उत्तराखंड राजनीति: कठिन डगर, मुश्किल सफर

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विधानसभा अध्यक्ष गोविंद सिंह कुंजवाल के साथ हरीश रावतौर अन्य नवनिर्वाचित विधायक

उत्तराखंड विधानसभा की तीन सीटों पर हुए उपचुनाव के नतीजे सत्तारूढ़ कांग्रेस और मुख्यमंत्री हरीश रावत के लिए संजीवनी लेकर आए हैं. विजय बहुगुणा की जगह मुख्यमंत्री बने हरीश रावत को विमान हादसे में लगी गर्दन की चोट ने सताया तो लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी की कमर ही टूट गई. लगभग डेढ़ महीने से ज्यादा समय तक दिल्ली में इलाज कराने के बाद कुछ ही दिन पहले देहरादून लौटे रावत मन ही मन इन चुनाव के नतीजों को लेकर काफी चिंतित थे. उन्हें छह माह पहले इसी शर्त पर विजय बहुगुणा की जगह मुख्यमंत्री बनाया गया था कि वे लोकसभा चुनाव के समय राज्य में कांग्रेस की लुटिया डूबने से बचा लेंगे. लेकिन जी तोड़ प्रयासों के बावजूद वे कुछ न कर पाए और कांग्रेस को लोकसभा की सभी पांच सीटें गंवानी पड़ीं. बिगड़ी बनाने के प्रयास के रूप में गैरसैण में विधानसभा का सत्र आयोजित कर विधानसभा उपचुनावों की तैयारी के लिए दिल्ली जाते हुए विमान के झंझावात में फंस जाने की वजह से उन्हें गर्दन और कमर में गहरी चोट आई और लंबे समय के लिए उन्हें अस्पताल की शरण लेनी पड़ी. इसके फलस्वरूप वे न तो अपना नामांकन भरने अपने निर्वाचन क्षेत्र धारचूला जा पाए थे और न कहीं चुनाव प्रचार में. शारीरिक मजबूरी के कारण उनके पास देहरादून के अपने तीन कमरों के फ्लैट में बारी-बारी से बेचैन होकर घूमते रहने के सिवा कोई चारा न था.

लेकिन 25 जुलाई को आए नतीजों में तीनों सीटों पर मिली जीत ने उनके लिए औषधि का काम किया. वैसे, हरीश रावत के निर्वाचन क्षेत्र धारचूला को एक चमत्कारिक प्राकृतिक औषधि यारसा गुम्बा के लिए भी जाना जाता है, जिसके बारे में यह विश्वास है कि वह मनुष्य में नए पौरुष, उत्साह और ऊर्जा का संचार कर देती है. सचमुच धारचूला और दो अन्य विधानसभा क्षेत्रों की जनता ने उन्हें अच्छी खासी बढ़त वाली जीत दिलाकर  यारसा गुम्बा की एक भरपूर खुराक पेश की है. राष्ट्रीय स्तर पर भी मोदी के असर से जूझ रही कांग्रेस के लिए यह पहली बड़ी राहत है, जिसे वह चाहे तो मोदी ज्वर के उतरने का प्रतीक मानकर आईसीयू से बाहर निकल सकती है. हरीश रावत के लिए भी इन चुनावों के परिणाम उनके अब तक के राजनीतिक जीवन में संभवत: सर्वाधिक अहम थे. उनके पूर्ववर्ती विजय बहुगुणा के कार्यकाल में उभरे असंतोष और निराशा के चलते आला कमान ने रावत का अनुभव देखते हुए उनको बड़ी अपेक्षा से लोकसभा चुनाव के पहले राज्य में भेजा था. वह अपेक्षा यह थी कि वे कांग्रेस की ढहती दीवारों को थाम लेंगे. लेकिन मोदी के राष्ट्रव्यापी अंधड़ में उनकी एक न चली और पार्टी को हर सीट पर पराजय का मुंह देखना पड़ा. लेकिन इस अप्रत्याशित सफलता ने हरीश रावत की चुनौतियां भी बढ़ा दी हैं.

पार्टी के भीतर उनका आंतरिक ‘विपक्ष’ भले ही ताजा चुनाव परिणामों से फिलहाल चुप्पी साधने को मजबूर हुआ है, लेकिन हरीश रावत को लेकर विरोधी खेमे की असहजता और खुंदक कम नहीं हुई है. उनकी अनुपस्थिति में मुख्यमंत्री का कामकाज देखने के लिए अधिकृत की गईं वरिष्ठ मंत्रिमंडलीय सहयोगी इंदिरा हृदयेश के मन में अनायास ही सत्ता शीर्ष की कोंपलें फूट पड़ीं. अपने मनोभावों को उन्होंने उस दौरान यह कहकर उजागर भी कर दिया था कि ‘मुझे मुख्यमंत्री का काम संभालने के लिए आलाकमान ने अधिकृत किया है.’ इंदिरा हृदयेश उन दिनों अपना दफ्तर छोड़कर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठकर नियमित रूप से अफसरों की हाजिरी लेती थीं. नव नियुक्त कांग्रेस अध्यक्ष किशोर उपाध्याय के खिलाफ लामबंद होने के बाद आंतरिक विपक्ष ने सीधे हरीश रावत के विरुद्ध मोर्चा खोला. कैबिनेट मंत्री हरक सिंह रावत की अगुवाई में कांग्रेस विधायकों के एक छोटे दल ने दिल्ली जाकर राज्य में खनन और शराब कारोबार को लेकर अपनी ही सरकार को कटघरे में ला खड़ा करने का प्रयास किया. माना जा रहा है कि इन्हीं परिस्थितियों के कारण हरीश रावत को दिल्ली के आयुर्विज्ञान संस्थान से अपना इलाज अधूरा छोड़ कर देहरादून लौटने को मजबूर होना पड़ा.

अब नौकरशाही को काबू करना उनकी पहली चुनौती है. अपने नवनिर्मित निजी भवन के लिए पेड़ कटवाने के गंभीर आरोप में घिरे पुलिस महानिदेशक अभी तक यथावत हैं, तो पिछली सरकार के समय कोकाकोला जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भूमि आवंटन में व्यक्तिगत रुचि लेने के चौतरफा आरोप झेल चुके एक आला नौकरशाह का रुतबा अभी भी एकदम पहले जैसा है. रावत ने भारी राजनीतिक जोखिम उठाकर राज्य की जनता के सर्वाधिक वांछित स्थल गैरसंैण को राजधानी बनाने की दिशा में पहल कर मानो बोतल में बंद जिन्न को खोल दिया है. अब उन्हें यह सिद्ध करना है कि गैरसैण में विधानसभा सत्र आयोजित करने की पहल उन्होंने शगूफे के तौर पर नहीं, बल्कि गंभीर प्रतिबद्धता के तौर पर की थी. मुख्यमंत्री बनने पर उन्हें तत्कालीन दबावों के चलते पुराने मंत्रिमंडल को यथावत गोद लेना पड़ा था. यह ठीक ऐसी स्थिति थी जैसे पुनर्विवाह करने पर किसी व्यक्ति को अपनी पत्नी के पहले विवाह से उत्पन्न उद्दंड और नाकारा पुत्रों को भी अपनाना पड़ जाए. अब उनके पास किसी दबाव का कोई बहाना नहीं है. मंत्रिमंडल नितांत असंतुलित है. कुमाऊं मंडल का प्रतिनिधित्व लगभग नगण्य होने के चलते सभी निर्दलियों को उसमें शामिल कर लिया गया था. यूं भी राज्य गठन से हर मोर्चे पर छली जा रही जनता को हरीश रावत से कुछ ज्यादा ही अपेक्षाएं है. इन अपेक्षाओं पर खरा न उतर पाना उन्हें भीषण राजनीतिक गर्त में भी धकेल सकता है.

बड़ी उम्मीदों से खाद पानी देकर सींचे गए पौधे का फल तीखा निकलने पर कई बार उसे काट भी दिया जाता है.