वर्चस्व स्थापना के संघर्ष में षड्यंत्र, आत्महत्या हत्या और गिरफ़्तारियों का जो दौर चला, वो सर्वविदित है। और ऐसे मामले देश भर की अदालतों में चल रहे हैं, जिसमें कहीं मठ-मंदिर की प्रॉपर्टी का विवाद है, तो कही पद का। कई तथाकथित पंडे, पुजारी और कु-संत तो अपनी जवानी और चेहरे की चमक बरक़रार रखने के लिए न सिर्फ़ मांस-मदिरा का उपयोग छुपकर करते हैं, बल्कि बच्चियों पर भी गंदी नज़र रखते हैं। और रोना रोते हैं कि हिन्दू उनका सम्मान नहीं करते। व्यास पीठ की वर्तमान परंपरा पर ग़ौर करिए। धार्मिकता से इतर मेकअप से लदे ये स्त्रैण हावभाव प्रदर्शित करते कथावाचक हिन्दुओं की कोमल भावनाओं का दोहन करने का नया चलन बना चुके हैं। ग़रीब और आम लोगों से मिलने में सेलिब्रिटी जैसा व्यवहार करने वाले इन्हीं तथाकथित संत समाज के अग्रणियों को धन्नासेठों की चाटुकारिता करने में बड़ा गर्व का अनुभव होता है।

एक वो दौर भी रहा है, जब ब्रिटिश सत्ता भारत को लूटकर जनता का दमन करके उसका धर्मांतरण कर रही थी। तब रजवाड़ों की मौन कायरता को पीछे धकेल अनेक संन्यासियों ने धर्म-दण्ड को छोड़कर हथियार उठाये और आततायी सत्ता का मुक़ाबला किया (संन्यासी विद्रोह : 1770-1800)। और एक आज का तथाकथित संत समाज है, जो घुँघरू बाँधकर श्रोताओं के समक्ष नृत्य करने में ही आह्लादित है। ये नैतिक रूप से पतनशील कथित संत क्या सनातन धर्म की युवा पीढ़ी को वीर भोग्य वसुंधरा की शिक्षा देंगे? अब हो सकता है कि आपके पास तर्क हो कि ये बुराइयाँ तो सभी धर्मों और पंथों के वाहक वर्ग (धार्मिक गुरुओं) में आम हो चुकी हैं। तो समझना होगा कि दूसरों की कमियाँ गिनाकर अपना आचरण और चरित्र शुद्ध नहीं किया जा सकता। यदि स्वर्ग आपको चाहिए, तो इसके लिए पवित्र भी आपको ही होना होगा। उनके कुसंस्कारों की परिणति उनको भुगतनी है। आपकी ज़िम्मेदारी अपने धर्म, संस्कृति की है, जिनकी पवित्रता, मज़बूती, संस्कारों से हिन्दू समाज की सुरक्षा होगी। लेकिन प्रश्न और भी हैं। क्या सिर्फ़ संत समाज अकेला इस दुर्योग का दोषी है? संभवत: नहीं। इसके लिए सरकार भी उतनी ही जवाबदेह है। केवल भारत के मंदिर, मठ, उनकी परंपराएँ एवं वेद-वेदांग का ज्ञानी विद्वत् समाज सुरक्षित रहे, तो हिन्दू धर्म की सुरक्षा हो जाएगी। लेकिन आज भी मंदिरों का धन ख़ुद भी पचाया जा रहा है और मदिरों को टैक्स के दायरे में लाकर उनकी स्थिति व्यवसायिक संस्थान जैसी कर दी गयी है। वहीं चर्च, मस्जिदें और दरगाह इससे मुक्त हैं। सरकार किसी अन्य धर्मावलंबियों के उपासना स्थलों से टैक्स के रूप में धन वसूली क्यों नहीं करती? यह पंथनिरपेक्षता नहीं, बल्कि हिन्दुओं के धार्मिक अधिकारों का हनन है।

पिछले दिनों ज्योतिर्मय मठ के शंकराचार्य स्वामी अवमुक्तेश्वरानंद द्वारा सरकार पर केदारनाथ धाम, काशी विश्वनाथ मंदिर समेत अन्य कई मंदिरों का सोना उठवाने तथा उसे अन्य धातु से बदलने का आरोप लगाया है। क़ायदे से इस आरोप की जाँच होनी चाहिए थी; क्योंकि यह अत्यंत गंभीर आरोप है। यदि स्वामी अवमुक्तेश्वरानंद के आरोप मिथ्या है, तो ऐसे अनर्गल आरोपों के लिए उनकी जवाबदेही तय होनी चाहिए। लेकिन यदि उनके आरोपों में रत्ती भर भी सच्चाई है, तो सरकार के इस कृत्य को सनातन समाज और भारतीय लोकतंत्र द्वारा बिलकुल सहन नहीं किया जाना चाहिए।

भारत में सनातन धर्म का पतन हो रहा है। हर बार हम सामी पंथीय षड्यंत्रों पर इसका दोषारोपण करके अपनी ज़िम्मेदारी से नहीं बच सकते। पूरा सनातन समाज नैतिक पतनशीलता से पीड़ित नज़र आ रहा है, जहाँ वह राष्ट्रधर्म के प्रति आग्रह और संस्कृति, संस्कारों के प्रति चिन्तन-शून्य होता जा रहा है। इसकी एक मुख्य वजह धर्म ध्वजवाहक कथित संत समाज का स्वयं कर्तव्यच्युत होना है। इसे ही अधोपतन कहते हैं। सॉल बेलो लिखते हैं- ‘किसी व्यक्ति को अपने बारे में सबसे बुरा सुनने और सहने में सक्षम होना चाहिए।’ यह भावना आत्मशुद्धि का एक बेहतरीन मार्ग प्रशस्त करेगी। उम्मीद है सनातन धर्म के ध्वज वाहक, और विशेष रूप से कथित संत एक बार स्वमूल्यांकन करने का प्रयास करेंगे; ताकि उनके बीच पसरे नैराश्य, कुंठा, भौतिकतावाद जैसे विभिन्न दुराग्रहों से संत परंपरा की शुद्धि हो सके।