घड़ी में सुबह के साढ़े 10 बजे थे. उत्तर प्रदेश के कानपुर देहात इलाके के रमाबाई नगर के अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायालय के कमरा संख्या चार से एक आवाज गूंजती है, कोशा..!
हालांकि इस आवाज का कोई जवाब नहीं मिल पाता. न तो कोशा के वकील, न ही अभियोजन (प्रतिपक्ष) के वकील की ओर से और न ही खुद कोशा की कोई आवाज आई. इनमें से कोई भी वहां मौजूद नहीं था. कोशा 1981 के बेहमई सामूहिक नरसंहार कांड के आरोपियों में से एक है.
इसके एक घंटे बाद एक अन्य आरोपी विश्वनाथ हाजिर हुआ. लंबा कद, सांवला रंग, गहरे स्लेटी रंग की शर्ट-पैंट और हरे रंग का स्वेटर पहने विश्वनाथ उर्फ कृष्ण स्वरूप हाथों में ढेर सारी फाइलें लिए अपने वकील के साथ अदालत पहुंचा था. उसके चेहरे की उलझन साफ देखी जा सकती थी. 23 नवंबर, 2015 को एक फैसले में उसे इस अपराध के समय नाबालिग घोषित कर दिया गया. उसके बाद से यह कथित डाकू इस मामले का जल्द से जल्द निपटारा चाहता है.
‘बैंडिट क्वीन’ और ‘लेडी रॉबिनहुड’ के नाम से जानी जाने वाली फूलन देवी ने तकरीबन 35 साल पहले 14 फरवरी 1981 को राजपूत प्रभुत्व वाले गांव बेहमई में 22 लोगों की गोली मारकर हत्या कर दी थी. कुछ लोगों ने इस नरसंहार को सवर्ण जातियों के विरुद्ध खड़े होने के प्रयास के रूप में देखा और इसी के बाद फूलन उस दौर की ‘आराध्य’ डकैत के रूप में देखी जाने लगीं.
1983 में फूलन देवी के आत्मसमर्पण करने से पहले जब इस सामूहिक नरसंहार की खबरें राजनीतिक गलियारों में हलचल मचाने लगीं तो मामले को काबू में दिखाने के लिए उत्तर प्रदेश पुलिस ने कुछ एनकाउंटर और गिरफ्तारियां कीं. कानपुर में जिन 16 आरोपियों के विरुद्ध आरोपपत्र दाखिल किए गए, उनमें विश्वनाथ का भी नाम था. इसी सूची में फूलन देवी का भी नाम था लेकिन वे कभी अदालत में पेश नहीं हुईं क्योंकि आत्मसमर्पण के वक्त उन्होंने खुद को मध्य प्रदेश की जेल में रखने की शर्त रखी थी. फूलन देवी ने 11 वर्ष से अधिक समय मध्य प्रदेश की जेल में बिताया जबकि उनके गिरोह के दूसरे सदस्यों की सुनवाई कानपुर में ही हुई. अपने एक साक्षात्कार में फूलन देवी ने कहा था, ‘मेरे आदेश के खिलाफ गिरोह के दूसरे साथी सुनवाई के लिए उत्तर प्रदेश चले गए.’
आज, इस घटना के तीन दशक और मामले में पहला बयान दर्ज होने के चार साल बाद इस बहुचर्चित मामले में पांच जीवित और दो फरार लोगों के खिलाफ सुनवाई जारी है. पांच में से एक ही जेल में है, जिसके देखने की क्षमता लगभग खत्म हो चुकी है. बाकी बचे चार लोग जमानत पर बाहर हैं.
अदालत में विश्वनाथ से जब उसकी उम्र के बारे में पूछा गया तो उसने जवाब दिया, ‘मेरा जन्म एक जुलाई, 1965 को हुआ है. इससे आप ही हिसाब लगा लीजिए.’ विश्वनाथ का कहना है कि वह अदालत में अपनी उम्र के बारे में साल 2008 से बार-बार बता रहा है. इसी साल उसके वकील ने अपराध के समय उसके नाबालिग होने के बारे में अदालत में प्रार्थना पत्र दाखिल किया था. हाईस्कूल की मार्कशीट और प्रमाण-पत्र के आधार पर विश्वनाथ के वकील को उसकी उम्र के इस तथ्य को साबित करने में 8 साल का वक्त लग गया. दिलचस्प यह है कि अगर बेहमई नरसंहार कांड के अंतिम फैसले में विश्वनाथ को दोषी ठहराया जाता है तो उसके नाबालिग होने का तथ्य उसकी सजा कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा. किशोर न्याय (बाल देखभाल और सुरक्षा) अधिनियम 2000 के तहत उसका केस किशोर न्याय बोर्ड को सौंपा जाएगा.
14 फरवरी 1981 को राजपूत प्रभुत्व वाले गांव बेहमई में 22 लोगों की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी. कुछ लोगों ने इस नरसंहार को सवर्ण जातियों के विरुद्ध खड़े होने के प्रयास के रूप में देखा और इसी के बाद फूलन उस दौर की ‘आराध्य’ डकैत के रूप में देखी जाने लगीं
हालांकि, अभियोजन पक्ष के अनुसार विश्वनाथ के साथ वयस्क कैदी के जैसा व्यवहार किया जाएगा. कानपुर देहात के अतिरिक्त जिला सरकारी वकील (अपराध) राजू पोरवाल साफ करते हैं, ‘विश्वनाथ की सजा अन्य आरोपियों से कम हो सकती है लेकिन सजा की यह अवधि उसे वयस्कों की जेल में पूरी करनी होगी.’ वहीं विश्वनाथ के वकील का कहना है, ‘विश्वनाथ को इसी नाम के किसी दूसरे व्यक्ति की जगह गिरफ्तार किया गया था. जिन 16 आरोपियों के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किए गए हैं, उस सूची में विश्वनाथ नाम के दो व्यक्ति थे. इनमें से एक विश्वनाथ उर्फ कृष्ण स्वरूप उर्फ पुतनी था और दूसरा विश्वनाथ उर्फ अशोक. हालांकि पोरवाल इसके खिलाफ तर्क देते हैं कि अगर कृष्ण स्वरूप को अशोक के स्थान पर पकड़ा गया है तो आरोप पत्र में कृष्ण स्वरूप का नाम होना ही नहीं चाहिए था.
रिकॉर्ड के अनुसार, विश्वनाथ को इस नरसंहार के लगभग एक महीने बाद 21 मार्च 1981 को गिरफ्तार किया गया था. इसी साल 22 मई को पहचान के लिए उसे गवाहों और मारे गए लोगों के परिवार के सामने पेश किया गया. तब गवाहों ने उसकी पहचान भी कर ली थी. आरोप पत्र दाखिल करते समय पुलिस ने विश्वनाथ की उम्र 21 वर्ष दर्ज की थी. यहां सवाल यह भी उठता है कि विश्वनाथ के वकील को उसके नाबालिग होने का तथ्य सामने लाने में इतना वक्त क्यों लगा? विश्वनाथ के वकील गिरीश नारायण दुबे का कहना है, ‘जब विश्वनाथ उर्फ कृष्ण स्वरूप ने अपनी शिक्षा के बारे में जिक्र किया और इस तथ्य पर हमारा ध्यान गया तो हमने इस बारे में आवेदन देने का फैसला लिया.’
2013 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का जिक्र करते हुए दुबे कहते हैं, ‘नाबालिग होने का दावा मामले की सुनवाई के समय कभी भी किया जा सकता है, यहां तक कि केस का अंतिम फैसला हो जाने के बाद भी. अदालत के फैसले के अनुसार देरी से याचिका दायर करने के कारण नाबालिग होने के दावे को खारिज नहीं किया जा सकता.’
नाबालिग होने के दावे वाली याचिका पहली बार 2008 में दायर की गई. उस समय अदालत ने विश्वनाथ से उसकी उम्र से संबंधित सभी दस्तावेज जमा करने के लिए कहा. लेकिन वह दस्तावेज जमा नहीं कर पाया.
पोरवाल का कहना है, ‘यह सुनवाई को टालते जाने के लिए अपनाया गया एक तरीका था. अंतत: जब 2012 में सुनवाई शुरू हुई तो विश्वनाथ कोई भी दस्तावेज पेश नहीं कर पाया. नाबालिग संबंधी याचिका वह 1981 में ही दायर कर सकता था, लेकिन उसके वकील ने 2008 तक का इंतजार किया, भला क्यों? यह सुनवाई को लंबा खींचने की योजना थी मतलब जब सभी रास्ते बंद हो जाएंगे तब यह मामला उठाकर सुनवाई को लंबा खींचा जाएगा.’
बहरहाल, यह साबित करने में 8 वर्ष लगे कि अपराध के समय विश्वनाथ की उम्र 16 वर्ष से कम थी. इसके लिए कानपुर देहात के उमरपुर प्राथमिक स्कूल के प्रधानाचार्य सुनील कुमार कटियार को अदालत में हाजिर होने का समन जारी किया गया था. इसी स्कूल में विश्वनाथ ने पांचवीं तक की पढ़ाई की थी, उस समय कटियार स्कूल के प्रधानाचार्य थे. कटियार ने अदालत में 1988 तक का स्टूडेंट रिकॉर्ड रजिस्टर पेश किया. रिकॉर्ड के अनुसार, विश्वनाथ ने उमरपुर प्राथमिक स्कूल में 24 अप्रैल 1976 को दाखिला लिया था. रजिस्टर में विश्वनाथ का जन्मदिन 1 जुलाई 1965 दर्ज था. विश्वनाथ ने पांचवीं पास करने के बाद स्कूल छोड़ दिया.
मामले में एक अहम मोड़ तब आया जब विश्वनाथ के वकील ने कानपुर के सिकंदरा स्थित सरस्वती विद्या मंदिर इंटर कॉलेज की ओर से वर्ष 1979 में जारी विश्वनाथ की हाईस्कूल की मार्कशीट अदालत में पेश की. विश्वनाथ इसमें फेल हो गया था लेकिन महत्वपूर्ण बात ये थी कि उनके जन्म की तारीख वही थी जो प्राथमिक स्कूल के रजिस्टर में दर्ज थी. अभियोजन पक्ष के वकील द्वारा आपत्ति करने के बाद उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद, इलाहाबाद की ओर से विश्वनाथ की मार्कशीट और प्रमाण पत्र समेत सभी दस्तावेजों की प्रामाणिकता की जांच की गई. बोर्ड के दस्तावेजों के अनुसार, अपराध के समय विश्वनाथ 15 वर्ष, सात माह और 13 दिन का था.
हालांकि उम्र छिपाने के मुद्दे पर अभियोजन पक्ष के वकील बहुत ठोस तर्क नहीं रख पाए क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में साफ कर दिया है कि मेडिकल परीक्षण से उम्र का ठीक-ठीक पता लगाना संभव नहीं है, ऐसे में अदालत अनावश्यक रूप से इस सामान्य राय से प्रभावित नहीं होगा कि अभिभावक भविष्य में कुछ लाभ उठाने की दृष्टि से बच्चों की उम्र एक-दो साल कम करके दर्ज करवाते हैं. अदालत के अनुसार इस मामले को प्रथमदृष्टया नजर आने वाले तथ्यों के आधार पर ही देखा जाना चाहिए.
आज विश्वनाथ महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम के तहत मजदूरी करते हैं. विश्वनाथ ने कहा, ‘जब से केस शुरू हुआ है तब से मैं अपनी आठ एकड़ जमीन बेच चुका हूं. मेरी पांच बेटियां, दो बेटे हैं, मुझे उन सबकी देखभाल करनी है.’
पोरवाल बताते हैं, ‘विश्वनाथ भी फूलन की तरह मल्लाह जाति से है. उस समय इन डाकुओं को ‘बागी’ कहा जाता था. जब भी उन्हें किसी गांव पर हमला करना होता था या किसी का अपहरण करना होता था तब वे एक जगह इकट्ठा हो जाते और काम खत्म होने के बाद अपने-अपने गांवों में जाकर छिप जाते थे. उस वक्त हर गांव की चाहत होती थी कि उनका कोई न कोई सदस्य डाकुओं के गिरोह में हो ताकि उनका गांव ठाकुर जैसी सवर्ण जातियों की हिंसा से सुरक्षित रहे.’
‘नाबालिग होने का दावा मामले की सुनवाई के समय कभी भी किया जा सकता है, यहां तक कि केस का अंतिम फैसला हो जाने के बाद भी. अदालत के फैसले के अनुसार देरी से याचिका दायर करने के कारण नाबालिग होने के दावे को खारिज नहीं किया जा सकता’
दिलचस्प यह है कि अभियोग चलाने का पहला चरण चार माह पहले ही शुरू हुआ है और मामले को हर दिन सुनवाई के लिए रखा गया है. 24 सितंबर, 2015 को 15 गवाहों को अदालत में पेश किया गया. इनमें से सात को उसी समय पेश किया गया था जब फूलन और उसके गिरोह ने बेहमई में 22 राजपूतों को मारा था. फूलन देवी के डर और दहशत की वजह से उस समय एक भी गवाह सामने आकर गिरोह की पहचान करने के लिए तैयार नहीं था. लेकिन सुनवाई आगे बढ़ने के साथ गवाहों ने दोषियों की पहचान करनी शुरू की. हालांकि गवाहों के लगातार बदलते बयानों ने मामले को पेचीदा बना दिया था.
बहरहाल, इस मामले में अंतिम फैसला आना अभी बाकी है, लेकिन बेहमई सामूहिक नरसंहार कांड मामले के 35 साल बाद अदालत द्वारा 50 साल के विश्वनाथ को अपराध के समय ‘नाबालिग’ घोषित करना हैरान करता है. यह फैसला तब आया है जब 16 दिसंबर, 2012 के निर्भया कांड के मामले में नाबालिग की सजा को लेकर देशभर में चली बहस और नए कानून के तहत गंभीर अपराधों में शामिल नाबालिग की उम्र सीमा 18 से घटाकर 16 वर्ष कर दी गई.